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असहिष्णुता, अभिव्यक्ति की आजादी, अधूरे नारे और राजनीति
Diwakar Upadhyay
लखनऊ: राष्ट्र से अभिप्राय एक ऐसे सामाजिक समूह से होता है जो साझे वंशक्रम, संस्कृति, भाषा, प्रादेशिक निकटता और वैचारिक रुप से जुड़ा हो। राष्ट्रीय पहचान भी राष्ट्र के लिए अत्यंत आवश्यक है जो प्रवाह लिए हो। मसलन राष्ट्र के लोगों में स्वयं को एक-दूसरे के समक्ष परिभाषित करने की आजादी, विचार प्रकट करने या वैचारिक रुप से जुड़ने का अधिकार और राष्ट्रीय आयोजनों में सहभागिता होनी चाहिए।
कहने का अर्थ यह है कि समुदाय का होने या सदस्य होने का एहसास सब में हो तो राष्ट की अखंडता हमेशा अक्षुण्य रहती है। आज भारतीय राष्ट्रवाद राष्ट्र में ही एक आकर्षक मुद्दा बन गया है। खासकर भारतीय युवाओं के बीच या विमर्श का विषय बना हुआ है। भारत के वामपंथी और सत्ता से एक दशक बाद दूर हुई कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ सरकार की आलोचना के लिए राष्ट्रवाद को भी साम्प्रदायिक आधार पर बांटने की कोशिश की है।
ऐसी स्थिति में भारतीय राष्ट्रवाद फिर से अपने आप में परिभाषित करने में राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ गया है। आजादी के बाद कुछ पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने भी अखंड भारत के विषय में बहुत ही भ्रामक विचार दिए थे, उनमें से एक थे अभिभाज्य योग्स्लाविया के प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक स्लाजावोविक। उन्होंने ने 1949 में कहा था कि भारत जल्दी ही कई टुकड़ो में बंट जाएगा।
आज वो ज़िंदा होते तो देख पाते कि भारत का लोकतंत्र आज कितना मजबूत और दुनियाभर के लिए प्रेरणादायी बन चुका है। जबकि स्लाजावोविक का अभिभाज्य योग्स्लाविया आज टुकड़े-टुकड़े हो गया है। इसका कारण शायद स्लाजावोविक नहीं समझ पाए। वो नहीं जानते थे कि भारतीय राष्ट्रवाद की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है। भारतीय संदर्भ में राष्ट्र की सीमाएं भौगोलिक रुप से तो सीमांकित हैं पर वैचारिक रुप से भारत एक वृहद, व्यापक और मजबूत देश है जो हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है।
पिछले लगभग 2 सालों में राष्ट्र में कई नई विचारधाराओं ने जन्म लिया है जो मौजूद तो पहले भी लेकिन भारतीय राजनीति में इनका स्वरुप इतना विकृत नहीं था। सत्ता को अपनी जागीर समझने वाले राजनीतिक दल खासकर कांग्रेस और वामपंथी दलों ने जिनका राजनीतिक वजूद लगभग लुप्त होने के कगार पर है खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखते हैं। देश के किसी भी कोने में जहां बीजेपी की सरकार नहीं है वहां भी ऐसी ही बातें फैलाई जा रही हैं कि जैसे सब मोदी के कारण है।
चाहे दादरी की घटना हो या कलबुर्गी की ह्त्या की ह्त्या की जांच के नाम पर हुआ बवाल हो। जिसके कारण असहिष्णुता और विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी, विचारों से सहमति और असहमति के नाम पर पुरस्कारों की वापसी का अभियान जिस प्रकार प्रायोजित किया गया वह भी बेहद चौकाने वाला था। या बात बहुत कछोटी है कि सिर्फ धार्मिक कट्टरता, असहिष्णुता के नाम पर और अभिव्यक्ति के आजादी के लिए ही क्यों इस बौद्धिक वर्ग ने आवाज क्यों उठाई।
