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मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षणभर जीवन मेरा परिचय- डॉ. हरिवंश राय बच्चन

suman
Published on: 26 Nov 2016 5:05 PM IST
मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षणभर जीवन मेरा परिचय- डॉ. हरिवंश राय बच्चन
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पूनम नेगी पूनम नेगी

लखनऊ: हिन्दी साहित्य की वीणा, सीधे सरल शब्दों को कविता के पात्र में डालकर साहित्य रसिकों को काव्य रस चखाने वाले हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने मानव जीवन में प्रेम, सौंदर्य, दर्द, दुख, और मृत्यु को अपने मखमली शब्दों में पिरोकर जिस खूबसूरती से पेश किया है, उसकी कोई और मिसाल हिन्दी साहित्य में नहीं मिलती। वे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में शुमार हैं। छायावाद की अतिशय सुकुमारिता और माधुर्य से, उसकी अतीन्द्रिय और अतिवैयक्तिक सूक्ष्मता आैर उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकताकर जब उन्होंने सीधी-साधी, जीवंत भाषा और सर्वग्राह्य गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से अपनी बात कहना शु डिग्री किया तो हिन्दी काव्य का रसिक सहसा चौंक पड़ा। इस नयी कविता ने कविता प्रेमियों के दिल को गहराई छू लिया क्योंकि वे उन्हें अपनी भावनाओं की सहज काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रतीत हुईं। डॉ. बच्चन के काव्य की विलक्षणता उनकी लोकप्रियता है। सामान्य बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का सर्वाधिक श्रेय निश्चित ही बच्चन जी को जाता है। इसके अतिरिक्त हिन्दी में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में भी बच्चन जी का असाधारण योग है।

डॉ. बच्चन अपनी काव्य-यात्रा के आरम्भिक दौर में उमर ख़ैय्याम के जीवन-दर्शन से खासे प्रभावित रहे। उनकी प्रसिद्ध कृति "मधुशाला" उमर ख़ैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित होकर ही लिखी। हालांकि डा. बच्चन का एक प्रकाशन "तेरा हार" पूर्व में प्रकाशित हो चुका था पर उन्हें लोकप्रियता 1935 ई. में प्रकाशित "मधुशाला" से ही मिली। "मधुशाला" के साथ ही उनका नाम एक गगनभेदी राकेट की तरह तेज़ी से उठकर साहित्य जगत पर छा गया। "मधुबाला", "मधुशाला" और "मधुकलश"; इन तीनों काव्यसंग्रहों के डा. बच्चन हिन्दी में "हालावाद" के प्रवर्तक बन गये। उमर ख़ैय्याम ने वर्तमान क्षण को जानने, मानने, अपनाने और भली प्रकार इस्तेमाल करने की सीख दी है, और बच्चन जी के "हालावाद" का जीवन-दर्शन भी यही है। उनके अनुसार यह पलायनवाद नहीं है, क्योंकि न इसमें वास्तविकता की अस्वीकृति है आैर न उससे भागने की परिकल्पना; प्रत्युत्त वास्तविकता की शुष्कता को अपनी मन की तरंगों से सींचकर हरी-भरी बना देने की सशक्त प्रेरणा है। निम्न पंक्तियों में कवि की यही मंशा स्पष्ट है-

मिट्टी का तन मस्ती का मन...

संसृति की नाटकशाला में

है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी

है पड़ा मुझे बनना प्याला

होना मदिरा का अभिमानी

संघर्ष यहां कितना किससे

यह तो सब खेल तमाशा है

वह देख, यवनिका गिरती है

समझा, कुछ अपनी नादानी !

छिपे जाएंगे हम दोनों ही

लेकर अपने अपने आशय

मिट्टी का तन, मस्ती का मन

क्षणभर, जीवन मेरा परिचय।

......

मृदु भावों के अंगूरों की

आज बना लाया हाला,

प्रियतम, अपने ही हाथों से

आज पिलाऊँगा प्याला,

पहले भोग लगा लूँ तेरा,

फिर प्रसाद जग पाएगा,

सबसे पहले तेरा स्वागत

करती मेरी मधुशाला

अपने युवाकाल में आदर्शों और स्वप्नों के भग्नावशेषों के बीच से गुजर रहे बच्चन जी ने पढ़ाई छोड़कर अपनी कलम से राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी भी की-

इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,

कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,

इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,

और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!

