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कांग्रेस में पीके पर पॉलिटिक्स, राहुल सोनिया के गढ़ में है नो एंट्री
लखनऊ: अपनी नैया पार लगाने के लिए कांग्रेस ने भले ही यूपी और पंजाब के लिये पीके (प्रशांत किशोर) को हायर किया हो, लेकिन वह भी कांग्रेस में पॉलिटिक्स का शिकार हो गए हैं। पूरे प्रदेश में कांग्रेस को जिंदा करने का बीड़ा उठाने वाले पीके को कांग्रेस ने सोनिया राहुल के गढ़ में काम करने से रोक दिया है ।
प्रवक्ता अमरनाथ अग्रवाल बताते हैं कि पार्टी नेतृत्व का मानना है कि जो काम पीके करने वाले हैं, वह काम वहां पर प्रियंका गांधी के नेतृत्व में पहले से हो रहा है। लिहाजा वहां पर पीके खुद को फोकस न करें। अब बाकी के जिलों का हाल क्या होगा? यह तो मतदाता और वक्त ही तय करेगा।
वहीं कांग्रेस आलाकमान द्वारा प्रदेश के विधान सभा चुनाव मे पीके को पॉवर देने के मामले को न तो आसानी से कांग्रेसी ही हजम कर पा रहे हैं और न ही राजनीति विज्ञान के पुरोधा। आठ साल तक प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता रहे प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने कहा कि कांग्रेस आलाकमान ने यूपीसीसी को किराए पर दे दिया है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव विचारधारा, नीतियों कार्यकर्ताओं के अलावा नेतृत्व पर हारे या जीते जाते हैं। किराए के लोगों से काम नहीं चलता, अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा करना पड़ता हैं ।
कुछ इसी तरह की प्रतिक्रया कांग्रेस में भी दिखाई देती हैं। लेकिन पीके का फैसला राहुल गांधी का है। इसलिए कोई इस पर ऐतराज तो नहीं जाहिर कर पा रहा है, लेकिन गाहे बगाहे सवाल उठ ही दे रहे हैं। हाल ही में जमीनी हकीकत का जायजा लेने दौरे पर गई पीके की टीम का जहां इलाहाबाद में आंतरिक स्तर पर विरोध हुआ, तो वहीं वाराणसी में तो कांग्रेसी आपस में ही भिड़ गए और जमकर लात घूंसे चलाए।
इसके अलावा यूपीसीसी के नेताओं की सबसे बड़ी समस्या अपने आगामी संकट को लेकर है कि विधान सभा चुनाव में यूपीसीसी में पीके की भूमिका क्या रहने वाली है क्योंकि अभी तक जो भी हुआ, उससे कांग्रेसियों में यह डर बैठने लगा है कि कहीं हम किनारे तो नहीं किये जा रहे। इस समय कांग्रेसी जिसे सबसे बड़ी चूक मान रहे हैं। वह यह कि जमीनी हकीकत का जायजा लेने जा रही टीम पीके के साथ कांग्रेस नेतृत्व के किसी भी पदाधिकारी का साथ होना जरुरी था, क्योंकि बाहर के लोग कहने लगे हैं कि पीके कांग्रेसियों से ऊपर हो गए हैं। इसके साथ ही अब बहस का जो सबसे अहम मुद्दा है। क्या सच में पीके ही मोदी और नीतीश कुमार की जीत के नायक थे?
अगर दोनों चुनावों पर गौर करें, तो लोक सभा में चुनाव में विपक्ष के पास सैकड़ों मुद्दे थे। जिसका जवाब रूलिंग पार्टी के पास नही था। कांग्रेस शासन में एक के बाद के कई घोटाले सामने आए, जो जल, जंगल जमीन और आसमान सभी से जुड़े हुए थे और सभी घोटाले लाखों करोड़ के। इन घोटालों का अर्थशास्त्र विपक्षी पार्टियां मतदाताओं को समझा ले गई। जिसका नतीजा रहा एनडीए गठबंधन के साथ मोदी ने सरकार बनाई।
कुछ ऐसा ही हाल बिहार चुनाव में भी रहा, जहां बीजेपी बयानवीरों में गलत में समय आरक्षण और बीफ का मुद्दा छेड़ दिया। इस मुहीम में पुरस्कार वापसी और असहिष्णुता ने भी बीजेपी के फेवर में बहने वाली बयार को रोक दिया। एक तरफ जहां आरक्षण पर मोहन भागवत का बयान, तो दूसरी तरह बीफ पर पर सख्त कानून बनाने की घोषणा ने पिछड़ों और मुस्लिमों को एक साथ बीजेपी के विपक्ष में लेकर चला गया। बिहार जैसी पिछड़ी जाति से जुड़ी आबादी वाले प्रदेश में चुनाव के समय आरक्षण जैसे मुद्दे को उठाना ही बीजेपी के लिए सबसे बड़ी गलती साबित हुई क्योंकि बिहार के जातीय गणित के मुताबिक बिहार में सवर्ण जातियां 25 फीसदी से कम हैं और पिछड़ी जातियां अकेले 50 फीसदी। इतना ही नहीं सीटों के लिहाज से बीजेपी ने बिहार में भले ही 53 सीटें जीत पाई हो, लेकिन वोट परसेंट के लिहाज से वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। बिहार विधान सभा चुनाव मे उसे 24.4 फीसदी वोट मिले थे।
ऐसे में अब कांग्रेसी नेताओं का एक डर से सबसे सतह पर है वह यह है कि इस विपरीत परिस्थिति किसी भी तरह पीके को साथ लेने से कोई कमाल हो गया, तो आलाकमान उनकी राजनैतिक हैसियत को सिरे से नकार देगा। उससे भी बड़ी बात यह कि अगर पीके रायबरेली और अमेठी में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के चुनाव रणनीति को समझ गए और उसमे सेंधमारी कर ली, तो अगले चुनाव में किसी और पार्टी का साथ देने पर वह उन दोनों सीटों पर गांधी परिवार के लिए खतरा बन सकते हैं।