गैर बीजेपी शासित राज्यों में हो रहे भ्रष्टाचार, रेप और रोज बढ़ रही अव्यवस्था, गरीबी और अन्य ज्वलंत मुद्दों पर भी इस बौद्धिक वर्ग ने आवाज उठाई होती तो उन पर कुछ लगाम जरूर लगता। सांप्रदायिकता के नाम पर राजनीतिक दलों ने खासकर कांग्रेसी-वामपंथी राजनेताओं ने जिसप्रकार अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए अपन-अपनी राजनीतिक रोटियां अपने अपने हिसाब से बनाने और सेंकने में लगे हैं इससे राष्ट्रीय मुद्दे और मोदी के विकास के कार्यक्रम प्रभावित हो रहे हैं।
कांग्रेसी-वामपंथी दलों और मीडिया ने भी देश में असहिष्णुता को लेकर घमासान मचाया। चरों तरफ कुछ ऐसा माहौल बनाया गया जैसे इस देश की उम्मीदें बस दम तोडनें वाली हैं। कांग्रेसी-वामपंथी दलों और बौद्धिक वर्ग ने कभी 2 जी के रुपए, कलमाड़ी जी के रुपए, कभी कोयला जी के रुपए के लिए कुछ नहीं बोला। आज के असहिष्णुता वाले तो सिर्फ गिनने में लगे थे न जाने कितने रुपए और कितने जी।
कभी वक्त मिले तो विचार कीजिएगा कि क्या हमारे देश में हालत इतने खराब हो गए हैं कि अपेक्षाकृत आमजन से ज्यादा बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों को भी अपने पुरस्कारों को वापस करने के लिए विवश होना पड़ा। सौ-दो सौ करोड़ की कमाई सिर्फ अपनी फिल्मों से करने वाले भाई बंधुओं को इस देश को छोड़ने का क्याल अपने जेहन में लाना पड़ा। आखिर क्यों बिहार चुनाव के बाद असहिष्णुता वाले बुद्धिजीवी वर्ग के ये नुमाइंदे विलुप्तप्राय हो गए।
आखिर एकाएक इतने उग्र क्यों हो गए हैं कांग्रेसी-वामपंथी दल और उनके नेता. मोदी के पीएम बनने के बाद इतने भयभीत क्यों हैं। इसे समझने की कोशिश करना अब जरुरी हो गया है। दरअसल गुजरात विकास मॉडल और अपनी हिन्दुत्ववादी छवि के कारण राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में मोदी का नाम जिस तेजी से उभरा। उससे कांग्रेस समेत सभी गैर बीजेपी दलों में
यह राय बनी कि चाहे जिस प्रकार मोदी को राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में बाहर कर दिया जाए और यही कारण था कि गोधरा दंगों के बाद की राजनीति ने देश में विभाजनकारी राजनीति करने वाले कांग्रेसी–वामपंथी दलों का एक नया तबका गठबंधन सामने आया, जो बीजेपी और मोदी को साम्प्रादायिक और खुद को सबसे ज्यादा सेक्युलर बताने की होड़ में लग गया।
एक तरफ कांग्रेस ने अपने को सबसे ज्यादा सेक्युलर बताने की होड़ में राष्ट्र विरोधी तत्वों को मजहब से जोड़कर दिखाने में लगी रही वहीँ बीजेपी और मोदी को भी बदनाम करने में भी पीछे नहीं रही। यही कारण था कि बाटला हॉउस एनकाउंटर को फर्जी औत मुंबई हमले के बाद दिग्विजय सिंह ने इसमें आरएसएस का हाथ बताया। बात यहीं नहीं खत्म हुई, इशरत जहां एनकाउंटर पर भी राजनीति कर मोदी को फ़साने की कोशिश की गई।
