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शिव मंदिरों का विलक्षण वास्तु, वास्तुशिल्प के हैं अन्यतम प्रतीक

suman
Published on: 31 March 2017 1:40 PM IST
शिव मंदिरों का विलक्षण वास्तु, वास्तुशिल्प के हैं अन्यतम प्रतीक
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लखनऊ: शिव सर्वसामान्य के सर्वसुलभ देवता हैं। ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सभी को इसकी पूजा का समान अधिकार है। ये रुद्र भी हैं और भोले शंकर भी। भव्यतम भी और सरलतम भी। देवाधिदेव, महादेव, भूतभावन भगवान शंकर आदियोगी हैं। सृष्टि के कल्याण को कंठ में कालकूट धारण करने वाले नीलकंठ महानतम देव हैं। हिन्दू धर्म में इनकी सर्वाधिक महत्ता है। इन्हें लिंग स्वरूप व प्रतिमा दोनों ही रूपों में पूजा जाता है। देश में सर्वाधिक मंदिर भगवान शिव के ही हैं। लेकिन क्या आप इस अदभुत तथ्य से अवगत हैं कि केदारनाथ से रामेश्वरम तक देश में भगवान शिव के पांच ऐसे मंदिर हैं जो एक सीधी रेखा में स्थापित हैं। इसकी तस्कीद करता है यह चित्र जिसे देखकर आप हैरत में पड़े बिना न रह सकेंगे। इक्कीसवी सदी में आज हम अपने तकनीकी कौशल पर चाहे जितना इतरा लें लेकिन एक खड़ी लम्बी रेखा में निर्मित ये मंदिर वाकई हमारे अनुपम पूरा वास्तुशिल्प के अन्यतम प्रतीक हैं। ये पांच मंदिर हैं-

  1. श्री केदारनाथ मंदिर (उत्तराखण्ड)
  2. श्री कैलाशेश्वरम (तेलंगाना)
  3. एकम्बरेश्वर (तमिलनाडु)
  4. चिदम्बरम(तमिलनाडु)
  5. रामेश्वरम (तमिलनाडु)

खास बात यह है कि इन मंदिरों का विवरण पुराणों और हिन्दू धर्म ग्रंथों में मिलता है यानी ये मंदिर हजारों वर्ष पुराने हैं, फिर भी पूरी शान से खड़े हैं। एक अन्य रोचक तथ्य यह है कि जिस तरह सृष्टि की भांति हमारी दैहिक काया पंचतत्वों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) से निर्मित है उसी तरह तमिलनाडु में मंदिरों की नगरी के नाम से विख्यात कांचीपुरम के पांच मंदिर पंच तत्वों के मंदिर के रूप में समूची दुनिया में विख्यात हैं। सीधी उर्ध्व रेखा में निर्मित उपरोक्त पांचों मंदिरों में तीसरे स्थान पर धरती तत्व पर आधारित एकम्बरेश्वर मंदिर आता है और चौथे स्थान पर आकाश तत्व पर आधारित चिदंबरम नटराज मंदिर। बताते चलें कि जल तत्व पर टिका श्री तिरुवनैकवल मंदिर, वायु तत्व वाला श्रीकालाहस्ती मंदिर और अग्नि तत्व प्रधान श्री तिरुवन्नमलई मंदिर भी इन दोनों मंदिरों के निकट ही स्थापित हैं। सीधी पंक्ति वाले इन पांच मंदिरों में अंतिम स्थान है रामेश्वरम मंदिर का। आइए संक्षेप में चर्चा करते हैं विलक्षण भौगोलिक संरचना पर आधारित इन अनूठे शिव मंदिरों की।

ज्योतिर्लिंग केदारेश्वर

समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर स्थित द्वादश ज्योतिर्लिगों में शुमार उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग में अवस्थित केदारनाथ धाम का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में मिलता है। विचारणीय तथ्य है कि गिरिराज हिमालय के उतुंग केदार श्रृंग पर इस पुराणकालीन मंदिर का निर्माण किस तकनीक से हुआ होगा जो पांच साल पहले यानी 2013 में आयी महा प्रलयंकारी जल प्रलय में भी सुरक्षित रहा। क्या आज के वास्तुविद् के पास इस बात का कोई उत्तर है! सर्वोच्च केदारेश्वर ज्योतिर्लिंगदेश के प्रति श्रद्धालुओं की अनन्य आस्था है। शिव का यह मंदिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा भरतकुंड। यह मंदिर बर्फीले ग्लेशियर और ऊंची चोटियों से घिरा हुआ है, इस कारण सर्दियों के दौरान यह मंदिर बंद कर दिया जाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों के वंशज राजा जनमेजय ने कराया था तत्पश्चात विक्रम संवत 1076 से 1099 के मध्य मालवा के राजा भोज ने यहां वर्तमान स्थल पर कत्यूरी शैली में शिवमंदिर का निर्माण कराया। इसके बाद 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने इसका जीर्णोद्धार कराया व कुंड से निकालकर खंडित शिवलिंग की मंदिर में स्थापना की। गढ़वाल विकास निगम अनुसार मौजूदा मंदिर 8वीं शताब्दी का ही है। वर्तमान केदारनाथ मन्दिर 85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चौड़ा है इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। केदारनाथ कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग के हैं। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गयी, यह आश्चर्य की बात है। खासकर पत्थर के खंभों पर रखी विशालकाय छत। इस मंदिर में पत्थरों को एक-दूसरे में जोड़ने के लिए जिस इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया है, वह वाकई अनूठी है। यह मजबूत तकनीक ही मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है। हालांकि इस मंदिर का गर्भगृह अति प्राचीन है करीब 80वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में अर्धा के पास चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तंभ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। अर्धा, जो चौकोर है, अंदर से पोली है और अपेक्षाकृत नवीन बनी है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तंभों पर टिकी है। विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में अत्यंत कलात्मक मूर्तियां बनी हैं। कहते हैं कि 13वीं शताब्दी में छोटा हिमयुग से पूर्व यह मंदिर बन चुका था। इस दिव्य ज्योतिर्लिंग की स्थापना से जुड़े पौराणिक कथानक के अनुसार हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थना पर ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा सदा के लिए उस स्थान पर विराजमान हो गये। तब से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।

