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वो दर्द ही क्या, जो बर्दाश्त हो जाए
दूसरों की प्रशंसा करने या सुनने के समय अपने चेहरे पर इतना गंभीर आवरण ओढ़ लेते हैं कि उनसे हम किसी भी प्रकार की सराहना प्राप्त करने की तो सोच भी नहीं सकते हैं।
इसी सप्ताह एक कार्यक्रम में, कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि ने अपने वक्तव्य में कहा कि आजकल हम दूसरों को सराहते नहीं हैं। कारण कि दूसरों को सरहाने से हम अपने से अधिक बड़ा दूसरे को बना लेते हैं। जबकि हमेशा दूसरों को अवश्य ही सराहना चाहिए। उनकी कही यह बात बिल्कुल सही थी। आजकल दूसरों की सराहना करते हुए हमारा अपना अहं आड़े आ जाता है। विशेषकर उन लोगों की सराहना करना जो हमारे साथ, हमारे ही समान क्षेत्र में हैं, क्योंकि समान क्षेत्र में होने के कारण वे हमारे लिए एक प्रतिद्वंद्वी जैसे होते हैं। लोग इस फोबिया से ग्रस्त होते हैं कि कहीं दूसरों को सरहाने से यह संदेश न जाए कि हम स्वयं को उसे व्यक्ति से लघुत्तर दिखा रहे हैं, मान रहे हैं।
युवा पीढ़ी की तो बात ही छोड़ देते हैं। वह या तो साथ चलना जानती है या साथ ना चले तो प्रतिद्वंदी बनने में विश्वास रखती है। वह बल्कि अधिक सहयोगी होती है क्योंकि वह दूसरों के कामकाज की सराहना भी करती है। उसके विपरीत यह मेरा अपना भी अनुभव है कि कई लोग ऐसे होते हैं जो दूसरों की प्रशंसा करने या सुनने के समय अपने चेहरे पर इतना गंभीर आवरण ओढ़ लेते हैं कि उनसे हम किसी भी प्रकार की सराहना प्राप्त करने की तो सोच भी नहीं सकते हैं।
पता नहीं इस रंग बदलती दुनिया में हम इतने संकीर्ण मन क्यों और कैसे होते जा रहे हैं? ऐसा हम क्यों सोचते हैं कि हम अपनी कला के बड़े पारखी हैं, बड़े ही जानकार हैं जबकि हम उस कला की चरम स्थिति पर नहीं होते हैं, कभी भी नहीं। कोई भी कला अपने चरम पर तब पहुंचती है जब आपको अपनी विद्या को परखने के लिए, उससे संबंधित औजार की आवश्यकता ही न पड़े। इसका अर्थ यह है कि आपको उस कला को सीखने में एकाग्र होने की जरूरत है।
खुद को सर्वश्रेष्ठ करने का दिखावा करना खुद उस कला का अपमान करने जैसा होता है। इसलिए वह कला अपने चरम पर तब ही पहुंचेगी जब हम स्वयं उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश करेंगे। हम किसी भी कला में चरम पर पहुंच जाने का दम भरते हैं जबकि यह एक कठिन साधना और तपस्या की बात है। वैसे भी कहा जाता है कि ज्यादा रोशनी हमेशा गहरा अंधेरा ही लाती है, इसलिए जब कोई व्यक्ति अपने आपको उस कला के चरम पर मानता है तो इसका अर्थ यह है कि वह आगे अब खुद के लिए ही अवनति का मार्ग तलाश रहा है।
दरअसल, हम दूसरों की सरहाना करने से पहले उसके साथ अपनी तुलना करने लग जाते हैं और यह तुलना किसी भी व्यक्ति को स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने के लिए मजबूर कर देती है। यह तुलना एक मानवीय प्रवृत्ति है । क्योंकि यह हमारे कुल विचारों का 10 प्रतिशत भाग रखती है। हर जगह, हर क्षेत्र में एक अदृश्य प्रतिस्पर्धा का भाव है , लोग इस अंधी रेस में तेजी से भाग रहे होते हैं जबकि होना यह चाहिए कि 'पीपॅल कम फर्स्ट '। और तो और रिश्ते- नातों में तो यह प्रतिस्पर्धा और भी अधिक होती है। जैसा कि हमारी लोक कथाओं में भी आता है कि देवरानी जेठानी से ईर्ष्या करती थी और उस ईर्ष्या की मारी वह मार भी खा लेती है। लेकिन उसकी सरहाना नहीं करती। आज देखिएगा कि हम में से अधिकांश लोग सोशल मीडिया पर अपनी उपलब्धियों की फोटो, कहीं घूमने जाने की फोटो या किसी समारोह आदि की फोटो शेयर करते हैं, उसमें जितने लोग वहां लाइक करते हैं या अपने कमेंट्स देते हैं, उससे कुछ थोड़े ही कम लोग उन्हें देखकर ईर्ष्या भी रखते हैं। इसी कारण कितने ही लोग आजकल सोशल मीडिया पर इस तरह की फोटोज डालने से मना कर देते हैं कि लोग सरहाना की जगह ईर्ष्या के चक्रव्यूह में फंस जाएंगे।
यह जानना जरूरी है कि किसी भी अन्य व्यक्ति के गुण उसके स्वयं के अपने हैं और हमारे गुण हमारे अपने स्वयं के होते हैं। इसलिए तुलना हमेशा खुद से करनी चाहिए। सराहना स्वयं की भी कीजिए और दूसरों की भी कीजिए क्योंकि यह सराहना दूसरे का आत्मसम्मान बढ़ाती है, उनमें एक आत्मविश्वास लाती है, आशा के नए दीप जलाती है। जबकि हम किसी से यह पाने की उम्मीद करें और हमें यह तब न मिले तो जीवन उदास हो जाता है और यह उदासी वह दर्द दे जाती है जो कि बर्दाश्त हो भी सकता है और नहीं भी। क्योंकि वह दर्द ही क्या जो बर्दाश्त किया जा सके। दर्द तो उस कंटीली मीठी चुभन के समान होता है, जो हम बर्दाश्त न कर पाएं। वह दर्द लगी हुई चोट, पुराने जख्म, शरीर के जले हुए किसी अंग के साथ ही दूसरों का, अपनों का दिया हुआ दर्द भी हो सकता है जो कभी न कभी स्मृति के रूप में सामने आ ही जाता है। वह दे जाता है वह दर्द जो की उन स्मृतियों के दरवाजों को खोलने से मिलता है। इसलिए दर्द को अतिथि बनाना सीखना चाहिए। दूसरों को सराहना चाहिए , जिससे स्वयं का भी मन शांत हो और हम दूसरे के साथ-साथ खुद के आत्मविश्वास को भी बढ़ा सके। अंत में चेखव की इस पंक्ति के साथ लेख का समापन करती हूं - 'कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं। ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हँसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।'