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गणेश पूजन के बिना नहीं मिलता शुभफल, विश्वभर में मनाया जाता है गणेशोत्सव
पूनम नेगी
लखनऊः हिन्दू दर्शन के अनुसार गणपति आदि देव हैं जिन्हें "प्रथम पूज्य" की गरिमामय पदवी हासिल है। हमारे यहां हर मंगल आयोजन का शुभारम्भ भगवान गणेश की पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है। कोई धार्मिक उत्सव हो, यज्ञ- पूजन हो, विवाहोत्सव हो या कोई अन्य संस्कार; सभी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हों, इसलिए सर्वप्रथम शुभत्व के प्रतीक भगवान गणेश की पूजा की जाती है। कामना चाहे धन-धान्य की हो, स्त्री-पुत्र की या संकट निवारण की; आदि देव गणेश की सच्चे मन से की गई भावपूर्ण आराधना सदैव फलदायी होती देखी गई है। हिन्दू दर्शन में मान्यता है कि जिस शुभ आयोजन की शुरुआत गणेश पूजन के बिना होती है, उसका कोई शुभफल नहीं मिलता।
भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तिथि तक गणेशोत्सव का दस दिवसीय पूजन पर्व मंगलमूर्ति विघ्नहर्ता भगवान गणेश के अवतरण दिवस के रूप में देश ही नहीं अपितु विश्वभर के हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा हर्षोल्लास से मनाया जाता है। धर्म के नाम पर प्रचलित परम्पराएं यदि प्रकृति के पोषण के नाम पर उसका दोहन करें तो इसे किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता। गणेश उत्सव मनाने से पूर्व आइए जानते हैं। इस पर्व के आराध्य देवता से जुड़े तमाम पौराणिक और पर्यावरणीय तथ्य जो इस पर्व की महत्ता को दर्शाते हैं।
हमारे शास्त्रों में गणेश जी का सद्ज्ञान के देवता, विध्नहर्ता के रूप में वर्णन मिलता है। इन्हें गणपति या गणाध्यक्ष भी कहा गया है। गण का अर्थ होता है समूह और गणपति उस समूह का अध्यक्ष। गणेश की आकृति कौतुहल उत्पन्न करती है। पूरा शरीर मानव का एवं सर हाथी का। जाने-माने वैदिक विद्वान विवेक गोडबोले जी गणेश जी की इस विचित्र आकृति की विवेचना करते हुए कहते हैं कि गणेश मानव एवं पशु में एकत्व के प्रतीक हैं।
शक्ति एवं बुद्धिमत्ता के प्रतीक गणेश की उत्पत्ति के पीछे शिव और पार्वती की एक पौराणिक कथा है। वैसे तो यह एक मिथक है फिर भी इसमें एक अनुपम शिक्षाप्रद दर्शन निहित है। गणेश की मनोहारी शरीराकृति अपने में गहरे और विशिष्ट अर्थ संजोए हुए है। लम्बा उदर इनकी असीमित सहन शक्ति का परिचायक है। चार भुजाएं चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक हैं, बड़े-बड़े कान अधिक ग्राहृय शक्ति, छोटी-छोटी पैनी आंखें तीक्ष्ण दृष्टि और लम्बी सूंड महाबुद्धित्व का प्रतीक है। इनकी सवारी है चूहा। चूहा ही क्यों? इसलिए क्योंकि चूहे में चीजों को छोटे-छोटे भाग में करने की काबलियत होती है। हमें भी अपनी बुद्धि का विकास इस तरह करना चाहिए ताकि हम हर चीज को विस्तृत तरीके से एवं गहराई से समझ सकें।
पुराने समय में लोग नदियों में नहाया करते थे। उस समय बारिश के मौसम में नदियां बिल्कुल साफ हुआ करती थीं। नदियों के किनारे की स्वच्छ व पवित्र मिट्टी से बनी गणेश की मूर्तियों की पूजा की जाती थी। यहीं से गणेश चतुर्थी की शुरुआत हुई। कालान्तर में महाराष्ट्र में सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलायी। कहा जाता है कि शिवाजी की माता जीजाबाई ने पुणे में गणपति में गणेश जी की स्थापना की थी और पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। पहल गणेशोत्सव एक पारिवारिक त्योहार था, किन्तु बाद के दिनों में बाल गंगाधर तिलक ने इसे सामाजिक स्वरूप दे दिया तथा गणेशोत्सव राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया।