त्रिलिंगा के कैलाशेश्वर

सीधी उर्ध्व रेखा में स्थापित इन पंच शिव मंदिरों में दूसरा प्रसिद्ध मंदिर है तेलंगाना का कैलाशेश्वर मंदिर। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव तेलंगाना की जिन तीन पवित्र पहाड़ियों पर लिंगरूप में विराजमान हैं, उन त्रिलिंगों में कैलाशेश्वर शिव भी शामिल है। इसके अतिरिक्त अन्य दो मंदिर हैं श्रीशैलम के श्री मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर और द्राक्षारामा अर्थात दक्षिण की काशी। हम जानते हैं कि श्रीशैलम के श्री मल्लिकार्जुन मंदिर की गिनती द्वादश ज्योतिर्लिगों में होती है, मगर तेलंगाना के इस त्रिलंगा क्षेत्र की धर्मक्षेत्र के रूप में विशेष मान्यता है। इन्हें शिव के तीन नेत्र माना जाता है। एक अन्य मान्यता शिव के त्रिशूल से भी जुड़ी है। कहा जाता है कि इन आदिकाल में इन पहाड़ियों पर सुर व असुरों के मध्य महासंग्राम हुआ था जिसमें महादेव शिव ने अपनी लीला से भगवान विष्णु की मदद से आसुरी शक्तियों का संहार किया था । तभी वे यहां मृत्यु के देवता के रूप में मान्य हैं। गोदावरी के किनारे स्थापित इन त्रिलिंगों के कारण यह स्थान दक्षिण त्रिवेणी संगम के रूप में भी विख्यात है।

कांची के एकम्बरनाथ

मिलनाडु के कांचीपुरम का एकम्बरनाथ मंदिर इस सीधी रेखा का तीसरा व चिदम्बरम नटराज चौथा मंदिर है। खास बात यह है कि मंदिरों की नगरी कांची के ये दोनों प्रमुख शिव मंदिर क्रमश: पृथ्वी व आकाश तत्व पर आधारित हैं। बताते चलें कि जल तत्व पर टिका श्री तिरुवनैकवल मंदिर, वायु तत्व वाला श्रीकालाहस्ती मंदिर और अग्नि तत्व प्रधान श्री तिरुवन्नमलई मंदिर भी इन दोनों मंदिरों के निकट ही स्थापित है। पंच तत्वों के इस विशिष्ट मंदिरों के कारण यह स्थल "पंचस्थानम" के नाम से लोकप्रिय है। जरा विचार तो कीजिए कि कितनी उत्कृष्ट अवधारण है सृष्टि के पांच मूल तत्वों पर मंदिरों का निर्माण! ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार इन मंदिरों का निर्माण पल्लव शासकों ने कराया था। बाद में इसका पुनर्निर्माण चोल और विजयनगर के राजाओं ने करवाया। पृथ्वी तत्व की आधारभूत परिकल्पना वाले एकम्बरनाथ मंदिर का मुख्य आकर्षण इसके 1000 स्तम्भों का मंडप व कलात्मक मूर्तियां हैं। इसे दक्षिण भारत के सबसे ऊँचे मंदिरों में से एक माना जाता है। मार्च-अप्रैल में मनाया जाने वाला मंदिर का दस दिवसीय "पंगुनी उथिराम उत्सव" विशेष रूप से प्रसिद्ध है जिसमें शामिल होने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं।

