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महाराजगंज के आलोक शर्मा का सामयिक रचना संसार, पनियहवाँ पुल कविता में छिपा है पूरा इतिहास

आज लोक को,तंत्र की चाहत, तंत्र को चाहत, लोक की; निष्पक्ष मीडिया, काम कर रही, सही सूचना, रोग की! दिखा एकता सभी बजाये, थाली, पल्टा, सूप को; सारी दुनिया नेक हो गयी, देख काल के, रूप को....

Alok Sharma
Written By Alok Sharma
Published on: 9 Oct 2022 8:50 AM IST (Updated on: 9 Oct 2022 8:35 PM IST)
महाराजगंज के आलोक शर्मा का सामयिक रचना संसार, पनियहवाँ पुल कविता में छिपा है पूरा इतिहास
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उत्तर प्रदेश के महाराजगंज जिले के आलोक शर्मा ने कोरोना बीमारी और लॉकडाउन के दौरान उठाए गए कदमों को महसूस किया है और शिद्दत के साथ उन्हें जिया है। आलोक शर्मा ने इस दौरान घरों में, बच्चों पर पड़ने वाले इसके प्रभावों को भी देखा और इन सबके बीच जो रचना बिंदु मन के ज्वार भाटे के बीच उठे उन्हें शब्दों के मोती में बहुत करीने से पिरोया है। प्रस्तुत हैं आलोक शर्मा की रचनाधारा के मोती।

पनियहवाँ पुल

————————————

बिहार,मदनपुर माई मंदिर,

दर्शन हमे करा दें!

बेटे की इच्छा थी,

जंगल-गंडक नदी दिखा दें!

अच्छी इच्छा देख पुत्र की,

मैने तत्क्षण मान लिया!

पिता पुत्र फिर दोनो ने,

एक साथ प्रस्थान किया!

कुछ दूरी तय की पँहुच गए,

दोनों माँ के दरबार!

चढ़ा नारियल मत्था टेका,

श्रद्धा लिए अपार!

यहीं मदनपुर माँ का मंदिर,

बीच घना जंगल हैं!

जो भी भक्त यहाँ आ जाये,

जीवन में उसके मंगल है!

दर्शन की-जंगल देखा,

बात किये हम खुलकर!

गण्डक नदी देखने फिर,

पँहुचे पनियहवां पुल पर!

पूछा बेटे ने कहाँ से उदगम,

कहाँ हुआ है अंत ?

क्या कहता इतिहास हमारा,

क्या कहते हैं ग्रन्थ?

मैने कहा यही गण्डक हैं,

विगलित हिम की धार!

एक किनारे यूपी अपना,

दूजा-छोर...... बिहार!

दोनों प्रान्त से प्रेम है इनका,

देखो मध्य के प्यार को!

बहुत दूर तक बांट रही हैं,

यूपी और बिहार को!

कालीगण्डकी औ त्रिशूली,

निकली महा-हिमालय से!

संगम लेकर बनी नारायणी,

गुजरी कई देवालय से!

पल में मार्ग बदल लेतीं,

कुछ नहीं समझ में आता है!

कभी सटा,कभी तीनमील पर,

छोर नज़र आता है!!

हैं नेपाल की बड़ी नदी,

इनकी पौराणिक गाथा है!

वेद, पुराण सन्त जिनको,

नित गाता औ सुनाता है!

शापमुक्त होने नारायण,

विष्णु इसी में आये थे!

पड़ा नारायणी नाम तभी से,

वेद पुराण भी गाये थे!

काले ठाकुरजी,सालिकग्राम भी,

इसी नदी में रहते हैं!

शालिग्रामि भी नाम नदीका,

इसीलिए हम कहते हैं!

यहीं आश्रम बाल्मीकि,

जँह सिया दुःखी गम्भीर!

लवकुश का भी जन्म हुआ था,

इसी नदी के तीर!

गज की जान बचाने केशव,

इसी नदी में आए थे!

जरासंध का वधकर पांडव,

नदी यही नहाए थे!

कालीगण्डक,सप्तगण्डकी,

इसे नेपालमें कहते हैं!

कहते नारायणी बड़ीगण्डक,

भारत में जो रहते हैं!

कोंडोचेट्स, सदानीरा,

गण्डक भी नाम इसी का!

लेकिन जब ये क्रुद्ध हो जातीं,

सुनती नहीं किसी का!

निबुन हिमल ग्लैशियर से निकली,

मुक्तिधाम से आईं हैं!

