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बात-बात पर हंगामा करने वाली ममता बनर्जी अपने राज्य के हालात पर चुप क्यों हैं?

aman
By aman
Published on: 18 Dec 2016 3:20 PM IST
बात-बात पर हंगामा करने वाली ममता बनर्जी अपने राज्य के हालात पर चुप क्यों हैं?
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बात-बात पर हंगामा करने वाली ममता बनर्जी अपने राज्य के हालात पर क्यों है चुप? vinod kapoor

लखनऊ: नोटबंदी को लेकर पूरे पश्चिम बंगाल में तूफान मचाने वाली ममता बनर्जी अपने राज्य में लगातार हो रहे सांप्रदायिक दंगे को लेकर चुप्पी साधे हैं। नोटबंदी के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देने, प्रेसिडेंट से मुलाकात करने, उत्तर प्रदेश ओर बिहार में प्रदर्शन कर चुकी ममता अपने राज्य में राजधानी के पास के इलाके को क्यों नहीं संभाल पा रही हैं। ये सोचने वाली बात है जो बंगाल की कानून व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा करती है।

सेना तैनाती पर मचाया था बवाल

कुछ दिन पहले ही ममता ने बंगाल में सेना की नियमित कवायद पर बवाल खड़ा कर दिया था। बात को बढ़ाकर यहां तक पहुंचा दिया कि वो सचिवालय में अपने कार्यालय में कैद हो गईं। उनका हंगामा यहीं नहीं थामा, यहां तक कह दिया कि जब तक सेना बंगाल से बाहर नहीं जाती, वो कार्यालय से नहीं निकलेंगी। सेना के नियमित अभ्यास को उन्होंने बंगाल में केंद्र की ओर से सेना की तैनाती करार दिया था। हालांकि सेना के नियमित अभ्यास पर अब तक किसी राज्य सरकार ने सवाल नहीं उठाए थे। ममता बनर्जी पहली चीफ मिनिस्टर हैं जिन्होंने इसके राजनीतिकरण का प्रयास किया।

ईद-ए-मिलाद के जुलूस ने किया था बवाल

बीते 12 दिसंबर को ईद-ए-मिलाद थी। मोहम्मद साहब का जन्मदिन। इसे मुसलमान खुशियों से मनाते हैं। जुलूस निकाले जाते हैं और खुशियां बांटी जाती हैं। लेकिन बंगाल के हावडा जिले के धुलागढ़ में जो चार दिनों तक होता रहा, वो शर्मसार कर देने वाला था। ईद-ए-मिलाद तो 12 दिसंबर को था लेकिन धुलागढ़ में जुलूस 13 दिसंबर की रात निकला। यह जुलूस दूसरे समुदाय और संप्रदाय के लोगों के धरों, दुकानों और धार्मिक स्थलों पर कहर बनकर टूटा।

जुलूस ने मूर्तियां तोड़ी, घर लूटे

जुलूस में शामिल लोगों ने धार्मिक स्थल पर बम फेंके। मानों मूर्तियों ने उनका कुछ बिगाड़ दिया हो या उनके रास्ते में कांटे बिछा दिए हों। या जुलूस के रास्ते पर कचरा डाल दिया हो। लोग डरे अपने घरों में दुबके रहे। इस दौरान घरों को लूटा गया ओर दुकानों में आग लगा दी गई। आमतौर पर दंगों में दोनों ओर से हमले किए जाते हैं। लेकिन 13 से 16 दिसंबर तक धुलागढ़ में हुए हादसों में ऐसा कुछ नहीं था।

पुलिस ने नहीं की रिपोर्ट दर्ज

दूसरी ओर से तो कोई प्रोवोकेशन था ही नहीं। पीड़ित पक्ष को पुलिस के पास जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। गए तो पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और ये मानने से भी इंकार कर दिया कि कोई लूट, आगजनी की घटना हुई है।

विरोध करने वालों पर हुए हमले

मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रसुन्न मित्रा कहते हैं, कि ईद-ए-मिलाद का जुलूस 12 के अलावा 13 दिसंबर को भी निकला। जुलूस में तेज म्युजिक बज रहा था। जब कुछ लोगों ने म्युजिक की आवाज कम करने विनती की तो उनपर धारदार हथियार से हमला कर दिया गया। पांच दुकानें लूट ली गईं। मंदिरों में बम फेंके गए। उनका कहना है कि ऐसी ही घटना मल्लारपुर और बीरभूम जिले में भी हुई। इसके अलावा भी मुर्शिदाबाद ,हुगली, हावड़ा,24 परगना और मिदनीपुर में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाएं हो चुकी थी।

