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युद्ध, संघर्ष, श्रेष्ठता का दंभ,...मानव सभ्यता नए अवसान की ओर तो नहीं
युद्ध से किसी देश या सभ्यता को कुछ नहीं मिलता। मात्र विनाश, विनाश और विनाश। राष्ट्रों की नींव को युद्धों की कामना दीमक की भांति पहले खोखला करती है, फिर युद्धों में भयावह बर्बादी आती है।
यह सत्य है कि मानव जीवन के प्रार्दुभाव के समय पुराना पत्थर काल का प्रारम्भ ही रहा होगा। जंगलों में रहना होता था, हथियार भी पत्थरों व लकड़ियों व कभी-कभी हड्डियों से बनाये जाते थे। आग जलाने के लिए पत्थर को रगड़कर ही प्रक्रिया करनी पड़ती थी। शिकार तथा जंगली फलों के ही ऊपर भरण-ंपोषण होता था। इस प्रकार के जीवन में संभवतः वस्त्रों के स्थान पर वृक्षों की छालों व जानवरों के चमड़े, कभी-कभी वृक्षों के पत्तों आदि का उपयोग किया जाता रहा होगा।
लोग समूहों में रहते रहे होंगे, परिवार व्यवस्था का बीज पड़ना आरम्भ हुआ होगा। उस समय हिंसक पशुओं से अपनी सुरक्षा के लिए समूहों में रहना आरंभ हुआ होगा, यह सारी बातें मानव जीवन के मानव-समाज व मानव-सभ्यता के बीजारोपण का काल रहा होगा, ऐसा माना जाता हैं। यह अनेकों शोधों व परिकल्पनाओं के आधार पर विकसित हुआ विचार व विश्वास है। मानव समाज, कालान्तर में जंगलों से कृषि की ओर अग्रसर हुआ। कृषि को व्यवसाय बनाने से, यायावरी जीवन का क्रमशः ह्रास हुआ तथा जीवन की प्रक्रिया व्यवस्थित होने लगी। छोटे-छोटे गांवों का प्रादुर्भाव व परिवार व्यवस्था का स्वरूप सामने आने लगा। इसी के बाद से मानव-समाज की सभ्यता व संस्कृति में गुणात्मक परिवर्तन आरंभ हुये। यह कृषि क्रांति का वस्तुतः बीजारोपण था।
मानव समाज का क्रमिक विकास
कृषि प्रधान समाज के बाद, औद्योगिक समाज का धीरे-धीरे प्रादुर्भाव हुआ। पहले तो कृषि प्रधान उद्योग, फिर लोहे-इस्पात व अन्य प्रकार के उद्योगों के आधार पर औद्योगिक क्रांति का आरंभ देखा गया। इस कालखंड में मानव सभ्यता व संस्कृति का एक दम से अलग प्रकार का विकास हुआ। अलग-अलग क्षेत्रों व मानव समाजों में कुछ तत्व समान होते हुए भी अन्तर दिखने लगे थे। सभ्यताओं व संस्कृतियों की संकल्पना में एक मूल अन्तर है। सभ्यताओं में अहंकार हो सकता है, परन्तु संस्कृति में ऐसा होना आवश्यक नहीं हैं। यह अलग बात है कि किसी समाज को अपनी संस्कृति को, दूसरी संस्कृतियों से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति भी होती है, तो आश्चर्य नहीं।
श्रेष्ठता का दंभ
अपनी सभ्यता को दूसरी सभ्यता से श्रेष्ठ समझने की प्रवृत्ति से एक दम्भ की उत्पत्ति होती है, जो आगे चलकर पश्चिमी जगत के कई हिस्सों में लगातार देखी गयी है। पहले व दूसरे विश्व युद्धों के पीछे, यद्यपि उनके तत्कालीन राष्ट्राध्यक्षों के दम्भ उनकी असीमित महत्वाकांक्षाओं तथा समग्र आर्थिक हितों का भी योगदान था, परन्तु उनके एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में अपनी सभ्यता को दूसरों से श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक थी। चमत्कारी वैज्ञानिक अनुसंधानों ने खासकर पश्चिमी जगत को, चमत्कारी आर्थिक विकास तो दिया ही, साथ ही साथ, अपनी श्रेष्ठता का दंभ भी बढ़ता गया। एक समय ग्रेट ब्रिटेन का सूर्य संसार से अस्त नहीं होता था। इस श्रेष्ठता के भाव, आर्थिक हितों एवं उपनिवेश बनाने की प्रवृत्ति ने मानव सभ्यता व समाज का भयंकर अहित किया है। बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे गये हैं, और यह परम्परा अभी चली ही आ रही है। कोई भी कालखण्ड इससे अछूता नहीं रहा है।
