K. Vikram Rao
सिर्फ संयोग है या नरेन्द्र मोदी का करिश्मा कि जब ईरान के शिया सैनिक पाकिस्तानी पंजाबी सुन्नी सिपाहियों पर बलूच सरहद पर गोले दाग रहे थे, उसी रात (28 सितम्बर) ऐसा भी हुआ कि गुलाम कश्मीर में घुसकर भारतीय जांबाज आतंकी अड्डो को ध्वस्त कर रहे थे। मोदी गये थे हाल ही में ईरानी नेताओं से यारी गाढ़ी करने। फल सामने हैं। मगर जो भी प्रधान मंत्री ने पिछले कुछ दिनो में किया है वह बस हलकी सी झलक थी ,असली प्रायश्चित करना तो बाकी है। गांधीवादियों ने 1947 में बलूच गांधी खान अब्दुलसमद खान और उनके मुजाहिदे आजादी के साथ जो दगा और द्रोह किया, वह अकल्पनीय है।पाकिस्तान से बेघर होकर भारत में पनाह पाए, पले और पनपे सरदार मनमोहन सिंह तथा लालकृष्ण आडवाणी को उत्पीड़ित बलूचियों की वेदना से तादाम्य नहीं हुआ। विभाजन की व्यथा के स्वयं भुक्तभोगी इन दोनों राष्ट्रनायकों को पाकिस्तानी नृशंसता की जानकारी थी मगर उन्होंने बिसरा दी। पंजाब के पूरब तथा सिंध के पश्चिम में स्थित पथंनिरपेक्ष बलूचिस्तान की त्रासदी बौद्ध तिब्बत और इस्लामी झिंशियांग पर हो रहे विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन के जुल्मों से अधिक पीड़ाजनक है।
दुखांतिका नजरअंदाज रही कि पाकिस्तानी वायुसेना अड़सठ वर्षों से बलूच जनता, खासकर महिलाओं तथा बच्चों का, संहार कर रही है। भारतीय सासंदों की समझ में यह पाकिस्तान का आंतरिक विषय है। मगर अत्यधिक दारुण है दोनों जनता दलों तथा समाजवादियों का मौन क्योंकि उनके प्रेरणा-पुरुष राममनोहर लोहिया विश्वयारी के प्रतिपादक रहे। बलूच गांधी अब्दुलसमद खान तो लोहिया के संघर्षवाले साथी रहे। इस पर भी लोहिया के अनुयायीजन बलूचजन के मानवाधिकार के हिमायती बनने से हिचके।
एक सदी से भारत की परंपरा रही कि विश्व के हर व्यक्ति, समूह और राष्ट्र में वंचितों और उत्पीड़ितों के लिए वह आवाज बुलंद करे। भारत ने दासता और हिंसा का दर्द सहा है। अतः वह पराई पीर का एहसास करता है। फिर बलूचिस्तान पर गूंगा क्यों रहा ? यह तो खुदगर्जी है। आत्मा किसी भौगोलिक परिधि को नहीं स्वीकारती है।
बलूचिस्तान को पाकिस्तान का अंदरूनी मसला सभी भारतीय प्रधान मंत्री, अटल विहारी को मिला कर, मानते रहे हंै, भले ही पाकिस्तान कश्मीर का अंतर्राष्ट्रीयकरण करता आया हो। ब्रिटिश गुलामी के विरुद्ध स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय रही बलूच जनता के साथ भारत की यह कृतघ्नता है, तुच्छ स्वार्थपरता भी। पाकिस्तान के सरकारी अभिलेखों के अनुसार अंग्रेजों के पलायन के पश्चात् आजाद भारतीय संघ में बलूचिस्तान रहना चाहता था, ठीक जैसे पश्चिमोत्तर प्रांत में सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान के पठान अनुयायी। खान अब्दुलसमद खान अचकजाई के नेतृत्व में बलूच सत्याग्रही लोग महात्मा गांधी के आंदोलन में सक्रिय रहे।
भौगोलिक दूरी के कारण बल्कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं की सत्ता कब्जियाने की जल्दबाजी से, बलूचिस्तान भारत से कट गया। अतः पाकिस्तान के विरुद्ध बलूच जनता स्वयं अपने स्वतंत्र गणराज्य का संघर्ष चलाती रही। जवाब में मोहम्मद अली जिन्ना ने थल और वायुसेना भेजकर (27 मार्च 1948) राजधानी क्वेटा पर सेना के बल पर कब्जा कर लिया। रियासतों के सारे नवाबों, खासकर कलाट के नवाब मीर अहमद यार खान ने, जिन्ना के विलय प्रस्ताव पर दस्तखत करने से इन्कार कर दिया था। स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना इस दमन प्रक्रिया का दिग्दर्शन करने क्वेटा गए। मगर गंभीर रूप से वहां बीमार पड़ गए और कराची लौट आए। उसी हफ्ते उनका निधन हो गया। बलूच विद्रोह को पाकिस्तानी वायुसेना ने कुचल दिया।
उसी समय उधर कश्मीर घाटी के डोगरा महाराजा हरि सिंह (सांसद कर्ण सिंह के पिता) ने विलय संधि पर हस्ताक्षर कर स्वेच्छा से अपनी रियासत को भारत में शामिल कर दिया था। भौगोलिक विडंबना है कि अपनी मर्जी से भारतीय संघ से जुड़ा कश्मीर तीन बार पाकिस्तानी सेना को परास्त करने के बाद भी विश्व मंच पर विवाद के रूप में अक्सर उठता रहा, जबकि निरंतर नरसंहार का शिकार होने के बावजूद बलूचिस्तान की आजादी और मानवाधिकार का मसला दबा ही रहता गया।
इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्राी को बधाई देते हुए कलाट रियासत के निर्वासित जन ने लंदन में आशा प्रकट की कि अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बलूचिस्तान में लोकतंत्र और स्वशासन के लिए हस्तक्षेप होगा। पाकिस्तानी फौज के अमानुषिक कृत्यों को दुनिया में उजागर किया जायेगा। अमेरिकी मीडिया की मार्फत बलूचों ने दो मांगें भारत सरकार के समक्ष रखी हैं: पहली तो यही कि देर से सही अब अंहिसावादी भारत इंसानियत के नाम पर बलूच मजलूमों और मुजाहिदीने-आजादी का सषस्त्र साथ दे। ऐतिहासिक दर्रा बोलन, जहां से विदेशी लोग भारत प्रवेश करते रहे, से सटे हुए बलूचिस्तान का भारत वैसे ही मदद करे जैसे उसने पश्चिमी पाकिस्तानी तानाशाहों के विरुद्ध पंजाबी-शासित तथा शोषित बंगभाषी पूर्वी पाकिस्तानियों की सहायता की थी। बांग्लादेश गणराज्य बना था।
अचंभा होता है कि पड़ोसी बलूचिस्तान की त्रासदी पर भारत की निदनीय खामोशी के बावजूद, पाकिस्तानी प्रधानमंत्राी भारत को अकारण परामर्श दे रहे है कि वह बलूचिस्तान में हस्तक्षेप बंद कर दे। आठ साल हुये इस अप्रिय सच को इन पाकिस्तानियों के सांसद, बलूच जननायक और सिनेट (राज्यसभा) के उपाध्यक्ष जान मोहम्मद जमाली ने संसद में (18 जून 2008) बतौर चेतावनी बता दिया था कि: ‘प्रांतीय स्वयत्तता नहीं मिली तो सारा बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग हो जाएगा। संविधान में संशोधन कर बलूच जन को खुदमुख्तारी के हक दिए जाएं। कोई अन्य विकल्प बचा नहीं है।’ अप्रिय सच पाकिस्तानी सरकार के लिए यह भी है कि उनका हुक्मनामा आज बलूचिस्तान में कहीं भी नहीं चलता। ब्रिटिश राज के समय से ही वहां विप्लव की चिनगारी उधर बलूचिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर पाकिस्तान अरबों डालर कमा रहा है। यह क्षेत्र देश का ‘फल उद्यान’ कहलाता है। यहां के सूयी नामक भूभाग से प्राकृतिक गैस देश के उपभोक्ताओं को पचास वर्षों से मिलती रही है मगर स्थानीय जन को कुछ ही अरसे से थोडी सी ही मुहय्या की जा रही है।
यहां यूरेनियम, सोना और तेल का भंडार है, मगर यात्रियों को राजमार्गों पर चिलचिलाती धूप से केवल बिजली के खंभों से ही छाया प्राप्त होती है। शिक्षा का आलम यह है कि महिला साक्षरता बासठ वर्ष बाद भी केवल एक प्रतिशत है। पूरे पाकिस्तानी साक्षरता प्रतिशत मंे बलूचिस्तान निम्नतम है। इस्लामी जम्हूरिया का यह सर्वाधिक उपेक्षित प्रांत पाकिस्तानी सरकार द्वारा अब कम्युनिस्ट चीन के उपनिवेश के रूप में बनाया जा रहा है। हवेलियां-काशगर रेल लाइन का निर्माण कर अपने इस्लामी इलाके झंशियांग के उइगर मुसलमानों को दबाने के लिए चीन को पाकिस्तान बलोचिस्तान से रास्ता दे रहा है। उधर ग्वादर बंदरगाह का निर्माण भी चीन कर रहा है ताकि भारत, म्यांमार और मध्येशियाई गणराज्यों को आर्थिक रूप से घेरा जाए। अतः जब भारत-पाक रिश्तों पर कभी विश्लेषण हो तो याद रखना होगा कि केवल भारतीय कश्मीर के चीन-अधिकृत क्षेत्र में काराकोरम वाले पाक-चीन राजमार्ग पर ही चिंता व्यक्त करने से हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होगी। ग्वादर बंदरगाह पर चीनी नौ सेना के नियंत्रण से भी बलूचिस्तान के भूभाग से वह भारत पर शिकंजा कस रहा है।
पहले कश्मीर, म्यांमार, श्रीलंका, पूर्वोत्तर राज्यों तथा बाग्लादेश में बढ़ते चीनी प्रभाव से भारत त्रस्त रहता रहा है। अब बलूचिस्तान पर नया मोर्चा खुल रहा है। पाकिस्तान और चीन के सामरिक रिश्तों के नए आयाम के तौर पर बलूचिस्तान की जमीन से भारत की सामुद्रिक घेराबंदी की योजना बनी है। ग्वादर बंदरगाह का निर्माण कर चीनी नौसेना अब अरब सागर तटीय क्षेत्रों में भारत की लंबी सीमा पर निगरानी रख्ेागी। इसके निशाने पर अब जामनगर से कोचीन बंदरगाह रहेंगे। समुद्री मार्ग से हुए मुंबई हमले (26/9) के परिवेश में यह खतरा सामान्य नहीं होगा। सांसदों को इस विषय पर सोचना चाहिए। मोदी को भला हो। बिसराया हुआ मानवीय मुद्दा जीवन्त बना दिया।