दस दिवसीय गणेश उत्सव के दौरान घर-घर में लोग गणपति की स्थापना व पूजा करते हैं। हमारे जीवन के सारे विध्न दूर हो जाएं, इस मकसद से विध्नहर्ता गजानन को अपने घर का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित करते हैं। गणेश पूजा के लिए प्रयोग में लायी जाने वाली सामग्री का भी अपना अलग ही महत्व होता है। ये सारी की सारी चीजें प्रकृति से जुड़ी हुई हैं और हमें प्राकृतिक रूप में प्राप्त होती हैं। इनमें किसी भी प्रकार का रसायन नहीं होता। मसलन-हल्दी एवं चन्दन, दूर्वा, पुष्प आदि।
खास बात है कि इनमें औषधीय गुण भी कम नहीं होते। हल्दी एक एंटीसेप्टिक है जबकि चंदन शीतल स्पर्श देता है। ऐसा माना जाता है कि चंदन का लेप माथे पर लगाने से सूर्य भगवान के दर्शन होते हैं। जब हम गणेश जी की मूर्ति पर चंदन का तिलक लगाते हैं तो हम भगवान सूर्य को अपने घर में बुलाते हैं। गणेश की मूर्र्ति पर दूर्वा घास चढ़ाने का भी अलग महत्व है। कहते हैं कि इससे स्मृति बढ़ती है। भगवान गणेश को मोदक का भोग लगाया जाता है। मोदक का भी अपना दर्शन है। इसे मैत्री, वाणी की मिठास, व संगठन का प्रतीक माना जाता है।
वस्तुत: गणपति उत्सव एक सुंदर माध्यम है हमारे उस सार्वभौमिक शक्ति से जुड़ने का। इस उत्सव के लिए गणेश की मूर्तियों को बनाना भी एक प्रकार की पूजा है। इसे मिट्टी से बनाकर प्राकृतिक रंगों से रंगा जाना चाहिए। फूलों से सजाना चाहिए। एक समय था जब ये मूर्तियां नदियों की मिट्टी से बनायी जाती थीं और पूजन के समापन के बाद उन्हें नदियों- सरोवरों में ही प्रवाहित कर दिया जाता था।
लेकिन जब से विशाल आकार की मूर्तियां बनने लगीं और मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ़ पेरिस और रंगाई के लिए प्राकृतिक रंगों की जगह का रासायनिक रंगों का प्रयोग होने लगा; विध्नहर्ता के पूजन के इस पर्व में विध्नकारी तत्वों का समावेश शु डिग्री हो गया। यह अनुचित है। इस प्रवृति पर रोक लगनी ही चाहिए। पहले कुम्हार, गणेश की मूर्तियों को केवल श्रद्धा के लिए बनाते थे पर अब महंगाई की विवशता कहें, आस्था में कमी या लालच, मूर्ति निर्माण विशुद्ध व्यवसाय हो गया है।
दरअसल गणपति प्राकृतिक चक्रों से जुड़े हुए देवता हैं। उनके पूजन के लिए हमें प्राकृतिक तरीकों से बनायी गयी मूर्तियों को ही बढ़ावा देना चाहिए ताकि हम प्रतिमा को विसर्जित करने वाले जल का प्रयोग सिंचाई, बागवानी व अन्य कामों में दुबारा कर सकें।
इस तरह प्रतिमा की सजावट में प्रयोग होने वाले थर्माकोल और प्लास्टिक पर रोक लगानी चाहिए। हमें इन सभी चीजों से ऊपर उठकर अपने पर्यावरण को बचाने के लिए सार्थक पहल करनी चाहिए। हम ऐसे विकल्पों को चुनें जिससे सभी जगह सामंजस्य फैले और हमारे पर्यावरण को कोई क्षति न हो। भक्ति का यह मतलब नहीं है कि हमारे क्रियाकलापों से हमारा पर्यावरण दूषित हो। यदि हमने अपने घर में तो पूरे विधि-विधान से पूजा की लेकिन हम अपने आस पास की नदियों को प्रदूषण से बचाने को लेकर जागरूक नहीं हैं तो फिर विध्नहर्ता की उस पूजा का क्या फायदा