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मानवीय मुद्दों पर भी "सलेक्टिव सोच" के निहितार्थ!

वामपंथी गिरोह और लुटियन्स बिरादरी के प्रगतिशीलता का झंडा उठाने का दम्भ भरने वाली टोली मौन धारण कर चुकी है।

Anand Upadhyay
Published on: 17 Aug 2021 4:21 PM IST
मानवीय मुद्दों पर भी सलेक्टिव सोच के निहितार्थ!
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दस साल पूरे रुआब के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के उपराष्ट्रपति पद पर रह कर सत्ता का सुख भोगने के बाद "भारत में मुसलमानों को अपने ही देश में डर लगता है" का मिथ्यारोप मढ़ने वाले हामिद अंसारी की जुबान पर दही जमी हुई है। वालीवुड के सहिष्णुता गैंग को काठ मार गया है, पुरस्कार वापसी की टुकड़ी सन्निपात में है। छद्म सेकुलरवादी बुद्धिजीवी वर्ग का गैंग कैन्डिल मार्च भूल चुका है। अभिव्यक्ति की आजादी वालों का भोंपू शान्त है। वामपंथी गिरोह और लुटियन्स बिरादरी के प्रगतिशीलता का झंडा उठाने का दम्भ भरने वाली टोली मौन धारण कर चुकी है। जिनकी बीबी को भारत में डर लगता है नेपथ्य में चले गए हैं।

जावेद अख्तर, शबाना आज़मी, स्वरा भास्कर, नसीरुद्दीन शाह, अनुराग कश्यप, करीना, नगमा, जया बच्चन, खान बिरादरी की बॉलीवुड की तिकड़ी भूमिगत है। दिग्विजय सिंह, शशि थरूर, राहुल गांधी, पी. चिदम्बरम, रणदीप सुरजेवाला, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल सरीखो ने आंखों को मूंद कर कान में सेमल वाली रूई ठूंस ली है। विदेशी चन्दों के बूते नौटंकी करने वाले एनजीओ कोरन्टाइन में हैं। एमेनेस्टी इन्टरनेशनल के भारत में चिल्ल पौ मचाने और सहानुभूति भुनाने वाली बिरादरी मेडिटेशन मूड में आ चुकी है। रिटायर्ड नौकरशाहों और आउटडेटेड जजों की स्व नाम धन्य हस्ताक्षर अभियान चलाने वाली पूरी की पूरी जमात साइलेन्ट स्टेटस पर करवट लेकर औंधी पड़ी दृष्टिगत है।

भारत के जम्मू-कश्मीर इलाके की सीमा से बामुश्किल चार सैकड़ा किलोमीटर की दूरी पर स्थित अफगानिस्तान पर 20 साल के अन्तराल पर एक बार फिर तालिबानी आतंकवादियों/आततायियों ने राजधानी काबुल सहित समूचे देश पर कब्जा कर लिया है। काबुल एयरपोर्ट का परिदृश्य भयावहता की पराकाष्ठा को दर्शा रहा है। अतीत की स्मृति को मंज़र में रख तालिबानी जल्लादों के खौफ से बचने के लिए अफगान नागरिकों में जान बचाने की होड़ लगी है। मगर हवाईअड्डों को सिविल उड़ान भरने के लिए लगायी गयी रोक से भारी अफरा तफरी मची है।एयरपोर्ट पर इकट्ठा लोगों को अमरीका के सैनिकों की गोलाबारी से जान गंवानी पड़ रही है। हवाई अड्डे पर सात लोगों की मौत की खबर है।

