×

विपक्षी एकता वाली 'लालटेन' की लौ में 'हाथी' ने यूं ही नहीं मारी फूंक

aman
By aman
Published on: 31 Aug 2017 2:01 PM GMT
विपक्षी एकता वाली लालटेन की लौ में हाथी ने यूं ही नहीं मारी फूंक
X
विपक्षी एकता वाली 'लालटेन' की लौ में 'हाथी' ने यूं ही नहीं मारी फूंक

अनुराग शुक्ला

लखनऊ: 'सीट तो सिर्फ बहाना था, उनको तो नहीं जाना था।' जयप्रकाश नारायण की 15 जून 1975 की संपूर्ण क्रांति सरीखा बिगुल फूंकने का सपना पाले लालू प्रसाद यादव को मायावती ने झटका दिया। उसके लिए यह लाइनें सबसे मुफीद हैं। पटना के उसी गांधी मैदान में ‘भाजपा भगाओ-देश बचाओ’ सत्ता विरोधी रैली में लालू प्रसाद यादव को सबसे बड़ा झटका दिया यूपी की दलित नेता मायावती ने।

दरअसल, मायावती ने लालू प्रसाद यादव की रैली में शामिल न होकर अपना पुराना हिसाब भी बराबर कर लिया है। बिहार विधानसभा चुनाव से ऐन पहले बिहार में बने महागठबंधन में बसपा शामिल होने की इच्छुक थीं, पर लालू प्रसाद यादव ने बसपा को सिर्फ एक सीट देने की पेशकश की थी। इस बात से मायावती बेहद खफा हो गई थीं। इसी वजह से रैली के दौरान बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल, जम्मू कश्मीर के बड़े नेता एक मंच पर साथ दिखे पर सबसे अखरने वाली बात थी कि इस मंच पर एक बार फिर विपक्षी एकता को मायावती ने मुकम्मल नहीं होने दिया।

ये भी पढ़ें ...लालू की रैली पर टिकी है देश की नजरें, क्या बदलेगी भविष्य की राजनीति?

बसपा का इतिहास बताता है वर्तमान स्थिति

राजनीति न समझने वाले भी इससे साफ जान सकते हैं, कि सीटों के बंटवारे की शर्त रैली से ऐन 72 घंटे लगाने वाली मायावती की मंशा क्या थी। वह रैली में न जाने की चाल थी जो उन्हें विपक्षी एकता तोड़ने के दाग से भी बचाने का माद्दा रखती थी। बसपा का इतिहास देखें तो साफ समझ आता है कि मायावती किसी दूसरे नेता का नेतृत्व बहुत दिन स्वीकार नहीं करती हैं। वर्ष 1995 में बसपा और सपा के गठबंधन में टूट और तीन बार भाजपा से अलगाव इसके प्रमाण हैं। जाहिर है कि सीटों का बंटवारा हो भी जाए तो नेतृत्व पर बात अटक जाएगी।

आंकड़े भी नहीं दिखा रहे मुनाफे का गणित

इसके अलावा मायावती का जब भी किसी दल से समझौता हुआ है तो उसका खास फायदा नहीं हुआ है। जब सपा और बसपा ने 1993 में मिलकर चुनाव लड़ा था तो सपा ने 256 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और उसके 109 उम्मीदवार जीते थे। सपा को 17.80 फीसदी वोट मिले थे जबकि बसपा को 11.12 फीसदी वोट। इसके ठीक बाद जब बसपा ने 1996 में कांग्रेस से समझौता कर चुनाव लड़ा तो सपा के वोट प्रतिशत बढ़कर 21.80 फीसदी हो गये। इसी तरह तरह 1993 में जब कांग्रेस बसपा के साथ नहीं थी तो उसे 15.08 फीसदी वोट मिले थे पर 1996 में जब बसपा से मिलकर उसने 126 सीटों पर उम्मीदवार उतारे तो उसके वोट का प्रतिशत घटकर 8.35 फीसदी हो गया। यह बात और है कि उत्तर प्रदेश की सियासत में मायावती को दलित वोटों के ट्रांसफर का चमत्कार कहा जाता है।

ये भी पढ़ें ...तो ये है मायावती के लालू की रैली में शामिल नहीं होने की वजह

बसपा जूनियर पार्टनर की स्थिति में

उत्तर प्रदेश के राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि मायावती किसी का नेतृत्व स्वीकार करें, यह बहुत कम देखा गया है। फिलहाल उत्तर प्रदेश में बसपा जूनियर पार्टनर की स्थिति में है। राजनैतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी के मुताबिक, ‘मायावती तय नहीं कर पा रही हैं कि सपा के साथ जाना भी चाहिए या नहीं। इसके अलावा शीट शेयर में भी इस समय डिमांडिंग स्थिति में वह नहीं है। विधानसभा या लोकसभा सभी जगह बसपा सपा से बेहद कमजोर दिख रही है। ऐसे में सपा को बिग ब्रदर की भूमिका और नेतृत्व अखिलेश के हाथ में ही होना राजनैतिक समीकरणों के हिसाब से रवायती माना जा सकता है।’

ये भी पढ़ें ...लालू की रैली में शरद यादव नहीं करेंगे शिरकत, मायावती भी नहीं लेंगी हिस्सा