6268 मीटर धरती से,

उस चोटी की ऊंचाई है!

धौलागिरि के मुसतांग जिला,

पटना तक बहती आई हैं!

तेरह सौ दस 1310 किमी,

इनकी कुल लम्बाई है!

960 किमी नेपाल,

350 भारत मे रहती हैं!

पर महराजगंज में बेटा,

15 किमी ही बहती हैं!

फिर कुशीनगर जिला होते,

ये जा पँहुची चंपारण तक!

मुज्जफरपुर औ अन्य जगह,

छूते बिहार के सारण तक!

सोनपुर, हाजीपुर में,

यह हर्षमग्न हो खिल जाती!

भारत भूमि को दे आशीष,

पटना गंगा में मिल जाती!

पावन पुण्य पुनीता हैं ये,

ना कोई इनकी सानी है!

बेटे ने भी मान लिया,

क्या अद्भुत पुन्य कहानी है!!


=============दीया एक बराई=============

न बिआदि इ पनपी जग में, रोग नाश होइ जाई;

आज पिया मोरे संघरी रहिअ, दीया एक बराई;

भोरवें सासु दलानी में आजु, कहली सुनअ बहुरिया;

सांझें तूं तइयार हो जइह, घर मे रही अन्हरिया!

नव-बजे जरी, नव-मिनट ज्योति, अउ चउखत तरे धराई;

आज पिया मोरे संघरी रहिअ, दीया एक बराई;

बा बुझात नव-बजे के बेरा, काहें धइले पण्डित;

साथे रहिहैं, 'नव-दुर्गा', ना होहिहें नव-ग्रह खंडित!

इंद्रिय के ई महारोग, नव-इन्द्रिय ना 'छू', पाई;

आज पिया मोरे संघरी रहिअ, दीया एक बराई!

रामजी भी रावण के जुद्ध में, नउवे दिन वध कइलीं;

राम सलाका में तुलसी, बस नउवे खाना धइलीं!

नव के स्वामी मंगल "दुलहिन" नव निधि लेके आई;

आज पिया मोरे संघरी रहिअ, दीया एक बराई!

सुनलीं हैं कुछ जान के दुश्मन, देशवे बाने बाँअटत,

कउनो छीकें कउनो थूकें, कउनो बाने चाअटत;

अइसे में ई जोति हिन्द के, करिहें नेक भलाई,

आज पिया मोरे संघरी रहिअ, दीया एक बराई!

****************कउन रोग ई आइल काका***************

कउन रोग ई आइल काका, सब कुछ छूटि गइल!

इक्को लोटा दिखे भोर ना, दिखे सड़क के टहरल;

ना जालिन बैद्या घर भउजी, ना सुनलीं हम कँहरल!

मास बितल बोतल टॉनिक, ना इक्को घुटि गइल;

कउन रोग ई आइल काका, सब कुछ छूटि गइल!

सुनलीं बड़का शहर के सगरी, बन्द पार्क अउ माल,

होटल क्लब आ ढाबा वाला, मुर्गा टंगरी, दाल;

चउमिन,पिज्जा बरगर वाली पंगति टूटि गइल;

कउन रोग ई आइल काका, सब कुछ छूटि गइल!

ना कहि चोरी ना सीनाजोरी ना केहु आज बा दादा;

एक छींक में डरे ई दुनिया, राजा रंक से ज्यादा!

एक बुराई सौ अइबन के, आइल लूटि गइल;

कउन रोग ई आइल काका, सब कुछ छूटि गइल!

============का मितवा! अब्बो ना मनबे============


कलिहें खइले रोल पुलिस के, आजु सुबहियें चाटा;

का मितवा! अब्बो ना मनबे, करबे सैर सपाटा!

रोज भिनहिये से संझा तक, कहाँ ते जाले घर से;

जन-जन जहाँ लुकाइल बाटे, काल कहर के डर से!

ई मनमानी फेरि दी पानी, कइसे भरबे घाटा;

का मितवा! अब्बो ना मनबे, करबे सैर सपाटा!

कब्बो बान्हि सिलिंडर पीछे, कब्बो दवा के पुर्जी;

झूठे ते भरमावत बाड़े, हाथ मे लेके सब्जी!

जान बचइबे तब्बे खइबे, लउकी, कटहर, भांटा;

का मितवा! अब्बो ना मनबे, करबे सैर सपाटा!

ग्यानी दुनिया ग्यान के मद में, कइलस काल के खोज;

भूलि गइल जग नियम धरम, आ कइसन होला भोज!

