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रवीन्द्रनाथ टैगोर जयंती: अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी भी थे विश्व कवि

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Published on: 5 May 2016 1:54 PM IST
रवीन्द्रनाथ टैगोर जयंती: अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी भी थे विश्व कवि
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NEGI पूनम नेगी

लखनऊ: साहित्य के नोबल से सम्मानित रवीन्द्रनाथ टैगोर को दुनिया भर के लोग विश्व कवि के रूप में याद करते हैं। पर कम ही लोग जानते हैं कि कवि रवीन्द्र देशभक्त, अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी और भावनाशील भी थे। 19 अक्टूबर 1905 में तत्कालीन विदेशी शासक लार्ड कर्जन ने जब बंगाल को दो भागों में बांटने का फरमान जारी किया तो इसके विरोध में रवीन्द्र बाबू ने स्वदेशी समाज की स्थापना की। उनके नेतृत्व में लाखों लोगों का जुलूस बिधिर बंधन काटिवे तुम एमनि शक्तिमानष् ;क्या तुम ऐसे शक्तिशाली हो कि विधाता द्वारा निर्मित संबंध का भी विच्छेद कर दोगेद्ध गीत गाते हुए पूरे कोलकाता में घूमा आैर गंगा स्नान कर परस्पर राखी बांधकर प्रतिज्ञा की कि ऐसे अन्यायपूर्ण आदेश को कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा। रवीन्द्र बाबू के इस आंदोलन से जनता में जो नयी चेतना उत्पन्न हुईए वह अंततरू भारत को विदेशियों के पंजे से मुक्त कराकर ही समाप्त हुई।

उनके काव्य की सार्वभौमिक विशेषता

रवीन्द्र साहित्य और काव्य में ऐसी कई विशेषताएं हैं जो उन्हें सच्चे अर्थों में विश्व कवि बनाती हैं। उनके समकालीन किसी लेखक का कैनवास शायद ही इतना विस्तृत हो। उनकी सार्वभौमिक आैर सर्वकालिक लेखनी साहित्य प्रेमी लोगों के लिए खारा समुद्र न होकर मन मस्तिष्क को शीतल करने वाला क्षीरसागर है। मानव मन की निर्बलताएं उनके अस्तित्व और आशावादी मन को कभी आच्छादित नहीं कर पायीं। वे लिखते हैं कि नहीं मांगता प्रभु विपत्ति से मुझे बचाओ त्राण करो विपदा में निर्भीक रहूं मैं इतना हे भगवान करो।

गांधीजी और टैगोर का अद्भुत प्रेम

रविन्द्र बाबू की लेखनी उनके लिए सामाजिक प्रगति का प्रधान साधन तो थी ही वे इसके द्वारा राजनीतिक अन्याय के विरुद्ध भी आवाज उठाया करते थे। उनकी साहित्यिक कृतियां चाहे कविता, कहानी, उपन्यास या निबंध सभी कुछ मनुष्य के मानसिक स्तर को ऊंचा उठाने के उद्देश्य से लिखी गयी हैं। उनकी कविता में अध्यात्म भावना को बहुत थोड़े शब्दों में बेहद प्रभावोत्पादक रूप में व्यक्त किया गया है जो बापू को अत्यंत प्रिय थी। साबरमती आश्रम में ये कविता प्रार्थना के रूप में प्रतिदिन सुबह गायी जाती थी। महात्मा गांधी के साथ रवीन्द्रनाथ का बड़ा प्रेम था। बापू उन्हें गुरुदेव कहकर सम्बोधित करते थे।

7 मई 1861 को कोलकाता के सुप्रसिद्ध ठाकुर वंश में जन्मे रवीन्द्रनाथ का परिवार धन, मान विद्या और पदवी सभी दृष्टि से बंगाल के सर्वोच्च घरानों में गिना जाता था। पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर क्षेत्र के जानेमाने सुप्रतिष्ठित व्यक्ति थे। 14 भाई बहनों में सबसे छोटे रवीन्द्र ने मात्र 13साल की आयु से ही कविता लेखन शुरू किया था। साल 1973 में उपनयन संस्कार के बाद वे पिता के साथ हिमालय भ्रमण पर गये तो वहां के सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में इनकी काव्य रचना का प्रवाह आैर भी बढ़ गया

