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बाहुबली मात्र फिल्म नहीं, अश्लीलता-फूहड़ता के पश्चिमी शोर में गूंजता हुआ भारतीय शंखनाद

suman
Published on: 12 May 2017 1:17 PM IST
बाहुबली मात्र फिल्म नहीं, अश्लीलता-फूहड़ता के पश्चिमी शोर में गूंजता हुआ भारतीय शंखनाद
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अतुल कुमार राय

करन जौहर ने राजमौली के साथ सेल्फी शेयर करते हुए उनको वर्तमान का महान निर्देशक मान लिया हैं। रामगोपाल वर्मा ने तो हाथ ही खड़े कर दिए हैं, आमिर, सलमान, शाहरुख के होश फाख्ता हैं कि ये सब क्या हो रहा भाई? न ईद, न दिवाली, न होली व न क्रिसमस आईपीएल के बुखार में डूबता-उतराता भारत आज बाहुबली देखने के लिए क्यों मरा जा रहा?

यहां तो अपनी एक फिल्म हिट कराने के लिए क्या-क्या नहीं प्रोपगेंडा करना पड़ता है। प्रमोशन से लेकर पीआर पर करोड़ों रुपया खर्च करना पड़ता है। लेकिन जनता आज तक इस कदर कभी पागल न हुई, थियेटर का माहौल कभी ऐसा नहीं हुआ। आज थिएयर का माहौल ऐसा लग रहा मानों हाउसफुल इडेन गार्डन में सचिन पाकिस्तान के खिलाफ क्रीज पर डटें हों, चिल्लाती भीड़ के बीच आखिरी ओवर में बारह रन बनाना हो, या फिर दुबई क्रिकेट स्टेडियम में नरेंद्र मोदी आज अप्रवासी भारतीयों को सम्बोधित करने वाले हों।

यह माहौल देखकर बड़े-बड़े ट्रेड पंडित ही नहीं सिनेमा के दिग्गज इस कदर हैरान हैं कि आज एक नामी फिल्म समीक्षक ने महेश भट्ट के हवाले से कहा है कि भारतीय फिल्मों का इतिहास जब लिखा जाएगा तो बाहुबली के पहले और बाहुबली के बाद जरूर लिखा जाएगा।

कुछ का हाल तो गजब बेहाल है, वो बाहुबली के वीएफएक्स को कमजोर और संगीत को बेकार बता रहे हैं। एक प्रख्यात फिल्म समीक्षक जो अभी कुछ दिन पहले अनारकली आफ आरा को सदी की सबसे महानतम फिल्म घोषित कर चुके हैं, उन्हें इस फिल्म में नरेशन ही नहीं मिल रहा है। एक वामपंथी साहित्यकार को इसलिए दिक्कत है कि इस फिल्म में एक भी मुसलमान क्यों नही है?

इधर कम्बख्त जनता है कि उसे न किसी ट्रेड पंडित की चिंता है न किसी समीक्षक की और न किसी साहित्यकार की दुनिया भाड़ में जाए उसे तो बस यही पता करना है कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? मित्रों फ्रायड ने एक जगह कहा कि साहित्य अभुक्त काम का परिणाम है, मुझे फ्रायड की ये बात साहित्य से ज्यादा सिनेमा पर सटीक लगती है। तभी तो गिनती की कालजयी और यथार्थ परक फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हमारा लोकप्रिय भारतीय सिनेमा बाजारवाद का शिकार होकर हमारे सामने आज तक क्या परोसता रहा है? वही पश्चिम का चकाचौंध, स्विटजरलैंड के आइस लैंड और लन्दन की सडक़ें। कपड़ा न पहनने की कसम खा चुकी अभिनेत्री। किसी बहाने हिरोइन को दबोचने वाला हीरो, फूहड़ कॉमेडी, बकवास डायलाग और सेक्स, इमोशन, ड्रामा का कॉकटेल। इसे ही देकर लोगों की दमित कामुकता को भुनाया जाता रहा है।

