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साईंबाबा विजयादशमी को हुए थे महासमाधि में लीन, दिया था संसार को श्रद्धा-सबूरी का ब्रह्मास्त्र

suman
Published on: 10 Oct 2016 11:15 AM IST
साईंबाबा विजयादशमी को हुए थे महासमाधि में लीन, दिया था संसार को श्रद्धा-सबूरी का ब्रह्मास्त्र
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article by poonam negi on ganesh chaturthi पूनम नेगी

लखनऊ: जब समाज में जीवन मूल्यों का क्षरण होने लगता है आैर मानव समुदाय पथभ्रष्ट होने लगता है तब सच्चे संत ईश्वर के संदेशवाहक बनकर सही मार्ग दिखाते हैं। ऐसे सिद्ध संतों की श्रृंखला में शिरडी के सार्इंबाबा का नाम भी एक है। के पावन दिन 15 अक्टूबर 1918 को साईबाबा, महासमाधि लेकर भले ही इहलोक को विदा कह गये हों । किन्तु अपने भक्तों के मन में, अपने अनुयायियों के भावनालोक में आज भी जीवित हैं। उनकी श्रद्धा आैर सब्र, समूची मानवता को जीवन जीने की कला सिखाता है। साईंनाथ ने समूचे मानव समाज को श्रद्धा, ईश्वर आस्था आैर सबूरी, सब्र के रूप में ऐसे दो मंत्र दिये हैं जिन्हें यदि मानव समाज सच्चाई के साथ अपना ले तो उनके जीवन में सहज ही उजाला फैल सकता है।

कारण कि श्रद्धा हमेशा व्यक्ति को सही रास्ते की ओर ले जाती है। वहीं संयम से वह उस रास्ते पर टिका रह पाता है। शास्त्रों में उल्लेख है कि भक्त को भगवान से मिलाने की क्षमता केवल सच्ची श्रद्धा में ही है। ईश्वर आडंबर से नहीं, बल्कि सच्ची श्रद्धा से ही हासिल हो सकता है। श्रद्धा ही ईश्वर तक पहुंचने की सीढ़ी है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है श्रृद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्पररू संयतेंद्रियरू। अर्थात श्रद्धावान मनुष्य जितेंद्रिय साधक बनकर तत्वज्ञान प्राप्त कर सकता है। श्रद्धा के बिना विवेकहीन व्यक्ति संशयग्रस्त होकर पथभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है आैर न ही सुख है।

यह सच है कि श्रद्धा की शक्ति के बिना मानव शंकाओं में भटककर विवेकहीन हो जीवन के परम लक्ष्य से दूर हो जाता है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है। उसे उसी के अनुरूप परिणाम मिलता है। यह श्रद्धा ही है जो पत्थर को शिव बना देती है। इसीलिए श्रद्धा को भावनात्मक संबंधों की संजीवनी कहा गया है।

साईबाबा का दूसरा उपदेश है। सबूरी यानी सब्र या संयम का। आज हमारे भीतर संयम की मात्रा बहुत कम हो गयी है। हम अपने हर काम का परिणाम तत्काल चाहते हैं। हम अपनी हर इच्छा तुरंत पूरी होते देखना चाहते हैं। मगर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि संयम खो देने पर बड़े से बड़ा योगी भी पतित हो जाता है। साधारण बन जाता है। इसीलिए गीता में संयम का पाठ पढ़ाते हुए यह संकेत दिया गया है कि इंद्रियां बड़ी चंचल हैं। इनको जीतना अत्यंत कठिन हैए किंतु यह दुष्कर कार्य संयम के बल से किया जा सकता है। आज हमारी अधिकांश समस्याएं संयम के अभाव से ही उत्पन्न हुई हैं।

इस कारण हर व्यक्ति को अपने मनए वचन आैर कर्म तीनों पर संयम का अंकुश लगाने का प्रयास सतत करते रहना चाहिए। साईबाबा ने यही शिक्षा दी है कि सब्र का फल मीठा होता है। अतरू हर एक को सयंमशील बनना चाहिए। संयम का कवच हमें विपत्तियों के प्रहार से बचाता है। साई बाबा ने श्रद्धा के साथ सबूरी को जोड़कर हमें ऐसा ब्रह्मास्त्र दे दिया है। जिससे हम हर स्थिति में निपट सकते हैं। यह उपदेश मानव के लिए सफलता का वह महामंत्र है। जो हर युग में प्रासंगिक एवं जनोपयोगी बना रहेगा।

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