मानव सभ्यता नए अवसान की ओर
दो विश्व युद्धों के बाद, अनगिनत युद्धों, संघर्षों की पृष्ठभूमि से चलकर आज रूस व यूक्रेन के बीच का विवाद, वह पूरी मानव सभ्यता के समक्ष एक अंधकार के कालखंड में ले जा रहा है। विशेषकर दूसरे विश्व युद्ध के बाद आए शीत युद्ध के बाद स्पष्टतः यह दिखता है कि मानव सभ्यता एक नए अवसान की ओर जा रही है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान, विभिन्न अंतरराष्ट्रीय गठबंधनों के घटक देश, अपने-अपने गुट के देशों के हित नहीं संरक्षित कर पा रहे हैं। विरोधाभासी आर्थिक हितों के कारण, जो आज दिख रहा है, उसमें भूमण्डलीकरण की संकल्पना भी धूमिल होती दिख रही है। 4.4 करोड़ की जनसंख्या का देश, यूक्रेन आज जिस सामरिक संकट से गुजर रहा है, विश्व की तमाम व्यवस्थायें चरमरा रहीं हैं। वैसे तो ''मात्स्य न्याय'' हमेशा से संसार में रहा है। यानी बड़ी मछली, छोटी मछली को खा जाती हैं। पिछले कई दशकों के संघर्षों व युद्धों में इसी को बार-ं बार प्रमाणित भी किया है।
...फिर युद्धों का इतिहास
सोवियत रूस के विघटन की प्रक्रिया में वर्ष 1991 में यूक्रेन एक देश बना। उस समय के बाद से यूक्रेन को विसैन्यीकृत करने का जो लक्ष्य, रूस ने रखा है, वह अमेरिकी नेतृत्व वाले 'नाटो' संधि संगठन के पाले में यूक्रेन को जाने से रोकने मात्र के लिए नहीं हैं। यह वस्तुतः विश्व के शक्ति समीकरण में सोवियत संघ के खोये हुये गौरव को फिर से प्राप्त करने का प्रयास भी है। आज पूरा विश्व तथा खासकर यूरोप ऐसे संकट से गुजर रहा है। यद्यपि, बड़ी शक्तियों द्वारा, दूसरे देशों पर युद्ध, संघर्ष आदि थोपना कोई नई बात नहीं है, फिर क्या अमरीका द्वारा क्यूबा, वियतनाम आदि पर थोपी हुई लड़ाइयां भूली जा सकती है। रूस का अफगानिस्तान पर युद्ध जैसा माहौल, वर्ष 2008 में रूस द्वारा जर्जिया तथा 2014 में क्रीमिया पर कब्जा भी सर्व विदित ही है।
अमरीका :तानाशाही सरकारों को खुला समर्थन
अमरीका ने समय-समय पर तानाशाहों की सरकारों को खुला समर्थन किया था। पाकिस्तान, इराक, लीबिया के तानाशाहों को अमरीका ने सैनिक साज-समान की सहायता दी थी। जो रूस व अमरीका हैं, वे समय-समय पर दूसरे देशों को युद्धों में न केवल फंसाते रहे हैं, वरन् अनेकों बार प्रत्यक्षतः युद्धों व आक्रमणों का शिकार बनाते रहे हैं। आज रूस-यूक्रेन संघर्ष में, यूक्रेन एक मोहरा भर बनकर रह गया है। एक तरफ शक्ति के दंभ में आकंठ डूबा रूस तो दूसरी ओर अमरीकी नेतृत्व वाले नाटो संगठन के बीच में यूक्रेन पिस रहा है। आज यूक्रेन को हथियार देकर नाटो संगठन केवल संघर्ष बढ़ाने का काम कर रहे हैं।
यूक्रेन तहस-नहस हो रहा
इस युद्ध में हजारों लोग मारे जा चुके हैं, रूस की अर्थव्यवस्था पर संकट जैसा आ रहा है। यूक्रेन तहस-ंनहस हो रहा है। यूक्रेन के सबसे बड़े नाभिकीय संयंत्र पर भी रूसी हमले से सारे संसार में चिन्ता बढ़ गई है। रूस-ं यूक्रेन युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय शक्ति समीकरणों में एक बदलाव भी प्रदर्शित किया है। सामान्यतः अमरीकी गुट में माना जाने वाला इसरायल, रूस के विरूद्ध कड़ी टिप्पणी नहीं कर रहा है।
बड़े परिवर्तन के संकेत तो नहीं !
