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BJP की जल्दबाजी ने बचा दी हरीश रावत की जान, किसे हुआ नुकसान ?
उत्तराखंड में राजनीतिक हालात गड़बड़ नहीं होते तो हरीश रावत को अगले साल की शुरुआत में ही होने वाले विधानसभा चुनाव में अपने इन बागी विधायकों का विरोध झेलना पड़ता और उसमें उन्हें ज्यादा परेशानी होती । लगातार बीजेपी के सहयोग में रहे इन बागी विधायकों ने 18 मार्च को विनियोग विधेयक पारित होने के दिन ही मत विभाजन की मांग कर अपने पत्ते खोल दिए और उससे हरीश रावत सतर्क हो गए ।
विधानसभा अध्यक्ष ने दल विरोधी कानून के तहत इन 9 विधायकों की सदस्यता खत्म कर दी । नौ विधायकों की सदस्यता खत्म होने के बाद सरकार अल्पमत में आ गई और गवर्नर ने 28 मई को हरीश रावत को विश्वास मत पाने का आदेश दे दिया लेकिन यहां केंद्र की बीजेपी सरकार ने जल्दबाजी दिखाई और 27 मई को प्रेसिडेंट रूल लागू कर दिया । इरादा साफ था कि किसी भी तरह हरीश रावत को सत्ता में आने से रोका जाए ।यह तय था कि प्रेसिडेंट रूल के खिलाफ रावत हाईकोर्ट जाएंगे ।
नैनीताल हाई कोर्ट ने प्रेसिडेंट रूल हटाने का आदेश दिया। केंद्र सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई जिसमें बागी विधायकों को वोट देने से वंचित किया गया ओर 10 मई को रावत को विश्वास मत हासिल करने का आदेश दिया गया । आगे की कहानी बीजेपी की कमजोर राजनीतिक चाल को सामने लाती है ।
दरअसल बीजेपी बिना पूरी तैयारी के ही हरीश रावत जैसे राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी से मोर्चा लेने मैदान में उतर गई । बागी विधायक कांग्रेस से पार्टी में आए सतपाल महाराज के ज्यादा करीबी थे । इसमें उनकी पत्नी अमृता रावत भी शामिल थीं । बीजेपी को उम्मीद थी कि सतपाल महाराज कांग्रेस के अन्य विधायकों को भी साथ ले आएंगे लेकिन ये संभव नहीं हो सका ।
मत विभाजन के दिन सिर्फ एक महिला विधायक ही बीजेपी के पाले में आ सकीं ।बीजेपी ने यूकेडी, बसपा और निर्दलीय विधायकों को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन उसे सफलता नहीं मिली । इसके लिए बीजेपी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने देहरादून के कई चक्कर लगाए ।
हरीश रावत ने तो बिना नाम लिए ये आरोप भी लगाया कि केंद्र सरकार अपनी पार्टी के एक नेता को बार बार उत्तराखंड भेज राज्य सरकार को अस्थिर करने में लगी है ।दरअसल बीजेपी ये तय ही नहीं कर पाई कि वो अपने किस नेता पर विश्वास करे । एक ओर कांग्रेस से आए सतपाल महाराज थे तो दूसरी ओर राज्य की कमान संभाल चुके भगत सिंह कोश्यारी और रमेश पोखरियाल निशंक ।
दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने विधायकों को पाले में बनाए रखा । बसपा निर्दलीय और यूकेडी के विधायक भी उनके साथ बने रहे लेकिन इस राजनीतिक उठापटक ने उन्हें सतर्क कर दिया और उनका पीछा बागियों से छूट गया ।रावत ने जीत भले हासिल कर ली लेकिन उनके दामन पर कई दाग लग गए ।
विधायकों को खरीदने का स्टिंग वायरल हो गया जिसमें वो वोट देने के लिए करोड़ों रूपए देने की पेशकश करते पाए गए । जांच में स्टिंग का वीडियो सही पाया गया । इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी गई है । इस जांच में रावत को अब सीबीआई के सामने बार बार पेश होना होगा ।
पहले स्टिंग की चर्चा खत्म भी नहीं हुई थी कि कांग्रेस के एक और विधायक का स्टिंग सामने आया जिसमें वो कहते पाए गए कि विधायक का मिलने वाला वेतन तो उन्होंनें आजतक निकाला नहीं । पैसे की जब जरूरत होती है तो वो हरीश रावत से दस पंद्रह लाख ले लेते हैं ।
राजनीतिक खेल और विश्वास मत में हरीश रावत भले जीत गए हो लेकिन नैतिक रूप से उनकी हार हुई है । साल 2012 में हुए चुनाव में कांग्रेस के 36 विधायक जीते थे जो अब कम होकर 26 रह गए हैं । दस विधायकों ने रावत का साथ छोड़ दिया है ।
इस बात का उनको भी पता है कि बाहर के समर्थन से सरकार चलाना कितना मुश्किल होगा । पैसे का लेनदेन तो राजनीति में आम बात है लेकिन 16 साल पहले बने उत्तराखंड में ये पहली बार सामने आया है । कोई भी विधायक इस दाग के साथ अगले चुनाव में नहीं जाना चाहेगा कि वो लेनदेन का आरोपी है ।
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि हरीश रावत स्वभाव से जिद्दी हैं लेकिन कम बहुमत की सरकार चलाने में लचीला होना पड़ता है । नतीजा ये हुआ कि विधायक उनसे नाराज होते गए और सरकार पर खतरा बढ़ गया । प्रेक्षक ये भी कयास लगा रहे हैं कि रावत कुछ दिन सरकार चलाने के बाद या तो विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश करेंगे या कमान किसी अन्य सीनियर नेता को सौंप देंगे ।