TRENDING TAGS :
दीपपर्व की धूमिल चेतना का पुनर्जागरण जरूरी, तभी ज्ञान की शाश्वत गरिमा होगी स्थापित
पूनम नेगी
यूं तो हमारा हर पर्व बेजोड़ है, उल्लास और चेतना परिपूर्ण। भारतीय पर्व इसलिए अनूठे हैं कि क्योंकि हमारे ऋषियों ने मानवीय अस्तित्व का सूत्र पहचाना और उसके जीवन नृत्य को पर्वों के मधुर घुंघुरुओं से सजा दिया।
जीवन को आलौकिकता के विभिन्न आयामों तक ले जाता है। दीपक की ज्योति का सतेज प्राण भारतीय मनीषियों को सदैव अनुप्रेरित करता रहा है। ऋग्वेद की प्रथम की ऋचा कहती है- "अग्नि मीले पुरोहितं।" अर्थात हे अग्नि! तुम ही पुरोहित अर्थात अग्रणी हो। दीप ज्योति की यह छवि हमारे आत्मस्वरूप की झांकी बनकर सदा से हमारी भावनाओं की थाली में सजती आयी है।
ज्योति पर्व के साथ जुड़े पावन प्रसंगों की कड़ी अनंत और अनोखी है। रावण के आतंक पर श्रीराम की विजय मात्र एक पुराण कथा नहीं है, वरन् यह हमारी उर्वर आध्यात्मिक भारत भूमि का जीवंत और अमर इतिहास है। घोर विलासी जीवनशैली पर महातप की विजय का प्रतीक। पतिव्रता सावित्री ने इसी दिन अपने महासंकल्प से यमराज के विधान को बदलकर अपने पति को जीवनदान दिया था। मृत्यु के देवता यमराज ने इसी दिन महाजिज्ञासु नचिकेता को दिव्य ज्ञान दिया था। भगवान विष्णु द्वारा नरकासुर वध की याद के रूप में भी यह उत्सव मनाया जाता है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व इसी कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के पुण्य दिवस पर सत्य और अहिंसा के महान प्रवर्तक भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। स्वामी रामतीर्थ व स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे दिव्य मनीषियों ने अपने महाप्रयाण के लिए इसी पावन दिन का चयन किया। दीपोत्सव की महत्ता और विशेषता के ये विविध प्रसंग आज भी धर्मप्राण जनमानस की आस्था के आधार बने हुए हैं। इस प्रकाश पर्व पर दीपक जलाकर स्तुति-वंदना के द्वारा हम भारतीय पुरा इतिहास इन महाघटनाओं की पावन स्मृतियों को ताजा करते हैं।
पुराण कहते हैं-"दीपावली समयाति नीत्वा सन्देश मुक्तमम।" अर्थात उचित उपार्जन और समुचित उपयोग ही दीपावली का पर्व संदेश है। जब तक यह देश ऋषियों के इस शिक्षण पर अडिग रहा; ज्ञान की दृष्टि में सर्वोत्तम और धन की दृष्टि से सोने की चिड़िया कहा जाता रहा। सुख-समृद्धि से हमारी धरती पर स्वर्ग-सी रचना बनी रही, किन्तु आज के अर्थ युग में इस शिक्षा से भटककर हम एक बड़े अनर्थकारी जीवन को आमंत्रित कर चुके हैं। कभी लक्ष्मी को मां की तरह पूजने वाले आज उसे उपभोग की वस्तु मान बैठे हैं। पुराणों का यह उल्लेख कि नरकासुर राक्षस ने देवी लक्ष्मी का हरण कर लिया, आज सत्य प्रतीत होता है। इस सुन्दर विश्व वसुधा के साधनों को नरक के असुर अपने भोगों के लिए प्रयुक्त कर रहे हैं। इन्हीं तथाकथित नरकासुरों ने राजनीति को घोटालों का पर्याय बना दिया है। सब आदर्श थोथे हो गये हैं, सारे संयम तोड़ दिये गये हैं, नैतिकता को सिर छुपाने का कोई स्थान नहीं बचा है। कोरी स्वार्थपरता हर आंख की झिल्ली पर छाती चली जा रही है। अर्थ आैर ज्ञान का यह महापर्व आज विकृत हो चुका है। अपसंस्कृति का विषैला धुंआ दीपपर्व की छवि को मटमैला सा करता प्रतीत होता है। पर्व आडम्बर के शोरगुल से भर गया है। लक्ष्मी की उपासना के बजाय जुआरी दुर्योधन की तरह जंघा पीट रहे हैं। कीचक की तरह मद्य में चूर होकर खुशी जाहिर करना आज आम प्रचलन हो गया है। कालाधन ऋषियों की संस्कृति का मखौल-सा उड़ाता लगता है। भ्रष्टाचार मानो समाज की नस-नस में व्याप्त हो गया है। निम्न मध्यम वर्ग तो अपने चेहरे पर दूसरा ही चेहरा लिए घूमता दिखता है, उसके लिए तो परीक्षा की घड़ी है। कुछ बनावटी शब्द और दिखावटी खुशी। यही उधेड़बुन कि कैसे व कितनी चादर ताने कि किसी पूरा त्यौहार निभ जाय। वहीं झोपड़पट्टियों में रहने वाले शोषण के शिकार निम्न वर्ग के लोग जिन्दगी के बुझते दिये की तरह दिखते हैं। एक वर्ग सामान्य से भी गये-गुजरे स्तर का जीवन जिए और दूसरा वर्ग लक्ष्मी को अपने घर में ही कैद करने की कामना करता रहे; ऐसा दीपोत्सव आखिर किस काम का!