हर दशक में समय के साथ इनकी मात्रा और जरूरत बढ़ती गयी। आज उसी जरूरत का नतीजा है कि चाहे कहानी कुछ भी हो। हीरो-हीरोइन को बेड पर ले जाकर कुछ ऊंच-नीच न कर दे तब तक फिल्म कम्बख्त हीट नहीं मानीं जाती। चाहे वो किसी महान खिलाड़ी की बायोपिक फिल्म हो या बाजीराव पेशवा के वीरता की गाथा। इस सेक्सुली फ्रस्ट्रेट देश में हीरो की रोमांटिक इमेज एक निर्देशक को बनानी ही पड़ती है, क्योंकि निर्देशक को लगता है कि ये बाजार की मांग है।

शायद इस कारण से इन भारतीय फिल्मों ने जितना समाज को विकृत किया है, उतना शायद ही किसी ने किया हो। बॉलीवुड का एक बड़ा धड़ा एक अरसे से कथित वामपंथी प्रगतिशीलता का शिकार रहा है, और उससे बड़ा कारण ये भी रहा कि हमारा बॉलीवुड-हॉलीवुड के पीछे आंख बंद करके भागता रहा है।

ये सब सोच के हैरानी होती है कि दुनिया के सबसे सम्पन्न बौद्धिक और सांस्कृतिक देश में भारत के फिल्मकार अपनी जड़ों को भूलकर पश्चिम क्यों भागने लगे? उस देश रहकर, जहां हजारों साल पहले भरत ने नाट्य शास्त्र जैसा अद्भुत और वैज्ञानिक ग्रन्थ लिख दिया था। ऐसा ग्रन्थ कि आज भी ध्वनि के बड़े से बड़े वैज्ञानिक हैरान हैं कि आखिर संस्कृत के एक श्लोक में ध्वनि की इतनी सूक्ष्मतम से सुक्ष्मतम गणना कैसे की जा सकती है। उस ध्वनि की, जिसे नापने के लिए हम आज तक कोई यन्त्र नहीं बन पाए।

नाट्यशास्त्र पढऩे के बाद लगता है कि हजारों साल पहले इस देश में नाटक, गीत, संगीत को लेकर इतनी सूक्ष्म, वैज्ञानिक और मौलिक समझ विकसित थी कि हम तो आज कहीं नहीं हैं। फिर भी हम भगे जा रहे, कहां?

नाट्यशास्त्र छोडिय़े, संस्कृत का नाम आते ही हमारे सामने कालीदास प्रगट हो जाते हैं। लेकिन सिर्फ वही क्यों संस्कृत में भास जैसे सैकड़ों महान नाटककर हुए हैं कि उनके सामने पॉपुलर वैश्विक साहित्य और नाटक कहीं नहीं ठहरता। भास के सिर्फ एक नाटक स्वप्नवासवदत्त के आगे बड़े से बड़ा पॉपुलर रोमांटिक, थ्रीलर, सस्पेंस पानी भरने लगेगा। ऐसा मुझे लगता है, लेकिन ये बात उन भारतीय फिल्मकारों को आज तक समझ क्यों नहीं आई? जिनको नाट्यशास्त्र से पहले लंदन से फिल्म मेकिंग में डिप्लोमा करना ज्यादा जरूरी लगा।

आप नाट्यशास्त्र,और संस्कृत भी छोडि़ए, क्या ये शर्म कि बात नहीं है कि कदम-कदम पर फैली दादी-नानी के मुंह से चली आ रही रोमांचित करने वाली लोक कथाओं और हर राज्य, हर भाषा के लोक की फिजाओं में फैले तमाम शुर वीरों की गाथाओं के बावजूद हम कथा कहानी विदेश से चुराते आ रहे हैं?