खाये लगलें सांप, छछुंनर, गादुल, चुइटी, मांटा;

का मितवा! अब्बो ना मनबे, करबे सैर सपाटा!

घास के रोटी राणा खइलें, खाले नून आ चावल,

लेकिन भयवा निम्मन नइखे, कुकुरे नियर धावल;

देख जगत में मउत कइसन, पसरल बा सन्नाटा;

का मितवा! अब्बो ना मनबे, करबे सैर सपाटा!

=========== बेटी का बाप==========

बेटी का पिता होना ही, उस आदमी को राजा "बना देता है!"

शादी खोजने निकलिए, तो समाज उसका बाजा "बजा देता है!"

रिवाजों में बंधी इस परम्परा, का निर्वहन क्या "पाप है?"

जिस नृप को ग्राहक समझते हो, एक राजकुमारी "का बाप है!"

अन्य राजाओं की भांति, यह दाता युद्ध नहीं "करता है!"

धन दौलत और लक्ष्मी से, तेरी झोपडी ही "भरता है!"

उसके बाद भी दशरथ बने लोग, लालच में ही "मरते हैं!"

जनक के मुकुट सम्मान पर, ही हजारों सवाल "करते हैं!"

लगता है उनका बेटा खून पसीने और मेहनत की "कमाई है!"

और मेरी बेटी किसी झील नहर या तालाब से "आई है!"

ऐसे में आज के सिया का जन्म, इक पाप बन "जाता है!"

उम्रभर तड़पता है इक सम्राट, जब बेटी का बाप "बन जाता है!"

भ्रूण--हत्या नहीं रुकी तो ये दहेज के लोभी "कहाँ जायेंगे"

धनुष नहीं शिव उठा कर भी, ये राम कोई सीता "नहीं पाएंगे"

==== दोहरा चरित्र एक व्यंग ====

कथनी और करनी का अंतर, कहीं-कहीं अच्छा है मित्र;

चोरी करना "पाप बड़ा", यह कोई चोर दिखाये चित्र!

छुपकर शराब पीनेवाला यदि, करे बुराई हाला की!

फिर कहाँ? बुरा होगा इस जग में, मानव का दोहरा चरित्र!

एकल चरित्र "जन-का" होता, तंत्र काम न आता है;

लिए कमंडल फ़टी लंगोटी, मंत्र शाम तक गाता है!

ऐसे विचार वाले "मुश्किल की", दो रोटी बस पाते हैं!

दोहरा चरित्र अपनाकर "प्रहरी, प्रजातन्त्र खा जाता है!

जो कहा किया था शेखर ने, हमसब जिस पर नाज किये;

गांधी, मंगल और "भगतसिंह", भले देश आजाद किये!

लेकिन इन"राष्ट्र सपूतों" ने, शिवा मौत के क्या पाया?

दोहरे चरित्र वाले देखो, सत्तर सालों तक राज किये!

कथनी करनी में फर्क करो, वरना वीजन खो सकते हो!

बड़े - बड़े "होटल",महलों को, देख – देख रो सकते हो!

एकल चरित्र से फुटपातों पर, नींद नहीं तुझे आयेगी;

दोहरे चरित्र से संसद के, अधिवेशन में सो सकते हो!

=== वेलेंटाइन नहीं मधुमास ===

मै 'रोज' नहीं दे सकता प्रिय, निशिदिन खिलता मुरझाता है;

"प्रपोज" भी क्या तुझको करना, जहाँ प्यार स्वयं लुट जाता है!

"चॉकलेट डे" एक दिवस, गोरे कंजूस मनाते हैं!

हमतो दिल से हैं अमीर,बच्चों को रोज खिलाते हैं!

'टेडी बीयर' इक पुतला है पिय, जिसमें जान नहीं होता;

और चन्द पलों के 'हगडे' से कोई प्यार जवान नहीं होता!

हरसाल नए को किस करना, हरबार न प्रॉमिस आता है!

भारत का,बस इक चुम्बन,सातो जन्मों का नाता है!

जो "राधा-कृष्ण" उपासक है, वो अमर- प्रेम को गाते हैं;

हम "वेलेंटाइन" नहीं "प्रिये", हर-दिन मधुमास मनाते हैं!

######अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस######


जग में नर है, दुनिया से क्यों उसको डर है;

नारी है तभी, जग में नर है!

अंश कोख में आई जैसे, सूक्ष्म रूप वह पाई जैसे

जाने क्यों,भयभीत हो गयी, माँ ने लिया दवाई जैसे!