बात आतंकवाद तक ही सीमित नहीं है, भारतीय जनमानस भयंकर मनोवैज्ञानिक संघात से जूझ रहा है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता तथा इन सबसे भारी अवसरवाद अवसरवाद ने अपन तक सारे आंकड़ों को धता बताते हुए पलना-बढ़ना प्रारम्भ किया है । राजनीति क्षेत्र के तथाकथित नेतागण अपने आप को सर्वशक्तिमान मान बैठे हैं। जिस लोक संपदा एवं शक्ति का सुनियोजन लोकहित, जनहित में गरीब, असहाय, अशिक्षित, पिछड़े एवं दलित वर्ग के उत्थान एवं विकास में होना था, उसकी बंदरबांट महास्वार्थी एवं भ्रष्ट राजनेताओं आैर कालाबाजारी करने वाले व्यापारियों के बीच चल रही है।
दीपक की तरह तिल-तिल जलकर दूसरों को ज्ञान का प्रकाश देना हमारी संस्कृति का गौरव रहा है। ऐसे पुरोहितों को वेद में अग्नि की उपाधि दी गयी है। अग्नि के गरिमा गान से वैदिक ऋचाएं अभिभूत सी दिखाई देती हैं। बुद्ध का "अप्प दीपोभव" संकेत भी इसी शाश्वत भाव को दोहराता है। मगर विडम्बना है कि ज्ञान की खोज का योगाभ्यासी यह देश आज भोगों में भटक गया है। ज्ञान दान की दिव्य परम्परा विलुप्त होती जा रही है। जगदगुरु कहे जाने वाले देश के नागरिकों का चरित्र आज दुनिया की दृष्टि में विश्वसनीय नहीं रहा। हमारा समाज आज चारों ओर से पीड़ा-पतन से ग्रस्त है। महंगाई व अर्थ चिन्ता से हर व्यक्ति दुखी हो रहा है। अभाव की ज्वाला में गृहस्थ, मजदूर, नौकरी पेशावाले सभी जल रहे हैं। सोचने का समय है कि हम दीपक जलाते हैं पर प्रकाश न हमारे आन्तरिक जीवन में आता है, न वाह्य जीवन में।
हम दीपावली पर अपने घरों को रोशन करते हैं। हालांकि अब दियों का स्थान बिजली की झालरों व मोमबत्तियां ने ले लिया है। इस दिन हम माता लक्ष्मी की आराधना करते हैं कि वे अपनी कृपा से हमें निहाल कर दें। हर साल हम इस पुण्य पर्व को नवीन आशा के साथ मनाते हैं, पर सब व्यर्थ चला जाता है। भगवती प्रसन्न नहीं होती, बल्कि कुपित होती हैं। यदि देखा तो आज भी वे पूरी तरह क्रुद्ध हो रही हैं। कारण कि हम केवल वाणी विलास से मां लक्ष्मी की कृपा पाना चाहते हैं। आज हममें इनसानियत, भावना-संवेदनाएं जैसे कहीं खो गयी हैं। इस दृष्टि से विचार करने की जरूरत है। दीपोत्सव के पर्व में आनंद आैर प्रकाश की शाश्वत विजय का बड़ा अनूठा मर्ग समाहित है, परन्तु आज इसकी अर्थवत्ता एवं सार्थकता कहीं विलीन हो गयी, कहीं खो गयी है। प्रबल-प्रखर प्रकाश की प्रेरणा से कहीं ज्यादा अमावस्या का अंधकार भारी पड़ रहा है। ऋषियों की बनायी जीवन मूल्यों की पोषक हमारी समाज-व्यवस्था आज जातीय हिंसा के रूप में लहू-लुहान हो रही है। पर्व-परम्पराओं की अटूट श्रृंखला में मुकुटमणि का स्थान प्राप्त करने वाले इस प्रकाश पर्व दीपावली पर देश की दीवारें तथा इसकी संतानों के परिधान जगमगा जाते हैं, उजले-धुले-नये हो जाते हैं, पर मन-हृदय का अंधियारा अछूता रह जाता है। बाहरी प्रकाश की चकाचौंध से अंतर्मन की अंधेरी टीसें उल्लसित नहीं हो पातीं।
इस भूल को सुधारना अब नितांत जरूरी है। धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के पूजन का मर्म यही है कि हम अपने समाज को आैर अधिक समृद्धशाली बनाने में सहायक सिद्ध हों। ज्योति पर्व से नये प्रकाशपुंज के पावन अवतरण की प्रतीक्षा करें। ऐसा आलोक, जो भारतमाता की सवा सौ करोड़ संतानों के घर-आंगन के साथ उनके मन-आंगन में भी प्रेम का प्रकाश फैला सके। इसलिए दीपावली की सांझ जब दीप जलाएं तो तब एक दीप अपने भीतर भी प्रज्वलित करें ज्ञान की शाश्वत गरिमा को पुन: स्थापित करने के लिए इस प्रार्थना के साथ "तमसो मा ज्योतिगमय्, असतो मा सद्गमय्, मृतयोर्मामृतमगमय्।"