यह वह दौर था जब एक छोटे से स्कूल में अध्यापक की नौकरी करते हुए वे वास्तविकता और आदर्श के बीच की गहरी खाई में डूब-उतरा रहे थे। अभाव की दशा में वे पत्नी के असाध्य रोग की भयंकरता भी देख रहे थे। इस दौर में उनके दो काव्य संग्रह "निशा निमंत्रण" (1938 ई.) तथा "एकान्त संगीत" सामने आये। एक वर्ग इन्हें उनकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएं मानता है। समय के साथ उनका वैयक्तिक, व्यावहारिक जीवन बदला। अच्छी नौकरी मिली। "नीड़ का निर्माण फिर" से उन्होंने जीवन के इस नये मोड़ पर फिर आत्म-साक्षात्कार किया-

"जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से,

पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?

परम निर्मल मन से "बच्चन" ने स्वीकार किया है कि

है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनिया

सच में व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज साधारणीकरण वाकई दुर्लभ है। सामान्य बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रेय निश्चय ही सर्वाधिक "बच्चन" का ही है। इसके अतिरिक्त उनकी लोकप्रियता का एक कारण उनका काव्य पाठ भी रहा है। हिन्दी में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में "बच्चन" का असाधारण योग है। इस माध्यम से वे अपने पाठकों-श्रोताओं के और भी निकट आ गये। कविता के अतिरिक्त "बच्चन" ने कुछ समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं, जो गम्भीर अध्ययन और सुलझे हुए विचार प्रतिपादन के लिए पठनीय हैं। डा. बच्चन की कविता की लोकप्रियता का प्रधान कारण उसकी सहजता, संवेदनशील व सरलता है। वस्तुत: कवि के अहं की स्फीति ही काव्य की असाधारणता और व्यापकता बन गयी। समाज की अभावग्रस्त व्यथा, परिवेश का चमकता खोखलापन, नियति और व्यवस्था के आगे व्यक्ति की असहायता और बेबसी उनके व्यक्तिगत अनुभूति पर आधारित काव्य विषय थे। उन्होंने साहस और सत्यता के साथ सीधी-सादी भाषाशैली में सहज कल्पनाशीलता और सामान्य बिम्बों से सजा-सँवार कर अपने नये गीत "सतरंगिनी" (1945 ई.) और "मिलन यामिनी" (1950 ई.) हिन्दी जगत को भेंट किये आैर हिन्दी जगत ने उत्साह से उनका स्वागत किया।

बच्चन की परवर्ती रचनाओं के स्वर और उसकी भंगिमा में स्पष्ट परिवर्तन दिखाई पड़ता है। सूत की माला, चार खेमे, चौंसठ खूंटे आदि रचनाओं में वे "हालावाद" से निकल कर बाहरी दुनिया के दुख-दर्द से साक्षात्कार करते हैं।

जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं

जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा

मैं खड़ा हुआ हूं इस दुनिया के मेले में,

हर एक यहां पर एक भुलाने में भूला

इसी तरह महाप्राण निराला के देहांत के पश्चात उनके मृत शरीर को देखकर हरिवंशराय बच्चन की लिखी कविता "मरण काले" देखिए-

मरा

मैंने गरुड़ देखा,

गगन का अभिमान,

धराशायी,धूलि धूसर, म्लान!

हरिवंश राय जी की चार खण्डों में प्रकाशित बच्चन की आत्मकथा- "क्या भूलूँ क्या याद करूं", "नीड़ का निर्माण फिर", "बसेरे से दूर" और "दशद्वार से सोपान तक" कृतियां हिन्दी साहित्य जगत की अमूल्य निधि मानी जाती हैं। बच्चन जी ने उमर ख़्य्याम की रुबाइयों, सुमित्रा नंदन पंत की कविताओं व नेह डिग्री के राजनीतिक जीवन पर भी किताबें लिखीं। उन्होंने शेक्सपियर के नाटकों का भी अनुवाद किया। बच्चन जी की मुख्य कृतियां में मधुशाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, सतरंगिनी, विकल विश्व, खादी के फूल, सूत की माला, मिलन, दो चट्टानें व आरती और अंगार भी काफी लोकप्रिय है। 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के नजदीक प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव पट्टी में जन्मे हरिवंश राय बच्चन को भारत सरकार द्वारा सन् 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। साथ ही उन्हें उनकी कृति "दो चट्टानें" को 1968 में हिन्दी कविता के लिए "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही वे "सोवियत लैंड नेह डिग्री पुरस्कार" तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के "कमल पुरस्कार" से भी सम्मानित हुए। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें "सरस्वती सम्मान" दिया।

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