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आजकल हो रही है मस्जिद, मदरसा, मुसलमान और वोट बैंक की राजनीति
Syed Faizan Musanna
इस्लाम में शिक्षा के दो मुख्य प्रतीक मस्जिद और मदरसा हैं। मगर दुर्भाग्य से अब इनका नाम अशांत प्रतीको के तौर से जाना जाता है, हालांकि सच्चाई कुछ और है। इस्लाम की शुरुआत के दौर से भारत के आजाद होने तक मस्जिद और मदरसा शिक्षा-दीक्षा के लिए सभी समुदायों के एकत्र होने का स्थान था। मगर आज हालात इतने खराब हो चुके हैं कि बहुत से गैर मुस्लिमों ने तो वहां जाना ही त्याग दिया है। इस्लाम के यह ऐसे दो प्रमुख केंद्र थे जहां लोग बिना धार्मिक भेद भाव के शरण लेते थे। कहा जाता है कि रामचरित मानस के लेखक तुलसीदास ने भी मस्जिद में ही शरण ली थी।
मगर अब लोग इन स्थानों को तलाश करने के बजाए, बचने लगे हैं। पाकिस्तान और भारत में अब मस्जिद में जाने से पहले लोग यह मालूम करना जरूरी समझते हैं कि अमूक मस्जिद किस मुस्लिम संप्रदाय का है। रही सही कसर मदरसों ने पूरी कर दी मुसलमानों के बीच आपस में पनप रहे विचारधारात्मक नफरत के पेड़ को खाद, पानी और हवा दे कर। आगे चलकर यही विचारधारात्मक नफरत आतंकवाद का रूप ले लेती है।इन इस्लाम विरोधी कृत्यों के विरोध को, आतंकवाद के समर्थक इस्लाम विरोधी कह कर नकार देते हैं।
मस्जिद शब्द की उत्पति अरबी भाषा के सजदा शब्द से हुई है। खुदा के सामने सजदा इस्लाम में इबादत का प्रमुख अंग है, इसलिए मुसलमान मस्जिद में ही इबादत करते हैं। वहीं इस्लाम के उदभव के समय से ही मस्जिद ने मुसलमानों के सामुदायिक केंद्र का रूप ले लिया था। मुसलमान यहीं एकत्र हो कर अपने सामूहिक निर्णय लिया करते थे। जब मदीना ने औपचारिक रूप से प्रथम इस्लामी राज्य का दर्जा प्राप्त कर लिया तब मस्जिद को समाज में और भी अधिक अहम भूमिका प्राप्त हो गई थी।
औरत और मर्द दोनो ही मस्जिद में इबादत करते थे, और इस्लाम के आखिरी रसूल के उपेदशों को सुनते थे। शहर में आए अजनबी भले ही वो मुसल्मान ना हों, को भी मस्जिद में इस शर्त के साथ पनाह मिलती थी कि वो इसकी पवित्रता की शर्तों का उल्लंघन नहीं करेगें। उस समय के बुद्धिजीवी भी मस्जिदों में लोगों से संपर्क करते थे। मुस्लिम समाज की सामाजिक और धार्मिक जिंदगी मस्जिदों के इर्द गिर्द ही घूमती थी।
इस्लाम की शुरूआत में मदरसा और मस्जिद साथ ही होते थे। मदरसों में शिक्षा की शुरूआत कुरान, प्रारंभिक गणित और अरबी भाषा के ज्ञान के साथ होती थी। इस्लामी मान्यता के अनुसार कुरान एक आसमानी किताब है और अल्लाह ने इसे मुसल्मानो को तोहफे रूप में दिया है। जाहिर है कि तोहफा अलमारी में सजाने के लिए नहीं बल्कि इस्तेमाल करने के लिए होता है और किताब का उपयोग पढ़ने के लिए होता है।
