×

राजनीति में समय के साथ बदलते रहे 'महंगाई' के रंग और बदलता रहा नाम

aman
By aman
Published on: 6 Nov 2016 3:57 PM IST
राजनीति में समय के साथ बदलते रहे महंगाई के रंग और बदलता रहा नाम
X

vinod kapoor vinod kapoor

लखनऊ: मनोज कुमार की फिल्म रोटी, कपड़ा और मकान के गाने की लाइन थी 'हाय महंगाई, तुझे क्यों मौत न आई।' इसी तरह पीपली लाइव का गाना 'सईंया तो खूब कमात है, महंगाई डायन खाय जात है...।'

पहले शोर मचाने वाले अब शांत क्यों?

महंगाई को कभी डायन कहा गया तो कभी उसकी मौत की कामना की गई, लेकिन राजनीति में इसके रंग बदले और नाम भी बदला। महंगाई के लिए पहले की सरकार को कोसने वाली वर्तमान सरकार इस पर चर्चा करना भी जरूरी नहीं समझती। महंगाई डायन अब 'विकास' हो गई है। पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार कभी भी इस पर बात करना पसंद नहीं करती। मीडिया, जिसे हर बात के लिए कोसा जाता है, यदि कभी इस पर चर्चा भी करे तो इसे पूर्व की सरकारों पर ही छोड़ दिया जाता है। या ये कह दिया जाता है कि खराब मानसून के कारण उत्पादन कम हुआ।

पीएम ने तब खुद को कहा था किस्मत वाला

याद करें दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय पीएम नरेंद्र मोदी के भाषण को। उन्होंनें कहा था, 'ये मेरी किस्मत है कि केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आसमान से जमीन पर आ गईं। मैं किस्मत वाला हूं। लोगों को इस बात की जलन है कि ये मोदी तो बड़ा किस्मत वाला निकला।'

कांग्रेस को कूड़ेदान में डाला

केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार तेजी से बढ़ती महंगाई और रोज सामने आ रहे घोटालों के कारण बाहर कर दी गई। मतदाताओं ने साल 2014 के लोकसभा चुनाव में लगातार दस साल और लगभग साठ साल से ज्यादा सत्ता में रही कांग्रेस को कूड़ेदान में डाल दिया ।

मतदाताओं ने वादों पर किया भरोसा

पीएम मोदी का चुनाव के वक्त वादा था कि महंगाई पर जल्द ही अंकुश लग जाएगा। चीजों के भाव उसी जगह पहुंच जाएंगे जो 1999 से 2004 तक सत्ता में रहे अटल बिहारी वाजपेई के एनडीए शासनकाल में थे। जनता ने भरोसा किया और नरेंद्र मोदी को पूर्ण बहुमत की सरकार दे दी। ये और बात है कि उन्होंने सरकार में अपने सहयोगी दलों को महत्वपूर्ण् विभाग दिए।

दाल बना बहस का मुद्दा

केंद्र में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी तब अरहर दाल की कीमत 60 रुपए प्रति किलो थी। जो वर्तमान में 145 रुपए प्रति किलो है। इसी तरह आटा 12 रुपए से बढ़कर अब 25 रुपए प्रति किलो तक आ गया है। वहीं आलू, प्याज और टमाटर की चर्चा करना इसलिए बेकार की तर्क ये दे दिया जाएगा कि हर साल इसकी कीमतें बढ़ती हैं और नई फसल आने के बाद कम हो जाती है।

'जले नोट बचाए नहीं जा सकते'

मोदी जी, बहुत बड़े प्लानर माने जाते हैं। उन्हें जानने वाले कहते हैं कि वो पांच साल बाद आने वाली स्थिति को पहले ही भांप लेते हैं। क्या उन्हें पता नहीं था कि खराब मानसून के कारण फसलें खराब हो गई हैं। खराब मानसून पर वो ये तो कह देते हैं कि किसानों की फसल नहीं जली, बल्कि किसानों के नोट जल गए। सवाल ये कि जले नोट बचाए नहीं जा सकते थे या उनके खलिहानों को नोटों से भरा नहीं जा सकता था? इस बात पर केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा सकती हैं कि मदद की लेकिन वो किसानों तक नहीं पहुंची। या केंद्र से पूरी मदद नहीं मिली। ऐसे आरोप-प्रत्यारोप किसानों के चेहरे पर मुस्कान नहीं ला सकते।

