×

Freedom Struggle: इलाहाबाद और स्वतंत्रता संग्राम

Freedom Struggle: बहुत कम लोगों को मालूम है की कंपनी बाग़ की मिटटी सैकडों लोगों के खून से सनी हुयी है।

AP Bhatnagar
Written By AP Bhatnagar
Published on: 7 Oct 2022 3:50 AM GMT (Updated on: 7 Oct 2022 5:14 AM GMT)
Chandrashekhar Azad Park
X

Chandrashekhar Azad Park (photo: social media )

Freedom Struggle: आज हमारे मुल्क की अजादी के लगभग 76 साल हो चुके हैं। इलाहाबाद शहर की रहने वाली नई नस्लों को अजादी की लडाई मे इलाहाबाद की तारीख को ज़रुर याद रखना चाहिये। क्या आप जानते हैं की इलाहाबाद में कंपनी बाग या अल्फ्रेड पार्क जो अब चंद्रशेखर आजाद पार्क के नाम से जाना जाता है सन 1857 से पहले कभी वहाँ घनी मुस्लिम आबादी हुआ करती थी ? बहुत कम लोगों को मालूम है की कंपनी बाग़ की मिटटी सैकडों लोगों के खून से सनी हुयी है। देश की आज़ादी में ना जाने कितने जांबाजों ने अपनी जान गंवा कर हमें आजादी का तोहफा दिया।

इन जांबाज शहीदों में इलाहाबाद के मेवाति पठानों का नाम सबसे ऊपर आएगा, जिनहोने 1857 की क्रांति मे हर मोड़ पर न सिर्फ अंग्रेजों से लोहा लिया ।बल्कि उन्हें एक वक्त करारी शिकस्त भी दी। इलाहाबाद की तारीख के पन्ने मेवातियों की क़ुरबानियों की अज़िमुशान दास्ताँ बयान करते हैं। कंपनी बाग़ के दक्खिन (South) हिस्से में समदाबाद और छीतपुर नाम से मेवाति मुस्लिमों के गांव हुआ करते थे, जहाँ पर आज मोतीलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज है। सन् 1857 के गदर में इन गांवों के लोगों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्को बागी का खिताब देते हुए, North India मे बगावत को कुचलने के लिये मद्रास (चेन्नई) से ईस्ट इंडिया कंपनी की छट्वी ब्रिगेड के कमाण्डर, कर्नल जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील की अगुवाई में अंग्रेजी फौज की (तोपों से लैस) एक आर्टिलरी रेजिमेंट भेजी। कर्नल नील जिसने 1857 मे बगावत को कुचलने के लिये उत्तर भारतीयों का सबसे बड़ा कत्ले आम (Genocide) किया था, जिसको Butcher of Allahabad का खिताब दिया गया था, उसने मुस्लिमो की आबादी वाले इन दोनों गाँवों को पूरी तरह से तबाह कर दिया, जिसमे हज़ारो लोग मारे गए ।

बाद मे अंग्रेज़ी हुकुमत ने यह जगह साफ कर यहाँ एक गार्डन बनाया। यहां अंग्रेजी रेजिमेंट की एक कंपनी तैनात कर दी गई, जिसके चारो तरफ खूबसूरत पेड पौधे लगा कर एक बाग की शक्ल दी गई और इस जगह को नया नाम दिया गया - कंपनी गार्डन। कुछ समय बाद यहाँ पर North Western Province (उत्तर प्रदेश) का हेड ऑफ़िस बना दिया गया। आज भी वहाँ पर कुछ पुरानी मज़ारों और मस्जिदों के टुटे-फूटे हिस्से देखने को मिल जायेंगे, जो 1857 से पहले शहर की शान हुआ करती थी। बगावत को कुचलने के बाद मेवातियों के सभी खेत ओर बागों को ज़ब्त कर लिया गया, जिस पर आज के इलाहाबाद शहर का पूरा सिविल लाइन्स बसा हुआ है, यहाँ कभी मुस्लिमो के 8 गाँव हुआ करते थे।जिसमे से समदाबाद और छितपुर सबसे पुराने गाँव थे। यहाँ के ज़्यादातर मेवाती मुगलो की फौज में सिपाही हुआ करते थे। कुछ लोग काश्तकारि करते थे। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ले कर पूरे सिविल लाइन्स समेत इलाहाबाद हाईकोर्ट तक की पूरी ज़मीन कभी इन 8 गाँवों की मिल्कियत हुआ करती थी । जिसको अंग्रेजो ने जलाने के बाद ज़ब्त कर लिया था। छीतपुर और समदाबाद के मेवातियों के अलावा शहर के रसूलपुर के मेवाती, महगांव, कोल्हा, सराय सलीम, (सुलेम सराय) सिरोधा, फतेहपुर, बरमहर, चायल खास , भिकपुर, पावन, शेखपुर, मरियाडीह, बारागांव, मुइनुद्दीनपुर, गौसपुर, बेगम सराय, ओदानी, बेली, बधरा, नीमी बाग, चेतपुर, रसूलपुर देहू, मिनहाजपुर, रोही, गयासुद्दीनपुर, मिन्हाजपुर , कसमनदा, अकबरपुर, सराय भोजाह, उमरपुर शेवान जैसे गांवों के मुस्लिम भी मेवातियों के साथ आजादी की लड़ाई में शरीक रहे।