भ्रूण हत्या से अंश डर गई, क्या बेटी होना इक जर है!

(जर=रोग)

दुनिया से क्यों उसको डर है; नारी है तभी, जग में नर है!

जन्म हुआ बेटी बन आयी, सारे घर ने लिया जम्हाई!

चेहरे ऐसे लटक गये, जैसे गादुल को नींद हो आई

(गादुल=चमगादड़)

नहीं खुशी क्यों मानव मन में, आंखों में बस आंसू भर है

दुनिया से क्यों उसको डर है; नारी है तभी, जग में नर है!

बेटी का अधिकार अलग क्यो, नारी के प्रति प्यार अलग क्यो?

आयी है जो सृष्टि चलाने, उसपर कुदृष्टि, संसार अलग क्यो?

जिसने योद्धा वीर दिया हो, कांप रही वह क्यो थर-थर है?

दुनिया से क्यों उसको डर है; नारी है तभी, जग में नर है!

जग में नारी को आने दो, हक है उसका उसे पाने दो!

सीता का सम्मान करो, उसे शिव का धनुष उठाने दो!

उससे है संसार की शोभा, उससे ही सुंदर घर है!

दुनिया से क्यों उसको डर है; नारी है तभी, जग में नर है!


++++++ना करो मजाक कोरोना से++++++

खबर मृत्यु के दहशत की है, विश्व के हरइक कोना से!

फेसबुकिये ना खेल करें, ना करें, मजाक कोरोना से!

अबतक पकड़ नहीं बन पाई, इस यायावर दानव पर;

मौत कहर बन टूट पड़ा है, विश्व, धरा व मानव पर!

बहुत भयावह स्थिति आयी, ऐसा हुआ न हाल कभी;

मंदिर, मस्जिद, ट्रेन, हवाई, बन्द हाट व मॉल सभी!

छोटा हो या बड़ा देश, इसने सबको ललकार दिया;

सागर, धरती से अम्बर तक, लम्बा पांव पसार दिया!

बचा हुआ भू-भाग डरा है, उसकी कल क्या बारी है;?

अर्थ जगत हिल गया विश्व का, ऐसी यह महामारी है!

केवल बचाव इक है उपाय, बस हिम्मत से ही हारेगा;

साफ, सफाई, धर्म, कर्म का, प्रहरी इसको मारेगा!

सरकारों ने कमर कसा,स्वास्थ विभाग है साथ खड़ा;

भागेगा निश्चित महारोग,यह भले आज है पास अड़ा!

मानव धर्म बड़ा है जग में, इसकी कठिन परीक्षा दें;

FB और व्हाट्सप पर प्रिय, ना उल्टी सीधी शिक्षा दे!

एक बीमारी, सौ - सौ नुस्खे, करो पोस्ट ना ग्रुप से;

नहीं रोग यह अच्छा होगा, दारू, कीचड़ सूप से!

नीम हकीम इलाज नहीं है, जादू, मंतर, टोना से;

फेसबुकिये ना खेल करें, ना करें, मजाक कोरोना से!

############जनता कर्फ्यू का महत्व###########

हम स्वयं,समाज, राष्ट्रहित में, मानें पीएम उपदेश को;

मरे कोरोना,नाश हो इसका,स्वच्छ करें परिवेश को!

राष्ट्र नियम के पालन में, घर से ना निकलें 22 को;

पूरा दिन जनता कर्फ्यू का, करें समर्पित देश को!

पीएम का जनता कर्फ्यू, कोई ऐसे नहीं अकारण है;

जाने, समझे, विश्वास करें, इसका वैज्ञानिक कारण है!

12 -घण्टे में मर जाता है, अपनी जगह पर कोरोना

14- घण्टे हम रहें घरों में, सबसे बड़ा निवारण है!

******जनता कर्फ्यू और मेरा दिन******


अक्सर! व्यग्र रहा जीवन, कुछ लम्हों को मैं ख़ास लिखा!

किस-2 पल ने खुशियां दी, औ किसने किया उदास लिखा?

घर, रहकर जनता कर्फ्यू में, किया समीक्षा रिश्तों की;

फिर हर्षित मन,चिंतित विवेक ने, जीवन का इतिहास लिखा!

भोर कर्म से निवृत्ति "प्रथम", मैं जननी से मुलाकात किया!

माँ से कम,जो जन्म दिया, उस कोख से लम्बी बात किया!

जैसे मैने पूछा उससे, तेरे दूध ने क्या-क्या गलती की?