हैवानियत के लिए कुख्यात तालिबानियो की दो दशक पहले की बरती गई मध्य युगीन बर्बरता की याद कर सिहर जाने वाली आम जनता बदहवासी में हवाई अड्डे के रन वे पर जमा हैं। उड़ान को तैयार विदेशी जहाजों में जगह न मिलने पर नागरिक जहाज की छतों और पहिए पर लटके नजर आए हैं। नागरिकों की उड़ान भरते समय जहाज से गिर गिर कर होती मौतों ने मानवतावादियों और समूची इन्सानियत को शर्मसार कर दिया है। विश्व बिरादरी का सन्नाटा विस्मयकारी और खेदजनक परिलक्षित होता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ को लगता है फालिज मार चुका है। सड़कों, गलियों में गोलियों की कर्कश तड़तडाहटे, बेतहाशा भागते नागरिकों की बदहवासी भरी भीड़, औरतों-लड़कियों-अबोध बच्चों की कारुणिक और नितान्त दर्दनाक चीत्कार, सड़कों पर मची भीषण भगदड़, रोड पर दहाड़ते दानवाकार टैंकों की कतारें, विभिन्न जेलों में बंद आजाद हो गये ख़ून्खार मुजरिमों की सड़कों पर उत्पाती भीड़! राष्ट्रपति भवन, विविध प्रान्तों के गवर्नर हाऊस, सरकारी रेडियो और टीवी चैनल के दफ्तर, माल्स, होटल्स, कोठियों को कब्जा कर रौंदते आततायियों की भीड़ ने पूरी मानवीयता को अंगूठा दिखाकर लाचारगी के घटाटोप में धकेल दिया है।

पाकिस्तानी मक्कारी सिर चढ़ कर अट्टहास करती नज़र आती है। चीन की धूर्तता और अव्वल दर्जे की कुटिलता वैश्विक बिरादरी को मुंह चिढ़ा रही है। रही सही कसर अमेरिका ने अपनी स्वार्थपरता और कपटपूर्ण करतूत को निहायत नंगेपन के जरिए दिखाते हुए पल्ला झाड़ लिया है। रूस भी दर्शक दीर्घा में बैठे आनंद ले रहा है। देखा जाए तो अफगानिस्तान की जनता को विनाशकारी तबाही की भट्ठी में झोंक कर खुद अफगानिस्तान के पदच्युत राष्ट्रपति अशरफ गनी देश की निरीह आम जनता के साथ खुला विश्वासघात कर अकूत संपत्ति के साथ पलायन कर चुके हैं। कई और सत्ता का सुख भोगने वाले हुक्मरान भी निरीह आम जनता को अनाथालय में जैसे ढकेल कर चार्टर्ड प्लेन से फरार हो चुके हैं। जनता को पाशविकता के अलमबरदारो के रहमोकरम पर जैसे झोंक दिया गया है।

सद्दाम हुसैन की फांसी पर हिंसक जुलूसों के जरिए भारत के विभिन्न शहरों में उत्पात करने वाले मुस्लिम समाज और इनको उकसा कर अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले और साम्प्रदायिक ताकतों के अलमबरदारो को क्या काबुल सहित अफगानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में अपनी-अपनी अस्मत बचाने के लिए चीखती गिड़गिड़ाती मिन्नते करती औरतों व लड़कियों की चीखें नज़र नहीं आ रही हैं? क्या तालिबानी वहशियाना हरकतों के विरोध में पूरे भारत में मुसलमानों ने कोई विरोध जताया है? कसाब की फांसी पर छाती पीटने वाली भारत की वह मुस्लिमों की विशेष चौकड़ी को सांप सूंघ गया है? बुरहान बानी की फांसी पर हिंसक प्रदर्शन करने वाले कहीं दरबो में जा घुसे हैं? म्यांमार के रोहिग्याओं की शान में कसीदे पढ़ने वाले लिहाफ़ में मूंह डाल सोने का नाटक क्यों कर रहे हैं?