हाल ये है कि हर भारतीय फिल्मकार यदि रोमियो जूलियट और अंधेरा पर फिल्म बनाकर खुद को महान फिल्मकार घोषित न कर ले तब तक उसे कालजयी फिल्मकार नहीं माना जाता। लेकिन अफसोस देखिए कि बॉलीवुड लाख जतन के बाद, लाख कॉपी-पेस्ट और लन्दन की पढ़ाई के बाद भी आज तक एक रिचर्ड सैमुएल एटनबरो पैदा नहीं कर पाया। एक माजिद-मजीदी की तरह फिल्म न बना पाया। आज के दिग्गज और जीते जी स्वयं को महानतम घोषित कर चुके निर्देशकों पर हॉलीवुड से कॉपी पेस्ट करने के न जाने कितने इल्जाम लगे हैं ये गिना नहीं का सकता।

भारतीय फिल्मकारों को बैठकर सोचना होगा कि आखिर गलती कहां हुई? हमें गर्व करना चाहिए कि पहली बार किसी एसएस राजमौली ने वो सब कर दिखाया है जिस पर आज तक किसी ने सोचा तक नहीं। हमें ये महसूस करना चाहिए कि इसकी बड़ी वजह राजमौली की प्रतिभा ही नहीं वरन एक दक्षिण भारतीय का अपनी परंपरा और अपनी भाषा के साथ अपने संस्कारों से गहरा जुड़ाव भी है। उनको सिर्फ फिल्म मेकिंग और वीएफएक्स की ही शानदार समझ नहीं है। उनके पास अपने देश का मूल इतिहास और वेद-उपनिषद से लेकर पौराणिक अख्यानों का गहरा अध्ययन और उसे पर्दे पर उतार देने की सनक है।

क्या आपको पता है कि आप बाहुबली में जिस महिष्मति साम्राज्य को देखते हैं वो महज एक कल्पना नहीं है? बल्कि माहिष्मती हमारी प्राचीन सभ्यता का नाम है। जो कभी नर्मदा नदी के किनारे बसी अवन्तिका राज्य की एक वैभवशाली नगरी थी। ये नगर आज भी इंदौर से सटा हुआ है, जिसे आज माहेश्वर के नाम से जाना जाता है। आज भी नर्मदा से बहते झरने और आस-पास का माहौल आपको बाहुबली के माहिमष्मती के विराट अस्तित्व पर गर्व करने को मजबूर कर देगा। जो देखें होंगे वो जानते होंगे। सिर्फ यही क्यों, बाहुबली बिगनिंग में आपने त्रिशूल युद्ध शैली देखी होगी न? जी वो कोई कल्पना नहीं है, वो भी उपनिषदों से उठाया गया है।

इसलिए मैं कहता हूं कि पहली बार किसी फिल्मकार ने समूची दुनिया को बताया है कि अपने सांस्कृतिक मूल्यों में लोकप्रिय होने कि कितनी ताकत है। फिल्म की शुरुआत समंदर में तैरती बिकनी वाली हीरोइन से नहीं, झरने में आदि योगी शिव की आराधना करने वाले हीरो से भी शुरू हो सकती है। हिट करने के लिए बादशाह और हनी सिंह का फूहड़ रैप की जरूरत नहीं। वैदिक मंत्रोंच्चारण पर भी लोग मन्त्र मुग्ध हो सकतें हैं।

निकलिए घर से बाहर, जाइये अपने घर-परिवार के साथ, क्योंकि आप फिल्म देखने नहीं जा रहे हैं, आप भारतीय सिनेमा का बदलता इतिहास देखने जा रहे हैं। आप भारतीय सिनेमा में पहली बार भारत को देखने जा रहे हैं। बाहुबली मात्र एक फिल्म नहीं, ये अश्लीलता और फूहड़ता के पश्चिमी शोर में अकेले गूंजता हुआ भारतीय शंखनाद है।

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