हिमालय से लौट कर स्कूली पढ़ाई में मन न लगा आैर काव्य सृजन में जुट गए। इस दौरान पढ़ाई से उनका मन हटते देख घरवालों ने उन्हें विदेश उच्च शिक्षा के लिए भेज दिया, लेकिन वहां भी उनका अधिकांश समय मिल्टन, वायरन, टेनीसन, शैली, कीट्स आदि की रचनाओं के अध्ययन में ही बीता। विदेश प्रवास के दौरान रवीन्द्र जी ने यूरोप के सामाजिक और सार्वजनिक जीवन का भी गहन अध्ययन किया। यूरोपवासियों की संपन्नता, साक्षरता ईमानदारी व समय की महत्ता आदि गुणों से वे काफी प्रभावित हुए।

सामजिक कुरीतियों ने किया व्यथित

विदेश से लौटने पर अपने देश की गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों को देख उनका कवि हृदय व्यथित हो उठा। उन्होंने बैलगाड़ी से देश भ्रमणकर देश के अन्नदाता कृषकों की दीन-हीन दशा को निकट से देखकर अपनी रचनाओं में उसका यर्थाथ चित्रण कर सरकार का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया। यही नहीं इस भ्रमण के दौरान अनेक गांवों में विद्यालय स्थापित किए गए। किसानों के लिए नहरे और कुएं खोदवाकर सिंचाई की सुविधाएं मुहैया कराई गईं।

कवि रवीन्द्र केवल कल्पना में उड़ने वाले कवि न थे। उनकी मान्यता थी देश की समस्याओं का हल महंगी पाश्चात्य शिक्षा के द्वारा नहीं बल्कि प्राचीन गुरुकुल परंपरा के पुनर्जीवन से ही हो सकता है। इसीलिए उन्होंने शांति निकेतन की बुनियाद रखी। दो छात्र और दो अध्यापकों को लेकर शुरू की गई। ये संस्था आज विश्वविख्यात है। उनका कहना था कि जिस तरह अमेरिका की कुछ संस्थाएं भारतीय छात्रों को विज्ञान और आधुनिक कला कौशल की शिक्षा दे रही हैं। उसी तरह भारत में भी कोई ऐसी संस्था बननी चाहिए, जहां सभी देशों के ज्ञानभिलाषी सम्मिलित रूप से भारतीय ज्ञान-विज्ञान की समन्वित शिक्षा पा सकें।

एक उत्कृष्ट राष्ट्रभक्त की उन्नतशील सोच

बंकिमचंद की बंगदर्शन मासिक रवीन्द्र बाबू की प्रिय पत्रिका थी। वे बंकिमबाबू को बांग्ला साहित्य का सबसे अच्छा समालोचक मानते थे। ये बंकिमबाबू के प्रति उनकी अनन्य श्रद्धा ही थी कि बंकिमचन्द्र द्वारा प्रकाशित बंगदर्शन मासिक पत्र जो उनके देहांत के बाद बंद हो गया था। रवीन्द्रनाथ ने 1901 में पुन: शुरू कराया।

रवीन्द्रनाथ का कहना था। बंकिमबाबू के बाद बांग्ला भाषा में कोई अच्छा समालोचक पैदा ही नहीं हुआ। उनकी समालोचनाएं बांग्ला साहित्य में अराजकता नहींं फैलने देती थीं। बंकिम बांग्ला साहित्य के राजा थे। रवीन्द्रनाथ के बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ ठाकुर भारती नामक मासिक पत्र निकालते थे जिसमें उन्होंने अपनी भानु सिंहरे पदावली नामक काव्य रचना छपवाई जो हाथोंहाथ बिक गयी।

सार रूप में कहें महाकवि रवीन्द्र संसार के ऐसे विरले महामानव हैं जिनका जन्म किन्हीं विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हुआ आैर अपनी निर्मल ज्योति से जिन्होंने पूरे संसार को प्रकाशित किया। महाकवि ने अपनी रचनाओं से भारतीय संस्कृति का जो मान बढ़ाया। उसके लिए देश का सम्पूर्ण साहित्य जगत उनका सदैव ऋणी रहेगा। साल 1913 में उनकी कृति गीतांजलि को साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला। इस कृति में वैष्णव कवियों की प्रेम भावना के साथ उपनिषदों के सर्वोच्च आध्यात्मिक विचारों का भावपूर्ण प्रस्तुतिकरण हैं जिसका गुणानुवाद आगामी पीढ़ियां सैकड़ों सालों तक करती रहेंगी। ऐसे महामानव को उनकी जयंती पर शत्-शत् नमन।



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