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कार्तिक पूर्णिमा : इस दिन देवगण मनाते हैं दीपोत्सव
पूनम नेगी
लखनऊ: हम मनुष्यों की तरह देवगण भी धरतीलोक में आकर दीपोत्सव मनाते हैं। अंतर यह है कि धरतीवासी कार्तिक मास की अमावस्या को दीपोत्सव मनाते हैं जबकि देवगण कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर। प्रश्न उठता है कि मनुष्यों आैर देवों की दीपावली की तिथियां भिन्न भिन्न क्यों हैं? इसके पीछे एक रोचक कथानक है।
पौराणिक उल्लेख है कि एक समय दैत्यराज त्रिपुरासुर देवताओं के लिए गंभीर चुनौती बन गया था। जब देवगण उस महाबलवान असुर को पराजित करने में असमर्थ हो गये, तो वे लोग देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में गये। तब महादेव ने त्रिपुरासुर का संहार कर त्रिलोक को उसके अत्याचारों से मुक्त किया। त्रिपुरासुर के अंत से हर्षित देवताओं ने महादेव शिव के सम्मान में दीप प्रज्ज्वलित कर दीपोत्सव मनाया। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। तब से उक्त तिथि को त्रिपुरारि पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाने लगा। भगवान शंकर की दो प्रमुख नगरियों काशी आैर उज्जयिनी में देवदीपावली अर्थात त्रिपुरोत्सव अत्यन्त भव्य रूप से असंख्य दीपमालिकाओं से गंगा आरती कर मनाया जाता है।
इस देवपर्व से संबंधित ब्रह्मवैवर्त पुराण व श्रीमद्देवीभागवत में एक आख्यान मिलता है। इस आख्यान के अनुसार द्वापरयुग में एक बार कार्तिक पूर्णिमा के दिन गोलोक में राधा-कृष्ण महोत्सव का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जा रहा था। भगवान श्रीकृष्ण भगवती राधा के साथ रासमंडल में विराजमान थे। देवगण उनकी पूजा कर रहे थे। इस मनोहारी उत्सव को देख सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री भगवती सरस्वती खुद को रोक न सकीं। वे उस उत्सव में पहुंच कर मधुर गायन करने लगीं। भगवान शंकर भी आयोजन में जाने से खुद को न रोक सके। वे भी वहां पहुंचकर भाव विभोर होकर नृत्य करने लगे। उस सुंदर नृत्य-गायन को देखकर हर्ष से राधा-कृष्ण की आंखों से जलधारा बह निकली। उनकी युगल शक्ति से निर्मित जल "गंगाजल" कहलाया व देवताओं ने विविध स्त्रोतों के द्वारा गंगाजल की महिमा का गुणगान किया। कालांतर में जब भगवान श्रीराम के पूर्वज राजा भगीरथ की तपस्या के फलस्वरूप गंगा जी पृथ्वी पर पधारीं तो कार्तिक पूर्णिमा की तिथि गंगा-स्नान व देव-दीपावली का महापर्व बन गयी।
देव-दीपावली को मनाने के पीछे एक अन्य पौराणिक मान्यता भी बतायी जाती है; जिसके अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी (देवशयनी) से कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) तक चातुर्मास की अवधि में भगवान विष्ण योगनिद्रा लीन रहते हैं। कार्तिक अमावस्या (भूलोक की दीपावली) चातुर्मास में पड़ती है आैर भगवान विष्णु के योगनिद्रा में लीन रहने के कारण धरतीवासियों को भगवती लक्ष्मी की पूजा उनके पति के बिना ही करनी पड़ती है। यद्यपि देवी लक्ष्मी जी का साथ देने के लिए प्रथम पूज्य भगवान गणेश उपस्थित रहते हैं, किंतु पति की अनुपस्थिति में विष्णु-लक्ष्मी की जोड़ी अधूरी रहती है। इस कारण कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विष्णु के जागने के पांच दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि देवगण श्रीहरि व उनकी अर्द्धांगिनी देवी लक्ष्मी की एक साथ आरती उतारते हैं आैर उनके निमित्त दीपोत्सव का आयोजन कर हर्ष व्यक्त करते हैं। भगवान शंकर ने गंगा जी को अपनी जटाओं द्वारा धरती पर उतारा। यह प्रसंग काशी के देव-दीपावली महोत्सव का मूल आधार है। भगवान शिव की नगरी काशी में देव-दीपावली की शोभा देखते ही बनती है। मोक्षधाम काशी के घाटों पर असंख्य दीपकों के द्वारा महादेव शिव व मां गंगा की महाआरती का नयनाभिराम दृश्य हर श्रद्धालु के मन को गहराई से छू लेता है। देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु काशी की देव-दीपावली की भव्य आयोजन देखने प्रतिवर्ष वाराणसी जाते हैं।
महाकाल की नगरी उज्जैन में भी कार्तिक पूर्णिमा पर देव-दीपावली का सुंदर आयोजन होता है। वैष्णवों में निम्बार्क संप्रदाय के प्रवर्तक निम्बार्काचार्य तथा सिखों के प्रथम धर्मगुरु नानकदेव जी का अवतरण भी कार्तिक पूर्णिमा को ही हुआ था। इस कारण इस दिन उनका प्रकाशोत्सव खूब धूमधाम से मनाया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा की शुभ तिथि को मनाये जाने वाले इस देवपर्व की सार्थकता तभी है जब ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश से हमारे अंतस का अज्ञान रूपी अंधकार भी नष्ट हो व हमारे भीतर देवत्व जागे। देव-दीपावली का आलोक जब हमारे अंतस को उजागर कर देगा, तब नकारात्मकता का अंधेरा सदा के लिए दूर हो जायेगा।