सुशील कुमार शिंदे तो दिग्विजय सिंह से कई कदम आगे निकल गए और उन्होंने खुद को कांग्रेस का सबसे बड़ा सेक्युलर बनाने की होड़ में एक नए शब्द की रचना कर डाली हिंदू-भगवा आतंकवाद। हमेशा मौन रहने वाले मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश की सभी प्राकृतिक गैर प्राकृतिक संसाधनों का पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है।
दरअसल भारत के इन तथाकथित सेक्युलरवादी लंबरदारों का जन्म दो चरणों में हुआ। पहला 1980 के दशक के आखिर में और दूसरा 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में जब कश्मीर में राष्ट्रविरोधी अलगाववादियों ने अपनी जड़ें जमाने के लिए खाड़ी युद्ध के समय सद्दाम हुसैन को पाना आदर्श और प्रतीक बताकर खाड़ी देशों से चन्दा वसूल किया और कश्मीर में आतंकवाद फैलाने में कामयाब रहे।
ये सेक्युलरवादी थे जो पाकिस्तान की आईएसआई और सीरिया के आईएसआईएस की तरह असहिष्णुता और विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी, विचारों से सहमति या असहमति के नाम पर राष्ट्द्रोही झंडा पकडे नजर आ रहे हैं।
दूसरे चरण के सेक्युलरवादी लंबरदारों का जन्म बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुआ। इन सेक्युलरवादी ने वोट बैंक की राजनीति के लिए एक सियासी जाति को जन्म दिया और उसका नाम रखा सांप्रदायिक ताकतें। इन सेक्युलरवादियों ने ही मंडल आयोग की सिफारिशों के नाम पर जात-पात को बढाया जिसके कारण भारतीय समाज में जातिगत विद्वेष और खायी इतनी गहरी बन गई कि आज सभी जातियां सिर्फ आरक्षण की मांग करती हैं।
सम्पूर्ण व्यवस्था पर इसका प्रभाव साफ़ दिखाई दे रहा है, कभी गुर्जर, कभी जाट आंदोलन तो कभी पटेल आंदोलन के नाम पर हार्दिक पटेल जैसे लोग अपनी राजनीति चमकाने के लिए राष्ट्रीय हितों को भी टाक पर रख देते हैं। अब ये सेक्युलरवादी अपनी पहचान बचाने के लिए कुछ नया करना चाहते हैं। जेएनयू से उपजे हालिया विवाद से इनको खाद-पानी , फलने-फूलने दिया। मीडिया ने सहमति , असहमति अलग-अलग विचारधारा हो सकती है।
स्वयं के विचारों की अभिव्यक्ति भी मौलिक आजादी और सबका हक़ है, पर देश भक्ति पर जंग जायज नहीं है। क्या यह घोर राष्ट्रद्रोह नहीं है कि जेएनयू जैसे ख्यातिप्राप्त यूनिवार्सिटी के परिसर में वहीँ के कुछ स्टूडेंट अभिव्यक्ति की आजादी और कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सहमति-असहमति व्यक्त करने के नाम पर आजादी की मांग करते हैं।
अधिक शर्मनाक यह है कि देश की राष्ट्रीय पार्टियां खासकर कांग्रेसी-वामपंथी दल और उनके नेता अपने वोट बैंक के लिए जेएनयू जैसे संस्थान को मोहरे के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
अब भारतमाता से संबंधित नारे से उपजा विवाद भी ऐसी कड़ी में अगला क्रम है जिसके द्वारा मोदी सरकार की छवि को साम्प्रदायिकता के रंग में रंगने की पूरी कोशिश की जा रही है लेकिन भारतीय लोकतंत्र और यहां की जनता ने इन बहुरूपिए सेक्युलरवादियों को पहचान लिया है।
जनता ने अपने वोट से किसी को फर्श से अर्श पर बैठाया तो किसी को अर्श से फर्श तक ला दिया। इस बात को शायद न कांग्रेस समझ पा रही है और न लगभग भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से लगभग विलुप्तप्राय वान्पंथी दल समझ पा रहे हैं।