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शक्ति संचय का पर्व है नवरात्रि,नारीशक्ति में ही निहित है संपूर्ण विश्व

Admin
Published on: 6 April 2016 8:49 AM GMT
शक्ति संचय का पर्व है नवरात्रि,नारीशक्ति में ही निहित है संपूर्ण विश्व
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लखनऊः भारतीय संस्कृति में नारी को सृजनात्मक शक्ति, मातृ शक्ति व दिव्य शक्ति के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है। शक्ति ही चेतना है, सौन्दर्य है, इसी में संपूर्ण विश्व निहित है। नारी शक्ति के इसी महत्व के कारण महालक्ष्मी विश्व की समस्त ऐश्वर्य संपदाओं की स्वामिनी, महासरस्वती समस्त विद्याओं की अधिष्ठात्री व महाकाली समस्त शक्तियों की मूलाधार मानी गयी हैं। इन्हीं शक्तियों से संयुक्त होकर ब्रह्मा-सृष्टिकर्ता, नारायण- जगत पालक और रुद्र- संहारक माने जाते हैं।

मार्कंडेय पुराण में वर्णित है भगवती की लीला

भारतीय संस्कृति का मूलाधार माने जाने वाले पौराणिक ग्रन्थों में व्यक्ति, धर्म, समाज व राष्ट्रधर्म का निर्धारण करने के लिए अलंकारिक भाषाशैली में विविध रोचक कथा प्रसंगों की संकल्पना की गयी है। इन्हीं में से एक अद्भुत ग्रन्थ है मार्कंडेय पुराण; जिसमें देवी भगवती की लीला विस्तार से वर्णित है। मार्कंडेय पुराण के "दुर्गा सप्तशती" अंश में भगवती दुर्गा की अभ्यर्थना पुरुषार्थ साधिका देवी के रूप में की गयी है। भगवती महामाया को परम शक्ति, ब्रह्मज्ञानरूपी, जगन्मूर्ति, नित्य एवं सर्वव्यापिनी शक्ति माना गया है। "दुर्गा सप्तशती" में उल्लेख मिलता है कि भगवती महामाया ने ब्रह्मा की स्तुति से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए। इसी समय भगवान विष्णु भी योगनिद्रा से जाग उठे और महामाया की शक्ति से सज्जित होकर उन्होंने मधु-कैटभ नामक असुरों का संहार किया।

मां दुर्गा को देवताओं ने प्रदान किए अस्त्र

सप्तशती में इन्हीं आद्यशक्ति देवी दुर्गा के बारे में उल्लेख मिलता है कि देवासुर संग्राम में पराजित देवताओं ने महाबली महिषासुर के अत्याचारों से मुक्ति के लिए जब त्रिदेवों की स्तुति की तो उन्होंने अपनी तप बल की शक्ति से एक तेजोमय नारीशक्ति को प्रकट किया, जिसके दिव्य प्रकाश से तीनों लोक आलोकित हो गए। समस्त देवगणों ने उन तेज स्वरूपा महाशक्ति देवी दुर्गा को अपने-अपने अमोघ अस्त्र प्रदान किए- शिव ने त्रिशूल, विष्णु ने सुदर्शन चक्र, वरूण ने शंख, अग्नि ने शक्ति, वायु ने धनुष बाण, इंद्र ने वज्र, यमराज ने कालदंड, काल ने तलवार, समुद्र ने दिव्य परिधान, विश्वकर्मा ने अभेद्य कवच एवं हिमवान ने सिंह देकर शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा को सुसज्जित किया।

इन्हीं महाशक्ति दुर्गा ने पाश्विक प्रवृत्तियों के प्रतीक महिषासुर का उसके मधु-कैटभ, चण्ड-मुण्ड, शुम्भ-निशुम्भ, धूम्र लोचन व रक्तबीज आदि असुर सेनानियों का नाश कर देवों को निर्भय किया। वस्तुत: देवी दुर्गा नारी शक्ति की अपरिमितता का द्योतक हैं। दुर्गा सप्तशती के 13 अध्यायों में इन्हीं महाशक्ति के द्वारा आसुरी शक्तियों के विनाश की कथा गाई गयी है।

पाश्विक प्रवृत्तियों का प्रतीक है महिषासुर

युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य "दुर्गा सप्तशती" में वर्णित मां जगदम्बा के महात्म्य की युगानुकूल व्याख्या करते हुए लिखते हैं, महिषासुर पाश्विक प्रवृत्तियों का प्रतीक है। ये पाश्विक प्रवृत्तियां जब-जब सिर उठाती हैं तब-तब संसार में हाहाकार मच जाता है। इस पशुशक्ति के समक्ष सब नत हो जाते हैं। ये पशु प्रवृत्तियां तभी प्रबल होती हैं, जब मानव समाज में सात्विकता व नैतिकता का हृास हो जाता है। जब शासक शक्ति अपने कर्तव्य से च्युत होकर भोग विलास, स्वार्थ एवं अधिकार मद के कारण विवेक शून्य हो जाती हैं, तब दानव शक्ति हावी हो जाती हैं। तब पाश्विक शक्ति रूपी महिषासुर के विनाश के लिए समस्त देव शक्तियों की एकीकृत महाशक्ति-रूपा मां दुर्गा का आवाहन किया जाता है।