भारत, चीन व पाकिस्तान किसी भी मत विभाजन के समय, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की बैठकों में वोटिंग से अनुपस्थित रहे हैं। यद्यपि भारत के सम्बन्ध चीन व पाकिस्तान से अच्छे नहीं है। चीन और पाकिस्तान भारत के विरूद्ध ही विश्व मंचों पर दिखते हैं, परन्तु रूस-ंयूक्रेन युद्ध में भारत, चीन, पाकिस्तान तीनों ही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में वोटिंग में अनुपस्थित रहे हैं। वैसे ये किसी बड़े परिवर्तन के संकेत नहीं है।
विनाश, विनाश और विनाश..
युद्ध से किसी देश या सभ्यता को कुछ नहीं मिलता। मात्र विनाश, विनाश और विनाश। राष्ट्रों की नींव को युद्धों की कामना दीमक की भांति पहले खोखला करती है, फिर युद्धों में भयावह बर्बादी आती है। युद्ध सदैव मानव समाज का अहित ही करता रहा है। युद्ध में विजयी व पराजित देश दोनों को न केवल जन- धन की अपार हानि होती है, बल्कि पीढ़ियों तक उसके परिणामों का दंस झेलना पड़ता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जापान के हिरोशिमा व नागासाकी में पैदा हुये बच्चे, आणविक हथियारों के दुष्प्रभाव झेलते रहे हैं। वस्तुतः हिंसा, संघर्ष व युद्ध, किसी भी समस्या का हल हो नहीं सकते हैं, ये तो समस्याओं का जंजाल लेकर ही आते हैं।
युद्धों के दुष्परिणामों पर मेरी कविता स्पष्टतः चित्रित करती हैं :
''आदमी कई बार चला'-
और पहुंचा-
फिर वहीं क्यों कि -
दुनिया गोल है-
कहते हैं चौथा विश्व युद्ध पत्थरों से लड़ा
जाएगा -
डर लगता है तीसरे विश्वयुद्ध की चर्चा भर से-
आखिरी तीसरी बड़ी लड़ाई की रिमोट
कन्ट्रोल बटनें
बैठी हैं तैयार।।।''
कविता ''तीसरी बड़ी लड़ाई''
कविता संग्रह: ''बेटे के सवाल'', पृष्ठ 32 व 33 परिमल
प्रकाशन, वर्ष 2000
मनुष्य के अन्दर का राक्षस..चिल्लाता है
हर युद्ध पर वस्तुतः तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडराने लगता है। वस्तुतः युद्धों के बाद, विजय चाहे जिसकी भी हो, महाविनाश का प्रहर ही दिखता है। गांवों व शहरों के ऊपर चील-कौए हीउड़ते हैं, हंस-गौरिया नहीं। सच तो यह है कि युद्धों पर विजय प्राप्त करने पर महाकाव्य और ग्रन्थ लिखे गये हैं, किन्तु युद्धों के दुष्परिणामों से परिचित कराने का प्रयास कम ही होता है। सच यह भी है कि मनुष्य के अन्दर का राक्षस, युद्धों में आदमी के सिर पर चढ़ कर चिल्लाता है, परन्तु मानवता सोती हैं, जागती नहीं। भारतीय मनीषा में यह कहा गया है कि ''मनुते इति मानवः''
यानी जो विचार कर सकते हैं, वह मानव है। जो अपनी ही भांति अन्य प्राणियों को देखता है, समझता है, वही मानव है:
''आत्मवत् सर्व भूतेषु यः पश्यति सः मानवः''
(चाणक्य नीति: अध्याय 12, श्लोक 15)
हमारी भारतीय परम्परा में तो मानवता के उच्च धरातल पर स्थित मनुष्य सभी के शुभ और कल्याण का आकांक्षी होता है।
''सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत।।''
बृहदारण्यक उपनिषद
यानी हमारा जीवन दर्शन किसी को भी दुःख में नहीं देखना चाहता। सभी का कल्याण चाहता है। यह सत्य है कि लम्बे काल खण्ड में, बदलाव होता रहता है। जनसंख्या के स्थानांतरण से, तकनीकों, पर्यावरण, सभ्यता, संस्कृति, जीवन मूल्यों व आदर्शों में भी परिवर्तन होता रहता हैं।