मुलायम सिंह यादव की सरकार रही हो, मायावती की रही हो या फिर कालान्तर में अखिलेश यादव की सरकार का कार्यकाल रहा हो, पूरे यूपी में और विशेषकर राजधानी लखनऊ में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए किसी अन्य देश में घटे घटनाक्रम का खुला सरकार के मौन समर्थन में हुआ हिंसक प्रदर्शन जग-जाहिर रहा है। लाखों-करोड़ रुपये की सरकारी सम्पत्तियों को मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते नुकसान पहुंचाने की कथित कुटिल मौन स्वीकृति बेहयाई के साथ परोसने के दुर्भाग्य पूर्ण परिदृश्य यूपी की जनता को याद है। महावीर स्वामी की पवित्र मूर्ति तक पुलिस की मौजूदगी में खंडित कर डाली गयी थी। वोट-बैंक के चलते तत्कालीन सरकारों ने आखों को मूंद रखा था। मगर खेद का विषय है कि अफगानिस्तान में आम जनता और खासकर महिलाओं, युवतियों के भविष्य के आगे उमड़ते अंधकार के खिलाफ कोई प्रदर्शन तालिबान के विरोध में नहीं दिख रहा है।

टीवी चैनलों, स्कूल कालेजों और यूनिवर्सिटी में महिलाओं को टीचिंग से रोकने का फरमान जारी कर दिया है। बैंकों, माल्स, आफिसों में औरतों के काम करने पर रोक लगा दी है। 15 साल से 45 साल की किशोरियों, युवतियों व औरतों में खौफ है, बीस साल पहले की तरह तालिबानी जल्लादों की जमात जबरन इनके जिस्मों के साथ पाशविकता पूर्ण घिनौना काम कर इनकी जिंदगी को दोजख में ढकेल देगी। भारत के महिला एक्टिविस्टों और मुस्लिम समुदाय के लोगों की जुबान पर ताला लगा है। यही है असलियत सलेक्टिव सोच की!

भारतीय सेना और विविध पैरा-मिलिट्री फ़ोर्स के हमारे जाबांज जवानों को ही नहीं वरन वरिष्ठ आफिसर्स के ऊपर खुले आम पत्थरबाजों का नंगा नाच दशकों तक जम्मू-कश्मीर ही नहीं पूरे भारत की राष्ट्रवादी जनता ने बहुत ही पीड़ा के साथ देखा है। अनेक अवसरों पर तो पाकिस्तान के टुकड़ों पर बिके हुए पत्थरबाजों ने हमारे वीर जवानों को सार्वजनिक रूप से पीटा है, लातें मारी हैं। हथियारों से लैस वीर बाकुरो ने शांति से बर्दाश्त किया और गोली नहीं चलायी। उल्टे चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज़ पर भारत के छद्म मानवाधिकार के दलालों ने भारत में ही नहीं वरन् विदेशों यहाँ तक कि यूएनओ तक में भारतीय सैनिकों के खिलाफ फर्जी मिथ्यामंडन कर मनोबल को कमजोर करने का कुत्सित प्रयास कर भारत की साख को ठेस पहुंचाने का षडयन्त्रकारी कृत्य किया। आज तालिबान के वहशियाना हरकतों पर इनके अंदर विरोध दर्ज कराने की हैसियत या कहें हिम्मत नहीं है कि खिलाफत में औपचारिकता के दो शब्द भी बयान जारी कर निर्गत करने की रस्म अदायगी तक कर सकें।

कानून-व्यवस्था की समस्या के अन्तर्गत स्वाभाविक रूप से आच्छादित होने वाले स्थानीय स्तरों के आपराधिक कृत्य अथवा घटना/दुर्घटना को निहित एजेन्डे के तहत सुनियोजित तरीके से प्रोपेगन्डा ड्राइव चलाकर सलेक्टिव सोच का मुलम्मा चढ़ा कर भारत को लिन्चिगस्तान घोषित करने वाली चौकड़ी की डोर लुटियन्स बिरादरी के स्वयं भू मीडिया आकाओं के हाथ का खिलौना है। विशेषकर 2014 में भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर मोदी के प्रधानमंत्री बनने के चलते एक लाबी विरोध की आड़ में घृणा परोसने का धन्धा चलाने में इस कदर मशगूल हो गयी कि अब प्रतिकार का रूप वीभत्स स्वरूप में परिवर्तित हो कर भारत को बदनाम करने व वैश्विक पटल पर देश की प्रतिष्ठा को बेशर्मी से बट्टा लगाने के दुर्भाग्य पूर्ण दुस्साहसिक कदम के रूप में नज़र आता है।

भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर मोदी विरोधी एजेन्डा चलाते चलाते इस बिरादरी ने आलोचना व विरोध करने के लिए अपनी सलेक्टिव सोच के तहत ही एजेण्डा तय कर लिया है। भारतीय सनातन संस्कृति की मूल अवधारणा के प्रतीकों को मिथ्या प्रोपेगन्डा के चलते नीचा दिखाने की मुहिम चलायी जाती है। सदियों से मनाए जा रहे हिन्दुओं के पर्वों को कभी प्रदूषण, तो कभी पानी की बर्बादी, तो कभी दही हांडी की ऊँचाई, तो कभी शबरी माला जैसे मुद्दे या जल्लीकट्टू के औचित्य पर नौटंकी की जाती है। मगर अल्पसंख्यक समुदाय के एक त्योहार विशेष पर भारत भर में करोड़ों बेजुबान जानवरों और पवित्र गौ वंशों की बर्बर हत्या कर नालियों/जल स्रोतों को रक्तरंजित करने के मुद्दे पर आज तक किसी प्रगतिशील खेमे ने कोई पीआईएल दाखिल करने की आवश्यकता महसूस नहीं की या फिर ऐसा करने की ज़ुर्रत ही दिखाई? और तो और मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग उड़ाने से चिड़ियां घायल हो जाती हैं, जैसे मुद्दे को सुओ मोटो लेकर हस्तक्षेप करने की बात करने वाले हमारे उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट के मीलार्डस् जन भी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी कैम्पस या फिर शाहीनबाग अथवा तथाकथित किसानों के पूर्वगृह से ग्रसित आन्दोलन में खुलेआम भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दी जा रही नितान्त अश्लील अमर्यादित गालियों और खालिस्तान बनाने की नारेबाजी व देश विरोधी व सम्प्रभुता को चोट पहुंचाने के लिए किए जा रहे नारों पर आज तक अनदेखी करते ही नज़र दृष्टिगत होते आए हैं।

लगभग तीन लाख से ज्यादा सैनिकों वायुसेना और विदेशी पैसों से ट्रेनिंग प्राप्ति कमाण्डो के रहते भी मात्र अस्सी हजार तालिबानी आतंकवादियों के सामने सरेंडर सा कर दिया जाना रहस्यमयी और आश्चर्यजनक वस्तुस्थिति है। जहां विभिन्न देशों और भारत सरकार द्वारा अपने दूतावासो को बंद कर अधिकारियों को वापस बुलाने की बात दृष्टिगत हो रही है, वहीं पाकिस्तान, चीन, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा कुटिल चाल चल कर तालिबानी आतंकवादियों के कब्जे को मान्यता देने की घृणित हरकत पूरी विश्व बिरादरी के समक्ष गंभीर चुनौती पैदा कर रही है। भारत को सबसे ज्यादा खतरा आसन्न नजर आने लगा है।

बुनियादी सवाल यह है कि हम मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों पर सलेक्टिव और दोगलेपन की इन्तेहा वाली सोच का परित्याग कब कर पाएंगे? मानवीयता और मानवीय संवेदना को सिर्फ पोलिटिकल लाभ या हानि के तराजू में तौलने की संकीर्ण मानसिकता को छोड़ने की पहल कब होगी, राष्ट्र के समक्ष आज यह सम सामयिक, ज्वलंत और विचारणीय यक्ष प्रश्न है।

(लेखक पूर्व अधिकारी व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

Raghvendra Prasad Mishra

Raghvendra Prasad Mishra

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