इसे कहते हैं ब्राह्मी स्थिति

मां दुर्गा का वाहन सिंह बल का, शक्ति का, निर्भयता का प्रतीक है। उनके दस हाथ दसों दिशाओं में शक्ति संगठन के सूचक हैं। देवी दुर्गा दुर्गति नाशिनी हैं। समस्त दुखों का नाश करने वाली हैं। दुर्गा शब्द का यही निहितार्थ है। वह कल्याणमयी हैं, उनकी आराधना से नई शक्ति की उद्भावना होती है। इस कथा से प्रेरणा लेकर जो साधक नवरात्र के शुभकाल में भगवती की भावपूर्ण आराधना करते हैं, वे कर्म अभिमान से मुक्त रहते हैं, उनका जीवन शांत व निर्विघ्न व्यतीत होता है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है।

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शक्ति संचय की दृष्टि से है अति विशिष्ट

"रसौ वै स:" भारतीय तत्ववेत्ताओं ने जीवन को इसी रूप में परिभाषित किया है। ये अवसर जीवन में बार-बार आए, अनवरत आए और सदा-सदा के लिए बना रहें, इसीलिए हमारी देव संस्कृति में पर्वों का सृजन किया गया। निर्मल आनन्द के पर्याय में ये पर्व लोक जीवन को देव जीवन की ओर उन्मुख करते हैं। प्रस्तुत नवरात्र पर्व ऐसा ही एक देवपर्व है जिसे अध्यात्म के क्षेत्र में मुहुर्त विशेष की मान्यता प्राप्त है। ऋतु परिवर्तन की यह नौ दिवसीय अवधि साधना के द्वारा शक्ति संचय की दृष्टि से अति विशिष्ट मानी गयी है। आत्मिक प्रगति के लिए यूं तो किसी अवसर विशेष की बाध्यता नहीं होती लेकिन नवरात्र बेला में किये गये उपचार साधक के संकल्प बल के सहारे शीघ्र गति पा जाते हैं।

इन दिनों देव प्रकृति की आत्माएं अदृश्य दैवीय तरंगों से प्रेरित होकर आत्मकल्याण व लोकमंगल के क्रिया-कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं। सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह भी इन दिनों तेजी से उभरते व मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। चिंतन प्रवाह को अप्रत्याशित मोड़ देने वाली तरंगें भी इन नौ दिनों में विशेष रूप से उठती हैं। आज आम आदमी के पास न तो कड़ी तपश्या का समय है और न ही उतना सुदृढ़ मनोबल, लेकिन नौ दिनों की इस विशेष अवधि में जब वातावरण में परोक्ष रूप से देवी शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते हो, साहस जुटाकर संकल्पित साधना की जा सके तो सहज ही चमत्कारी परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।

भारतीय नववर्ष का होता है शुभारंभ

हमारे कृषि प्रधान देश में यूं तो छह ऋतुएं होती हैं किंतु अब मोटे तौर पर दो ही ऋतुएं मानी जाती हैं-शीत एवं ग्रीष्म। आध्यात्मिक दृष्टि से इनका शुभारम्भ वासंतिक व शारदीय नवरात्रों से होता है। ग्रीष्म यानी वासंतिक नवरात्र का आरंभ चैत्र मास से व शीत यानी शारदीय नवरात्र का आरम्भ अश्विन मास से होता है। ये दोनों ही महीने हमारी दो फसलों रबी व खरीफ के उत्पादन के भी सूचक हैं। इन्हीं दोनों अवसरों पर दो नवरात्रों की संकल्पना भारतीय वाड्ंमय में की गयी है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक वासंतिक नवरात्र एवं आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक शारदीय नवरात्र।

इस दौरान प्रकृति में परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है। हमारे तत्वदर्शी ऋषियों -मनीषियों ने ऋतु परिवर्तन की इस बेला में नव अन्न यानी नयी कृषि उपज के हवन के द्वारा मां शक्ति की साधना-आराधना का विधान बहुत सोच विचार कर बनाया। इसी अवधि से भारतीय नववर्ष (नवसंवत्सर) का भी शुभारंभ होता है। शक्ति की आराधना के साथ पुन: जीवन के एक नये वर्ष में प्रवेश की अवधारणा हैं। तनिक विचार करें, कितनी उत्कृष्ट सोच थी उनकी।

आज भी कायम है बलि की परंपरा

कतिपय स्थानों पर नवरात्र साधना के दौरान आज भी बलि की परंपरा कायम हैं। किन्तु हम इस पर तात्विक -वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि इसके पिछे मूल प्रयोजन पशु प्रवृत्ति की बलि देना है। इसी तरह नवरात्र साधना में पूजा-उपासना, व्रत एवं भोग के भी अपने भावार्थ हैं। केवल प्रतिमा के समक्ष बैठकर मंत्रपाठ कर लेने से पूजा की उपलब्धि नहीं होती। इसके लिए संकल्प एवं पुरुषार्थ दोनों आवश्यक होते हैं। इन्हें पाने के लिए व्रत लेना पड़ता है, पवित्र भावनाओं का स्मरण करना पड़ता है और उपवास के द्वारा चित्त की शुद्धि करनी पड़ती है। यदि इन बातों का ध्यान नहीं रख कर केवल कर्मकांड में लिप्त रहा गया तो हाथ कुछ नहीं लगेगा। साधना की सफलता के आकांक्षी प्रत्येक व्यक्ति को मां दुर्गा के पूजन के इस मर्म को समझना सबसे जरूरी है।

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