दो हाथ मेरे सिर पर आये, और आंखों ने बरसात किया!

बच्चो से फिर मिला जिन्हें, मैं समय नहीं दे पाया था;

बहुत देर तक सुना उन्हें, जो अबतक ना सुन पाया था!

बेटी-बाप के, लगे ठहाके, माँ-बेटे की बातों पर;

पिता धर्म का शायद पालन, पहली बार निभाया था!

फिर माँ पत्नी बच्चे मिलकर, आये सब पूजा घर मे;

किया वंदना, भगे करोना, फँसे न कोई जर में!

हे महादेव, "हे महाकाल शिव", जग की रक्षा करो प्रभु;

वरना स्थित बिगड़ रही है, रोग, शोक व डर में!

'सेनिटाइज हुआ" फर्श फिर, उसपर दरी बिछाया;

दो-तीन तरह के चोखे-चावल, दाल व पापड़ आया!

बैठ धरा पर, एक साथ सब, लिये लुफ्त भोजन का;

माँ ने बहुत खिलाया था, मैं, माँ को, आज खिलाया!

आया अपने कमरे में, कुछ मनन, पाठ औ याद किया;

कुछ अति विशिष्ट को किया नमन, जिसने आशीष व साथ दिया!

5 बजे फिर शंख थाल के, ध्वनि से गूंजा गृह पूरा,

ईश्वर से फिर हाथ जोड़, जनजीवन का फरियाद किया!

अद्भुत रहा "मार्च बाइस", जो इतने अनुभव पाला था;

दिनभर तुलसी, दिनभर काढ़ा हर हाथों में प्याला था,

पहली छुट्टी पहला दिन, अपना घर अपनो का प्यार;

नही दिखा था जीवन मे, शायद मुझको, ऐसा इतवार!

*****************सारी दुनिया कह गयी कोरोना**************

सारी दुनिया नेक हो गयी, देख काल के, रूप को....

टूट गयी सीमा सरहद की, छूट गये सारे बंधन;

छोटा हो या बड़ा देश जब, दिखा उसे वैश्विक क्रंदन!

कोई देश न महाशक्ति, न कोई निर्बल,अर्थ हीन

सब के सब, 'स्तब्ध-चकित'औ, अंदर से हैं, दीन-हीन!

कहाँ गयी आतंकी सेना, हाफिज और मोर्टार सभी!

कुदरत की बस एक मिसाइल, झेल रहे हैं, मार सभी!

ढूढ़ रहे हैं चाल कोई, जो मारे, प्रलय तुरुप को;

सारी दुनिया नेक हो गयी, देख काल के, रूप को....

ना कोइ ब्राह्मण,ना कोइ शुद्र, ना कोइ छुपा, आदेश है;

छुआछूत का डर सब में, यह विधि का, अध्यादेश है!

कलतक थी अपनों की चिंता उनका ऐसा हाल है!

पूरा का, अब पूरा ही दिन, गैर हितों का, ख्याल है!

धर्म, सभ्यता, लोक-लाज, जो लाख सिखाये नहीं सिखा;

होटल, पार्क, बार, क्लबों में, आज वो जोड़ा, नहीं दिखा!

जितना रंक डरा है उतना, डरा दिया है, भूप को!

सारी दुनिया नेक हो गयी, देख काल के, रूप को....

सारे दल हैं एक हो गए, जो जीता, जो हारा है;

मरे करोना, नाश हो इसका, एक ही सबका नारा है!

हर प्रदेश, सारी सरकारें, सभी विभाग मुस्तैद हुए;

संदिग्ध विधायक, सांसद, मंत्री स्वयं घरों में, कैद हुए!

आज लोक को,तंत्र की चाहत, तंत्र को चाहत, लोक की;

निष्पक्ष मीडिया, काम कर रही, सही सूचना, रोग की!

दिखा एकता सभी बजाये, थाली, पल्टा, सूप को;

सारी दुनिया नेक हो गयी, देख काल के, रूप को....

++++++पक्षी हुए आजाद++++++

बहुत "कहर" मानव ने ढाया, नहीं सुनी फरियाद;

लिया फ़ैसला वक्त ने शायद,बहुत दिनों के बाद!

उड़ता एक, कबूतर बोला, डाल पर बैठे तोते से;

कैद हुआ "इंसान" आज, हम पंछी हुए आजाद!

=======कोरोना घर मे पिया आराम करीं=======

(मेरीएकहास्य_रचना )


लाख बोलावे केहू, न जाईं, कहीं सुबह ना, शाम करीं!