चिदंबरम के नटराज

आकाश तत्व पर आधारित चिदंबरम मंदिर भगवान शिव के नटराज स्वरूप को समर्पित 40 एकड़ क्षेत्र में फैला अत्यधिक भव्य मंदिर है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने आनंद नृत्य की प्रस्तुति यहीं की थी, इसलिए इस जगह को "आनंद तांडव" के नाम से भी जाना जाता है। देश में बहुत कम मंदिर ऐसे हैं, जहां शिव व वैष्णव दोनों देवता एक ही स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। यह मंदिर ऐसा ही है। द्रविड़ मंदिर वास्तु शैली में निर्मित चिदंबरम का नटराज मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों में अद्वितीय एवं अप्रतिम माना जाता हैं। सातवीं शताब्दी से लेकर 16वीं सदी तक इस मंदिर के विकास में पांड्य, चोल, विजयनगर के नरेशों, स्थानीय महाजनों तथा जनगण का महत्वपूर्ण योगदान रहा, जिन्होंने मंदिर के स्तंभों और दीवारों पर नटराज की नृत्य मुद्रा की प्रतिमाओं को नाट्यशास्त्रीय आधार पर उत्कीर्ण कराया। चिदंबरम मंदिर में नटराज की तांडव नृत्य की 108 मुद्राएं भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में वर्णित भंगिमाओं का मूर्तरूप हैं। मंदिर में कई काँस्य प्रतिमाएँ हैं, जो सम्भवतः 10वीं-12वीं सदी के चोल काल की हैं। चिदंबरम के इस मंदिर में प्रवेश के लिए नौ मंजिले भव्य गोपुरम बने हैं। मंदिर के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह भारत के पांच सर्वाधिक पवित्र शिव मंदिरों में से एक माना है। मंदिर की मूर्तियां तांडव नृत्य करती है। कलाविशारदों के मुताबिक विश्व के साहित्य एवं कला के इतिहास में ऐसा कोई भी उदाहरण प्राप्त नहीं है, जिसमें शब्द को आधार मानकर उसके अर्थ की अभिव्यंजना प्रतिमा कला के रूपों में की गई है। नाट्यशास्त्र पर आधारित कला में चिदंबरम मंदिर में उत्कीर्णित नटराज की शताधिक नृत्य की भंगिमाओं का निर्माण साहित्य एवं कला की दृष्टि से अद्वितीय एवं कला की दृष्टि से अद्वितीय एवं अप्रतिम है। इन खंभों की अद्भुत कारीगरी देखकर विदेशी भी दंग रह जाते है।

रामेश्वरम

पंच शिवमंदिरों की इस पंक्ति का अंतिम मंदिर है रामेश्वरम। यह भी ज्योतिर्लिंगों में से एक है जिसकी स्थापना त्रेता युग में स्वयं भगवान राम ने की थी। साथ ही हिंदुओं का यह पवित्र तीर्थ जगदगुरु आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख धामों में से एक है। तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित इस मंदिर को दक्षिण की काशी की मान्यता प्राप्त है। रामेश्वरम मंदिर दक्षिण भारतीय निर्माण-कला और शिल्पकला का बेहतरीन उदाहरण है। मंदिर का प्रवेश-द्वार चालीस फीट ऊंचा है। मंदिर के अंदर सैकड़ों विशाल खम्भे है जो देखने में एक-जैसे लगते हैं परंतु पास जाकर बारीकी से देखने पर हर खंभे पर बेल-बूटे की अलग-अलग कारीगरी दिखती है। रामेश्वरम और सेतु बहुत प्राचीन है परंतु वर्तमान रामनाथ का मंदिर आठ सौ वर्ष पहले बना है। रामनाथ की मूर्ति के चारों और परिक्रमा करने के लिए तीन पथ बने हुए है। इन पथों की लंबाई चार सौ फुट से अधिक है। इस मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा माना जाता है। मंदिर में विशालाक्षी जी के गर्भ-गृह के निकट ही नौ ज्योतिर्लिंग हैं जो लंकापति विभीषण द्वारा स्थापित बताए जाते हैं। रामनाथ के मंदिर में लगे ताम्रपट से पता चलता है कि 1173 ईस्वी में श्रीलंका के राजा पराक्रम बाहु ने मूल लिंग वाले गर्भगृह का निर्माण करवाया था। उस मंदिर में अकेले शिवलिंग की स्थापना की गई थी। देवी की मूर्ति नहीं रखी गई थी, इस कारण वह नि:संगेश्वर का मंदिर कहलाया। यही मूल मंदिर आगे चलकर वर्तमान दशा को पहुंचा है। बाद में पंद्रहवीं शताब्दी में राजा उडैयान सेतुपति और निकटस्थ नागूर निवासी वैश्य ने 1450 में इसका 78 फीट ऊंचा गोपुरम निर्माण करवाया था। जिसके बाद में मदुरई के एक देवी-भक्त ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। सोलहवीं शताब्दी में दक्षिणी भाग के द्वितीय परकोटे की दीवार का निर्माण तिस्र्मलय सेतुपति ने करवाया था। इनकी व इनके पुत्र की मूर्ति द्वार पर भी विराजमान है। इसी शताब्दी में मदुरई के राजा विश्वनाथ नायक के एक अधीनस्थ राजा उडैयन सेतुपति कट्टत्तेश्वर ने नंदी मण्डप आदि निर्माण करवाए। नंदी मण्डप 22 फीट लंबा, 12 फीट चौड़ा व 17 फीट ऊंचा है। रामनाथ के मंदिर के साथ सेतुमाधव का मंदिर आज से पांच सौ वर्ष पहले रामनाथपुरम के राजा उडैयान सेतुपति और एक धनी वैश्य ने मिलकर बनवाया था।

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