बहुत से अंग्रेज़ अफसरों और फौजियों को मार दिया

इन्ही गाँवों से मिल कर आज का इलाहाबाद शहर बना है। 4 जून, 1857 की रात चैथम लाइन छावनी के मेस हाउस में नाइन इन्फेंट्री के सिपाही बागी हो गए तो यहां के अंग्रेज अफसरों ने भागकर किले में पनाह ली। इसी आपाधापी में बागी सिपाहियों ने चैथम लाईन छावनी में अंग्रेजों के कई मकान जला दिए, बहुत से अंग्रेज़ अफसरों और फौजियों को मार दिया गया। इतना ही नहीं, बगियों ने सरकारी खजाने से तीस लाख रुपये भी लूट लिए थे। मलाका जेल से तीन हजार कैदियों को भी आज़ाद करा लिया गया था, जिनमें से ज़्यादातर कैदी बगियोँ के साथ मिल गए। 5 जून, 1857 ईद के तीसरे दिन की शाम सैफ खान मेवाती के घर पर मेवतियों की एक पंचायत हुई जिसमे अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत करने का फैसला लिया गया। अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत को जिहाद का नाम दिया गया। शहरियों और तहसीलदारी पुलिस ने भी उनका साथ दिया। क्रांतिकारियों का जोश ऐसा था कि अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी। किले से बाहर शहर में मौजूद बहुत सारे अंग्रेज़ मारे गये। इलाहाबाद शहर को अंग्रेजी हुकूमत से आज़ादी का एलान कर दिया गया। महँगाव के ज़ेरदस्त इन्क़लाबी नेता, मौलवी लियाकत अली की क़यादत में इलाहाबाद शहर मे पुरे 14 दिनों तक बागी क्रांतिकारियों की हुक़ुमत रही। कोतवाली समेत पूरे शहर मे हर बडी इमारत पर हरा इस्लामिक झन्डा लगाया गया था। "गाज़ी हैं हम अल्लाहु अकबर" का नारा लगते हुये घोड़ों पर सवार हाँथों मे नंगी तलवार लिये मुजाहिदीनो की टोली शहर के हर सडक चौराहे पर गुज़रती और लोंगो मे जोश भरती जाती।वही इलाहाबाद किले में अंग्रेज़ो ने देशी सिपाहियो से बंदूके ज़ब्त कर ली व खुद को बंद कर के महफ़ूज कर लिया था, सिर्फ पटियाला की सिख रेजिमेंट ने अंग्रेज़ो का साथ दिया और बागियों का साथ देने से साफ इन्कार कर दिया, जिससे क्रांतिकारी इलाहाबाद किले पर कब्ज़ा करने में नाकामयाब रहे।

Madras Royal Fusiliers के विलियम ग्रूम ने अपनी बीवी को लिखे एक खत मे बयान किया है की "बागी सिपाही और Momadan (मुस्लिम) से वो लोग घिर चुके है, बहुत सारे अंग्रेज़ मारे गये हैं । वो लोग King's Garden (खुशरो बाग) मे बहुत मज़बूत हैं हम इन्को जल्द सबक सिखायेंगे" जिसके बाद कर्नल नील ने इलाहाबाद में सिख रेजिमेंट वा मद्रास आर्टिलरी रेजिमेंट के साथ मिल कर पूरे इलाहाबाद में भयानक कल्ले आम किया। इलाहाबाद कोतवाली के पास नीम के सात पेड़ों पर हज़ारों शहरीयों को फासी पर लटका दिया गया। उनकी लाशों को उतार कर बैलगाड़ियों मे भर कर बारी-बारी से यमुना नदी मे फेक दिया जाता। क्योंकि अंग्रेजों के खिलाफ बगावत में इलाहाबाद के मेवाती मुस्लिम सबसे आगे थे, लिहाजा कर्नल नील के खास निशाने पर मुस्लिम ओर उनके घर वा इबदत्गाह थी। उस वक्त की मुस्लिमों की सभी बडी मस्जिदो को तोप से उडा दिया गया उनके गांव जला दिये गये। कुछ मेवातियो के किले के पास वाली जामा मस्जिद मे छिपे होने की इत्तला होने पर, शहर की सबसे बडी शाही जामा मस्जिद जिसको अकबर की हुकुमत के दौरान मुगल सिपहसलार मिर्ज़ा शर्मत बेग ने बनवाया था, जिसकी एक पेन्टिँग अंग्रेज़ आर्टिस्ट Thomas & Daniel ने 1795 मे अपने इलाहबाद के दौरे मे बनाई थी जो कभी आज के मिंटो पार्क (एम एम मालवीय पार्क) वाली जगह पर मौजूद थी कर्नल नील के हुक्म से उसको तोपों से पूरी तरह तोड़ डाला गया। उसका सारा मलबा जमुना नदी मे फेक दिया गया। इलाहाबाद से कानपुर जाते वक्त कर्नल नील ने GT रोड के दोनों तरफ मौजूद गाँव के लोगों को पकड-पकड कर रोड के किनारे पेड़ों पर फाँसी से लटका दिया। इलाहाबाद की 1857 की क्रांति को बुरी तरह कुचलने के बाद इलाहाबाद शहर पर अंग्रेज़ो का दुबारा कब्ज़ा हो गया । कुछ महीने बाद मौलवी लियाकत अली भी गिरफ्तार कर लिये गये। उनको ताउम्र कालापानी (अंडमान जेल) भेज दिया गया जहाँ उनको मजीद तकलीफ दे कर मार डाला गया ।

(ऊपर दी गई जानकारी ए पी भटनागर की लिखी हुई किताब Maulvi Liyaqat Ali-Icon of 1857 से ली गई है।)

Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

Next Story