वो 'वादा' नहीं 'जुमला' था

इस देश की जनता मोदी से अपने बैंक खाते में 10 या 15 लाख रुपए नहीं मांग रही है। क्योंकि इस बात को भी विपक्ष अपने हिसाब से उठाता रहा है। मोदी ने कभी नहीं कहा था कि काला धन वापस आएगा तो सभी के खाते में 10 से 15 लाख रुपए आएंगे। उनका कहना था कि यदि विदेशी बैंको में जमा काला धन वापस आ जाए तो सभी के बैंक खाते में 10 से 15 लाख रुपए आने के बराबर होगा।

याद होगा कि अटल बिहारी वाजपेई की सरकार सिर्फ प्याज की कीमतें बढ़ने के कारण सत्ता से बाहर हो गई थी। यहां तो प्याज ही नहीं सभी चीजों में आग लगी है ।

तेल की कीमतों में भी इजाफा

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कच्चे तेल की कीमतें 110 डालर प्रति डालर तक पहुंच गई थी। फिर भी पेट्रोल की कीमत 80 रुपए प्रति लीटर से ज्यादा नहीं जा सकी थीं। तेल कंपनियां पहले भी मुनाफा कमाती थीं और आज जब कीमत 40 रुपए प्रति डालर जो सबसे कम हैं तब भी कमा रही हैं। कमाई के औसत का फर्क हो सकता है ।

लोकतंत्र में वेलफेयर स्टेट की कल्पना की गई है। जिसमें सरकारें जनता की भलाई के लिए होती हैं। उद्योगपतियों या व्यापारियों की तरह मुनाफा कमाने के लिए नहीं।

जिंदा कौमे पांच साल...

बिहार में 1974 में शुरू छात्र आंदोलन का जब जयप्रकाश नारायण नेतृत्व कर रहे थे तब वे लोहिया जी की एक बात हमेशा दोहराते थे कि 'जिंदा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करतीं।' ये लोकतंत्र की मजबूरी है कि अब जिंदा कौम को पांच साल इंतजार करना पडता है। मोदी अपने पांच साल के कार्यकाल का आधा व्यतीत कर चुके हैं। समय ज्यादा नहीं बचा। अब तो चुनाव में आधा से भी कम समय है। समय बीतता जा रहा है लेकिन महंगाई पर अंकुश के कोई प्रयास दिखाई नहीं दे रहे।

आजादी से पेट नहीं भरता

सर्जिकल स्ट्राइक या विदेश नीति से पेट नहीं भरता। हाल ही में एक कश्मीरी से मुलाकात हुई। उसने कहा 'आजादी नहीं रोटी चाहिए'। इसलिए कि बिना रोटी के आजादी का भी कोई मतलब नहीं होता। देश के लोगों की पीड़ा समझिए। कहीं इस सरकार को भी वो दिन नहीं देखना पड़े जो 125 साल पुरानी सरकार को देखना पड़ा था।

aman

aman

Content Writer

अमन कुमार - बिहार से हूं। दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई और आकशवाणी से शुरू हुआ सफर जारी है। राजनीति, अर्थव्यवस्था और कोर्ट की ख़बरों में बेहद रुचि। दिल्ली के रास्ते लखनऊ में कदम आज भी बढ़ रहे। बिहार, यूपी, दिल्ली, हरियाणा सहित कई राज्यों के लिए डेस्क का अनुभव। प्रिंट, रेडियो, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया चारों प्लेटफॉर्म पर काम। फिल्म और फीचर लेखन के साथ फोटोग्राफी का शौक।

Next Story