इस्लाम में शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है। खुद आखिरी नबी ने मुसलमानों को बाध्यकारी आदेश दिया है कि वो ज्ञान अर्थात शिक्षा हासिल करें। मदरसों में उच्च शिक्षा अथवा बाद की ऊंची कक्षाओं में कुरान के साथ-साथ विज्ञान के तमाम विषय, गणित, सामजिक विज्ञान, समाजशास्त्र, भूगोल आदि तमाम महत्वपूर्ण विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
उस समय एक स्टूडेंट को मदरसे में कम से कम 16 साल गुजारने पड़ते थे तब कहीं जाकर उसको समाज में अपनी बात कहने, बहस करने अथवा शिक्षक बनने की इजाजत मिलती थी। उस समय के मदरसों को आधुनिक विश्वविद्यालय जैसी हैसियत हासिल थी, इन्ही मदरसों से शिक्षा प्राप्त अरब जगत के बहुत से विश्वविख्यात वैज्ञानिक व विचारक दुनिया को मिले हैं।
वर्तमान में इस्लाम के यह दोनो ही केंद्र वास्तु के एतबार से तो ठीक वैसे ही हैं जैसे की शुरूआत में थे। मगर उनकी आत्मा कहीं ना कहीं मरती जा रही है। यदि एक संप्रदाय का व्यक्ति दूसरे फिरके के कब्जे वाली मस्जिद में नमाज पढ़ ले तो खून-खराबे की नौबत आ जाती है।
इस्लाम के इन दोनों प्रतीक चिंहों की आत्माएं अब कूच कर चुकी हैं। इनके वास्तु में तो कोई परिर्वतन नहीं आया है मगर अब यहां से मौलवी अपने ही मुसलमानों के विभिन्न संप्रदायों में नफरत भड़काने का काम करता है। चूंकि इन मौलवियों के पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं होता इसलिए यह उन मदरसों और मस्जिदों की प्रबंध समितियों के कृपा पात्र होते हैं। जबकि अधिकतर मस्जिदें वक्फ बोर्ड और मदरसे अपने प्रदेशों के मदरसा बोर्ड के अधीन होते हैं। ये किससे छुपा है कि वक्फ बोर्ड और मदरसा बोर्ड राजनीति का अखाड़ा होते हैं।
जिस राजनैतिक दल की सरकार होती है इन संस्थाओं पर उन्ही दलों के चुनाव ना जीत पाने वाले चाटुकार मुस्लिम पोस्टर छाप नेताओं का कब्जा होता है और ये अपने आकाओं के इशारे पर इन निरीह मौलवियों को रोजा इफ्तार पार्टी, राजनैतिक सम्मेलनों, मुस्लिम प्रतिनिधि के तौर अथवा मन की बात पहुंचाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। लखनऊ के एक विश्वविख्यात मदरसे के स्टूडेंट्स ने एक बार मुझसे संपर्क किया और बताया कि उन्होंने सरकारी स्कूलों में उर्दू टीचर पद के लिए आवेदन किया था तो विभाग ने उन्हें बताया कि उनका चयन इस कारण नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने जो डिग्री और अंक तालिका अपने प्रार्थना पत्र में दी है उसमें ऊर्दू विषय अंकित नहीं है।
मैने जब मदरसे से पूछा तो पता चला कि उनका शिक्षा का माध्यम तो उर्दू है मगर विषय नहीं है। मदरसे के स्टूडेंट्स के भविष्य से खिलवाड़ को अब हर हाल में रोकना होगा। क्या अच्छा होता कि मदरसे के स्टूडेंट्स को अपनी रोजी-रोटी के लिए नमाज पढ़ाने अथवा कुरान पढ़ाने पर निर्भर ना होकर किसी पेशेवर तालीम में पांरगत होते और उसको अपनी आय का साधन बनाते। कम से कम दाढ़ी और टोपी का राजनीतिकरण तो रूक जाता। मुसलमानों को वोट बैंक कहकर उसकी आलोचना करने वाले यदि सचमुच गंभीर हैं तो उन्हें मदरसों को फिर से पैगंबर-ए-इस्लाम की कल्पना वाला मदरसा बनाना होगा।