बीजेपी की नाराजगी असमय मोल लेना नहीं चाहती

इसके अलावा मायावती बेवजह बीजेपी और केंद्र सरकार की नाराजगी असमय मोल नहीं लेना चाहती। लोकसभा चुनाव में अभी 20 महीने से ज्यादा का समय है। विधानसभा चुनाव 5 साल बाद होने हैं। ऐसे में वह केंद्र सरकार के टारगेट पर क्यों आना चाहेंगी। दरअसल, विपक्षी एकता का अगुवा बनने या फिर गठबंधन की राजनीति में उनके आर्थिक साम्राज्य के एकाधिकार को न सिर्फ चुनौती मिलेगी बल्कि उसका डांवाडोल होना स्वाभाविक है। मायावती ने जिन-जिन को विधायक बनाया उनमें से ज्यादातर अराजनैतिक लोग थे। जिनके अपने और दूसरे काम धंधे थे। यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने सबसे ज्यादा ‘नान-पालिटिकल’ लोगों को विधायक बनाया। ऐसे अराजनैतिक मानदंडो पर चलने वाली सियासत में यह उम्मीद कम ही बचती है कि वह सिर्फ राजनैतिक कारण से कोई बड़ा फैसला लेगी। वो भी ऐसा फैसला जो उनके भाई के खिलाफ चल रहे, प्रवर्तन निदेशालय और इनकम टैक्स के मामलों को प्रभावित कर सकता है।

ये भी पढ़ें ...रैली से पहले बोले लालू- पलटूराम की वजह से हम सरकार से बाहर

लालू ने खेला था 'दलित की बेटी' कार्ड

लालू ने नीतीश को दलित विरोधी बताया। कहा, नीतीश ने राष्ट्रपति चुनाव में धोखा दिया। धोखा नहीं देते तो बिहार की बेटी मीरा कुमार राष्ट्रपति होतीं। दरअसल, लालू को यह बात मायावती की कमी पूरी करने के लिए कहनी पड़ी थी। ये बात तो लालू भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। उत्तर प्रदेश में मायावती के बिना बना महागठबंधन कहीं ना कहीं बिना दांत के शेर जैसा ही दिखाई देगा। उत्तर प्रदेश में दलित वोटों के ट्रांसफर का चमत्कार कहे जाने वाली मायावती का तोड़ अभी मोदी मैजिक भी पूरी तरह नहीं ढूंढ़ पाया है। उन्होंने मायावती के दलित वोटों के किले में सिर्फ सेंध लगाई है। यह बात औऱ है कि उनकी कोशिशें परवान चढ़ती दिख रही हैं पर दलित राजनीति के लिहाज से मायावती को फिलहाल सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है।

ये भी पढ़ें ...लालू की BJP विरोधी रैली में नहीं शामिल होंगी सोनिया, राहुल, मायावती

विपक्ष को चाहिए 'फैवीकोल टाइप' नेता

मोदी सरकार के दौरान विपक्ष को जोड़ने के प्रयास एक बार नहीं कई बार हुए। एकता के लिए एक ऐसे नेता की जरूरत होती है जिसमें लोगों का भरोसा हो। विपक्ष बार-बार इकट्ठा हो रहा है पर जुड़ नहीं पा रहा है। विपक्ष के पास 'फैवीकोल टाइप' का मजबूत नेता नहीं है। कांग्रेस राहुल गांधी को विकल्प के रूप में पेश कर रही है लेकिन विपक्षी पार्टियों को उनके नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता और पार्टी के अंदर से लेकर बाहर तक की स्वीकार्यता दोनों पर शक है। ऐसे में वे चेहरा बन सकेंगे इस पर उम्मीद कम ही है। मायावती के न जाने पर यह भी एक सियासी कारण है।

माया को मोदी से बड़ा खतरा

मायावती को यह पता है कि इस समय उन्हें सबसे बड़ा खतरा मोदी की राजनीति से है। मायावती के अभेद्य दलित वोटबैंक के किले में सबसे बड़ी सेंध मोदी ने ही लगाई है। चाहे वह लोकसभा चुनाव रहा हो या फिर यूपी का विधानसभा चुनाव। फिर भी मायावती की राजनैतिक शैली में या तो नेतृत्व संभालना एक विकल्प है या फिर सत्ता की चाभी अपने पास रखना। वर्तमान में यह दोनों विकल्प उनके हाथ लगते नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में मायावती इस पूरी कवायद में बेवजह नहीं पड़ना चाहतीं। यह भी उनकी राजनैतिक शैली ही है।

aman

aman

Content Writer

अमन कुमार - बिहार से हूं। दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई और आकशवाणी से शुरू हुआ सफर जारी है। राजनीति, अर्थव्यवस्था और कोर्ट की ख़बरों में बेहद रुचि। दिल्ली के रास्ते लखनऊ में कदम आज भी बढ़ रहे। बिहार, यूपी, दिल्ली, हरियाणा सहित कई राज्यों के लिए डेस्क का अनुभव। प्रिंट, रेडियो, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया चारों प्लेटफॉर्म पर काम। फिल्म और फीचर लेखन के साथ फोटोग्राफी का शौक।

Next Story