हमने बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही राष्ट्रों का तथा बाद में राष्ट्र- राज्य अवधारणा का उदय होते देखा है। राष्ट्र व देश की संकल्पना व उनके विकास के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो गंभीर चुनौतियां सामने आयी है:-
(1) अंतरराष्ट्रीय कट्टरवाद
(2) विश्वव्यापी आतंकवाद
विश्व के सामने कई चुनौतियां इन दोनों चुनौतियों के साथ ही, नशीले पदार्थ विश्व व्यवस्था व मानव सभ्यता के लिए बड़ा खतरा हो चुकी हैं। अंतरराष्ट्रीय तस्करी भी विश्व व्यवस्था व मानव सभ्यता के लिए बड़ा खतरा हो चुकी है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों के पास अकूत धन सम्पदा, बड़े- बड़े संगठित अपराधी- आतंकवादी गिरोह है, दुःख की बात यह है कि ये आतंकवादी पूर्णतः प्रशिक्षित हैं। ये आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में दक्ष होते हैं। इस प्रकार के कट्टरवादी आतंकवादी संगठन, मानवता, मानव सभ्यता तथा समस्त विश्व व्यवस्था के लिए बहुत गंभीर खतरा बन चुके हैं। बड़े- बड़े विकसित देश भी इन आतंकवादी संगठनों को पूरी तरह समाप्त करने में सफल नहीं हो सके हैं। दुर्भाग्य की बात है कि अंतरराष्ट्रीय संगठन जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ व सुरक्षा परिषद भी इनके समापन के लिए प्रभावी कदम नहीं उठा सकी है। यह बेहद चिंता का विषय है।
सभ्यताओं के बीच रक्तरंजित संघर्ष
आज मानव सभ्यता के समक्ष विभिन्न प्रकार के परंपरागत हथियार, आणविक अस्त्र, रासायनिक हथियार, जैविक हथियार, मानव बम, प्रक्षेपास्त्र आदि आदि मानव समाज को पूर्णतः नष्ट करने में समर्थ है। नित नई वैज्ञानिक खोजों के बाद भी, इनसे सुरक्षा की कोई सु निश्चित प्रणाली अभी भी मानव के पास नहीं है। यूं तो सभ्यताओं के बीच रक्तरंजित संघर्ष चलता रहा है, परस्पर श्रेष्ठता के दंभ व कभी- कभी सत्ताधीशों की शक्ति प्रदर्शन की प्रवृत्ति ने मानव समाज का जितना नुकसान किया है, वह कोई महामारी भी नहीं कर पाई है। कई बार निजी स्वार्थो के लिए भी युद्ध होते रहते हैं। युद्ध देश व समाज को कई वर्ष पीछे ले जाता है। आर्थिक प्रगति अवरूद्ध हो जाती है। आखिर एक युद्ध में विजय या पराजय, दूसरे युद्ध का बीजारोपण करती हैं यह रक्तबीज, मानव समाज व मानव सभ्यता के लिए एक शाश्वत खतरा बनती है।
विवादों, संघर्षों व युद्धों का समाधान, सार्थक संवाद से ही संभव हैं। इस बात की सम्पूर्ण विश्व के अंतरराष्ट्रीय मंचो को समझने की जरूरत है। युद्ध के बाद भी तो संवाद ही करना पड़ता है। संवाद से शान्ति की संभावना व आशा बनती है। मानव समाज को वैश्विक भाईचारे की भावना के लिए, सहयोग व रचनात्मक दृष्टि की आवश्यकता है। मानव सभ्यता के ऊपर लगे प्रश्न चिन्ह को समाप्त करने का यही एक मार्ग है।
(लेखक ओम प्रकाश मिश्र, पूर्व रेल अधिकारी व पूर्व प्रवक्ता अर्थशास्त्र विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, 66, इरवो संगम वाटिका, देवप्रयागम, झलवा, प्रयागराज (उप्र) 211015)