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समय-समय पर क्षेत्रीय दलों ने दिखाई कांग्रेस को हैसियत, UP में वजूद का इम्तिहान
vinod kapoor
लखनऊ: यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी से सीटों का तालमेल या गठबंधन होते-होते रह गया। राजनीतिक हलकों में बड़ा सवाल ये है कि क्या ये कांग्रेस के लिए शुभ संकेत है।
देश के जिन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व बढ़ा वहां-वहां कांग्रेस उन दलों की पिछलग्गू बनकर रह गई। चाहे वो तमिलनाडु हो या आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार या फिर ताजा मामला यूपी का ही क्यों न हो।
सपा ने कांग्रेस को दिखाई औकात
सपा ने यूपी में कांग्रेस को उसकी औकात भी बताई और कहा कि हैसियत तो मात्र 54 सीटों की थी लेकिन गठबंधन हो इसलिए 94 सीटें दी जा रही थी। इसके बावजूद कांग्रेस की ओर से पॉजिटिव रिस्पांस नहीं मिल रहा था। लिहाजा सपा सभी सीटों पर चुनाव लड़ने को अब तैयार है। सपा ने गठबंधन के औपचारिक नियमों का भी ध्यान नहीं रखा और वैसी सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए, जो पिछले चुनाव में कांग्रेस ने जीती थी।
सपा की नजर मुस्लिम वोटों पर थी
समाजवादी पार्टी मानकर चल रही थी कि पार्टी में बिखराव के कारण मुस्लिम वोट छिटककर बहुजन समाज पार्टी के पास जा सकता है। इसलिए सीएम अखिलेश यादव, कांग्रेस के साथ गठबंधन के उत्सुक थे। लेकिन अब जब पार्टी में सब ठीक हो गया है, तो संभवत: अब उन्हें कांग्रेस की जरूरत दिखाई नहीं दे रही।
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...तो ये थी अखिलेश की तरकीब
अखिलेश का मानना था कि 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके 29 प्रतिशत से ज्यादा और कांग्रेस को मिले 11 प्रतिशत के आसपास वोट मिल जाएंगे, तो आसानी से सत्ता की चाबी उनके पास कायम रहेगी। इसीलिए अखिलेश लगातार कांग्रेस के साथ गठबंधन के बाद तीन सौ सीटें जीतने की बात करते रहे थे। अखिलेश अब मान रहे हैं कि मुसलमान जो पार्टी के परंपरागत मतदाता हैं वो छिटककर कहीं नहीं जाएंगे। सपा के लगभग चार महीने के दुर्दिन काल में बसपा की प्रमुख मायावती लगातार मुसलमानों को ये संदेश दे रही थीं कि यदि वो सपा के साथ जाएंगे तो यूपी में बीजेपी की सरकार बन जाएगी।
बिहार चुनाव में जीतकर भी हारी कांग्रेस
कांग्रेस बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा बनी और उसे 40 सीटें लड़ने को मिली। उसने इसमें 24 सीटें जीत ली, लेकिन ये जीत पार्टी की नहीं थी बल्कि महागठबंधन का हिस्सा होने के कारण मिली थी। कांग्रेस ने बिहार में 24 सीटें जीत तो लीं लेकिन नुकसान ये हुआ कि बाकी बची लगभग दो सौ सीटों से वो पूरी तरह बाहर हो गई। उन विधानसभा सीटों के कांग्रेस के नेता या कार्यकर्ता किसी और पार्टी से जुड गए या घर बैठ गए।
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गठबंधन क्यों जरूरी नहीं कांग्रेस के लिए
संभवतः ऐसा ही सपा के साथ तालमेल के कारण यूपी में होता। यदि कांग्रेस 94 सीटों पर राजी हो जाती तो वो इसी सीटों तक सिमटकर रह जाती। 300 से ज्यादा सीटों पर उसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाता। 300 से ज्यादा सीटों पर खड़े अस्तित्व के संकट का नुकसान उसे दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में होता। मान लें कि सपा के साथ गठबंधन में कांग्रेस 40 से 50 सीटें जीत जाती लेकिन क्या ये काफी होता। इससे पहले भी कांग्रेस अन्य राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करती रही है। चाहे पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस हो या तमिलनाडु में डीएमके या एडीएमके। लेकिन इन राज्यों में उसे पिछलग्गू बनकर रह जाना पड़ा था।
बेहतर हो कांग्रेस अकेले लड़े चुनाव
कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर लगातार गठबंधन का प्रयास करते रहे थे लेकिन उनका प्रयास विफल हो गय । वो कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता नहीं हैं ।उनकी कोशिश या ये कहें कि काम कांग्रेस के लिए अच्छा परिणाम देने की थी ।
दिनोंदिन घटती गई कांग्रेस की सीटें
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि हो सकता है कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव जितनी ही सीटें मिले या उससे भी कम। लेकिन भविष्य में मेहनत कर अपनी हालत सुधाारने का मौका होगा, जबकि गठबंधन का हिस्सा बनने के बाद उसके लिए आगे की रहें मुश्किल होगी। केंद्र में लगभग 60 साल तक राज करने वाली पार्टी इस तरह बेइज्जत होकर गठबंधन में शामिल हो ये भी ठीक नहीं है।