धार्मिक मौकों पर पहले भी हो चुकी है घटनाएं

प्रसुन्न मित्रा कहते हैं कि 'बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार बनने के बाद ये पहली घटना नहीं है। इससे पहले दुर्गापूजा पर भी सांप्रदायिक तनाव और हिंसा की घटनाएं हो चुकी हैं। दुर्गापूजा और मुहर्रम एक-दो दिन के अंतराल में होने के कारण ममता ने प्रतिमा विसर्जन की समय सीमा तय कर दी थी। ये फरमान जारी कर दिया गया था कि मूर्तियों का विसर्जन शाम चार बजे तक ही हो सकता है जबकि दिन में होने वाली भीड़ और लोगों की परेशानी को देखते हुए पूजा कमेटी रात में विसर्जन करती है।'

ममता के पास विवाद रोकने का कोई हाल नहीं

ममता ऐसा कोई रास्ता नहीं खोज सकीं कि प्रतिमा विसर्जन और मुहर्रम के जुलूस में कोई विवाद नहीं हो।हालांकि कुशल प्रशासनिक समझ से इसका हल निकाला जा सकता था लेकिन सीएम ममता बनर्जी ने ऐसा नहीं किया। सभी जानते हैं कि दुर्गापूजा बंगाल का सबसे बड़ा त्योहार है। पूरे देश में बसे बंगाली इस मौके पर अपने घर जरूर आते हैं। ये मुसलमानों की ईद की तरह का त्योहार है बंगालियों के लिए।

ममता पर तुष्टीकरण की राजनीति का आरोप

समय-समय पर ममता पर आरोप लगते रहे हैं कि वो तुष्टीकरण की राजनीति करती हैं। ये भी सच है कि चुनावों में मुसलमानों का मिलने वाले वोट का प्रतिशत हर बार उनके लिए बढ़ जाता है। बंगाल के विधानसभा चुनाव में उन्हें 18 प्रतिशत मुस्लिम मत मिले थे जो 2014 लोकसभा चुनाव में बढ़कर 40 फीसदी तक पहुंच गया।

दंगों से मिलता रहा है राजनीतिक लाभ

किसी भी राज्य सरकार के लिए सांप्रदायिक हिंसा उसके माथे पर लगा ऐसा दाग होती है जिसका धुलना मुश्किल होता है। जैसे कि उत्तर प्रदेश का 2013 में हुआ मुजफ्फरनगर का दंगा। इसे आजादी या विभाजन के बाद का सबसे बड़ा दंगा माना गया। करीब 50 हजार लोग महीनों तक शरणार्थी शिविरों में रहे थे जो डर से घर जाने के लिए तैयार नहीं थे। दंगे में दोनों पक्ष के करीब 70 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इस दंगे का राजनीतिक असर ये हुआ कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 80 में से अपने सहयोगी अपना दल के साथ मिल 73 सीटें जीत गई थी ।

दंगे खड़े करते हैं मशीनरी पर सवाल

सांप्रदायिक दंगे अक्सर राजनीति पर असर डालते हैं क्योंकि जो इस दंश को झेलता है वो इसे भूल नहीं पाता।संभवत: सांप्रदायिक दंगे से गुजर गए बंगाल के लोग भी इसे नहीं भूल पाएंगे। लेकिन ऐसी घटनाएं राज्य सरकार की मशीनरी पर सवाल खडा करती है और ये भी दिखाती है कि ऐसी घटनाओं से निपटने में सरकारें कैसी इच्छाशक्ति दिखाती हैं जिसमें अभी तक तो ममता फेल नजर आती हैं।



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Content Writer

अमन कुमार - बिहार से हूं। दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई और आकशवाणी से शुरू हुआ सफर जारी है। राजनीति, अर्थव्यवस्था और कोर्ट की ख़बरों में बेहद रुचि। दिल्ली के रास्ते लखनऊ में कदम आज भी बढ़ रहे। बिहार, यूपी, दिल्ली, हरियाणा सहित कई राज्यों के लिए डेस्क का अनुभव। प्रिंट, रेडियो, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया चारों प्लेटफॉर्म पर काम। फिल्म और फीचर लेखन के साथ फोटोग्राफी का शौक।

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