आइल बा, ई कूफुति, कोरोना, घर में पिया, आराम करीं!

ऊठीं ना अब, भोर भइल, बोलीं हम चाय बनाई!

जबले मुह हम धोवत बानी, चूल्हा, आप जराईं!

दासा पर पत्ती बा अउरी, सिकहर पर बा दूध!

चीनी डारिके, अंवटी बालम, पिअल जांय "द्विइ घूट"!

अब्बे छोटकी, जाग-जाई ते, नाहक जिया हराम करीं!

आइल बा, इ कूफुति, कोरोना, घर में पिया,आराम करीं!

जाने काहें मन बनल बा, रहीं रउआँ साथे!

चलीं न दू गो कपड़ा बाटे, फिंचि लीं हाथे-हाथे!

आईं तब निश्चिंत हो बइठीं, खाना हम पकाइब!

मन करी ते, सबजी काटिके, चउका में, ले आइब!

समय बा सगरी, सीखि लीं मुरहा, जाने कहिया, काम करी!

आइल बा, इ कूफुति, कोरोना, घर में पिया, आराम करीं!

दुअरा ग्वाला टेर लगावें, "दे-दीं" हमके, बल्टी!

गाड़ी आइल, कूड़ा उठाईं, कइले आईं पल्टी!

देखब बड़का, "रोअत बा, तनि जाईं ना, सहला दीं!

मन करे ते, कलिहें नियर, लइकन के, नहला दीं!

सारा सेवा लाल, भरी मोर, पढिके जहिया नाम करी!

आइल बा, इ कूफुति, कोरोना, घर में पिया, आराम करीं!

लाईं दियना, हम 'जरा-दी', भइल सांझ के, बारी;

सारा दिन करते रहि गइलीं, मूड़ भइल-बा, भारी!

काटीं सब्जी, "हम खाना बनाईं", दे-दीं, हमके लवना,

पानी लेके, आइब हम, तनि जाईं करीं बिछौना!

अरे बड़ी जोर से, डांर पिराला, पकड़ीं बन्हिया, बाम धरीं,

आइल बा, इ कूफुति, कोरोना, घर में पिया,आराम करीं!

..............सबसे प्यारा गांव हमारा................


'बड़ा जुल्म,कर दिया था मैंने, छोड़ दिया था माटी को;

दिवा -स्वप्न में चला कमाने, कागज वाली थाती को!

सम्पूर्ण कमाई, जीवन भर, परिवार लिए दर-दर भटका;

बस एक तमन्ना, माँ देखे, इस बेटे-बहू व नाती को!

बप्पा, गोतिया, गांव, नगर ने गिन-2 कर मुझे टोका था;

जिंदा थी, "तब दादी भी", उसने भी उसदिन रोका था!

बहुत दिनों तक माँ रोई थी, मेरी इस नादानी पर!

गांव छुड़ाके शहर में शायद, काल ने मुझको झोंका था!

जहाँ सजाई "दुनिया अब",नहीं ठाँव दिखाई देता है!

बृक्ष लगाया "जहाँ-वहाँ", नहि छांव दिखाई देता है!

पत्थर के इन महलों में अब, दिखती नहीं है मानवता;

सच पूछो तो, अब मुझको, मेरा गांव दिखाई देता है!

जिस "धरती पर" प्रेम बरसता, होते कड़वे बोल नहीं!

सुख दुख में सहयोग भावका,करता मानव तोल नहीं;

धरा-धन्य है, निज माटी का, कीमत लाखों जान गये;

सबने कहा,"गांव का अपने",दुनिया में कोई मोल नहीं!

>>>>>>>>हक़ीकत का आइना<<<<<<<<


ऐ बड़े शहर,तेरे शीश महल की, किस- किस प्रभुता को गाऊँ;

या बन्द दिलों, और दरवाजों पर, भूखे नंगे सो जाऊँ!

जीवन भर के खून-पसीने, ने तुझको यह शोहरत दी;

मैं इतना नहीं कमा पाया,कि इक्कीस दिन तक खा पाऊं

छोड़के अपनी स्वर्ण धरा यहाँ पत्थर तक काटा हमने;

"अंश, "कोख", "सिंदूर" के रिश्तों, से तोड़ा नाता हमने!

मेरे मेहनत के बलपर तूँ ,हलवा खाया दूध पिया!

भीषण भूख में अल्प निवाला, अंगुली तक चाटा हमने!

रचनाकार-आलोक शर्मा, महराजगंज



राम केवी

राम केवी

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