TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

कैराना में भी है एक पोशीदा सच, यह सत्य और तथ्य स्वीकार करने का समय

By
Published on: 14 Jun 2016 6:19 PM IST
कैराना में भी है एक पोशीदा सच, यह सत्य और तथ्य स्वीकार करने का समय
X

yogesh-mishra Yogesh Mishra

लखनऊ: यह एक पोशीदा सत्य है कि आजादी के समय जब पाकिस्तान के रहनुमा अपने देश की भौगोलिक सीमा खींच रहे थे तो उनके नक्शे में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और बिजनौर का भी नक्शा था पर भौगोलिक दूरी में पाकिस्तान से इन दो इलाके के बीच जुड़ने का कोई रास्ता न होने की वजह से पाकिस्तान के रहनुमाओं का यह ख्वाब पलक झपकते चूर हो गया।

जब आतंकवाद ने भारत में सिर उठाया तो दो बहुत ही आश्चर्यजनक घटनाएं प्रकाश में आईँ। पहली भारत में प्रवेश करने वाला कोई भी आतंकवादी ऐसा नहीं था जिसका उत्तर प्रदेश से तार ना जुडा हो। जिसने भी उत्तर प्रदेश से तार जोड़े उसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में अपना कोई न कोई मोड्यूल जरुर बताया। गाजीबाबा जैसे आतंकी भी लंबे समय तक मुजफ्फरनगर, कैराना, बिजनौर के इलाके में रह चुके हैं।

जब मुजफ्फरनगर दंगा हुआ था तो राहुल गांधी ने यह खुलासा किया था कि मुजफ्फरनगर के दंगा प्रभावित मुस्लिम युवाओं को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी बरगलाने की कोशिश कर रही है। इस पर बहुत शोर-शराबा भी मचा पर यह सबकुछ सिर्फ फलसफा नहीं है हकीकत भी है।

दुनिया आतंकवाद को दो नजरिए से देखती है गुड और बैड टेररिज्म। पीएम नरेंद्र मोदी इसकी मुखालफत करते हैं और आतंकवाद को सिर्फ बैड बताते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी और दुनिया का आतंकवाद को देखने का नज़रिया संकुचित है। आतंकवाद के अनंत चेहरे हैं। इन्ही चेहरों में से इन दिनों उत्तर प्रदेश का मुजफ्फरनगर, शामली, बिजनौर, कैराना आदि जिले दो चार हो रहे हैं।

जिस पर नज़र न तो उस इलाके में रहने वाले लोगों की और न ही सिसायतदां की पड़ी। अब जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कैराना के एक विशेष इलाके से वहां रह रही हिंदू आबादी के पलायन पर राज्य सरकार को नोटिस दे दिया है तो इस पर सबके होश फाख्ता होने चाहिए थे लेकिन इस पर सियासत शुरू हो गई।

कुछ लोग इसे कश्मीरी पंडितों के पलायन के विस्तार के रुप में देखते हैं तो कुछ लोग इसे सामान्य घटना मान रहे हैं। सरकार के लिए यह एक वाकया है जिसमें लोग अनचाही जगह छोड़कर मनचाही जगह पर जा रहे हैं। किसी के हाथ हथियार लग गया है तो कोई इसे तुष्टीकरण के लिए थाती समझ रहा है लेकिन जमीनी हकीकत की पड़ताल इन सबके ठीक उलट है।

यह सब सोचने वाले लोग आत्मतोषवादी हैं। उन्हें हर घटना में अपने नफे और दूसरे के नुकसान के लिए कुछ न कुछ चाहिए होता है लेकिन मानवाधिकार आयोग द्वारा कैराना के तकरीबन 100 परिवारों के पलायन की घटना के संज्ञान लेने ने बाद कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

इन सवालों का उत्तर इन आत्मतोषवादियों के पास भी नहीं है क्योंकि इनका दायरा सीमित है। इनके विस्तार संकुचित हैं लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में कैराना से थोड़ा और आगे पीछे जाएं तो बेहद डरावने मंजर हाथ लगते हैं। जिन इलाकों में हिंदू कम हैं और मुस्लिम ज्यादा उन इलाकों से हिंदू अपनी प्रापर्टी बेचकर हिंदू बाहुल्य इलाको में बस रहे हैं, इसी तरह जहां हिंदू ज्यादा है और मुस्लिम कम वहां मुस्लिम अपनी जमीन जायदाद बेचकर मुस्लिम बाहुल्य इलाको की ओर कूच कर रहे हैं।

वैसे तो यह हैबिटैट (वास) का सामान्य सा फार्मूला है लेकिन अनेकता में एकता वाले देश के लिए यह फार्मूला पेशानी पर बल डालने वाला है क्योंकि जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था तब भी सीमाएं आबादी की बाहुलता के आधार पर तय हुई थी। जिधर ज्यादा मुसलमान थे उसे पाकिस्तान बना दिया गया।

आजादी के बाद हुए पाकिस्तान की जनगणना के मुताबिक पाकिस्तान के दोनों हिस्सों (अब बांग्लादेश) की कुल आबादी साढे सात करोड़ थी और बांग्लादेश मिलाकर उसकी कुल आबादी का 20 फीसदी ही हिंदू था इसमें बांग्लादेश भी शामिल था। जबकि आज के पाकिस्तान में उस समय की जनगणना बताती है कि हिंदुओं का प्रतिशत महज 1.6 फीसदी ही था।

पाकिस्तान में जो हिंदू थे भी वह भागकर भारत आ गए। अगर भारत पाकिस्तान बंटवारे के दिनों में हुए बंटवारे के मानदंड पर इस बदल रही हैबिटैट सरीखी सामान्य समस्या को देखा जाए तो यह सच हाथ लगता है कि कहीं आतंकवाद या देश विरोधी गतिविधियों की नई शक्ल इस आबादी संक्रेंद्रण के पीछे शिद्दत से काम करने में तो नहीं जुटी है।

युद्धरत इजराइल फिलिस्तीन के बीच आबादी संकेंद्रण का एक थोपा गया चलन है जिसे इंतिफदा कहते है। इसके तहत फिलिस्तीन के लोग वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी इजराइली आबादी पर हमला कर उसे खाली करवाते थे। दो बार इस इंतिफदा आंदोलन का आगाज फिलिस्तीनियों ने किया। पहली बार 1987 से 1993 तक इजराइली आबादी को खाली कराया गया। वहीं साल 2000 में दूसरी बार इंतिफदा की शुरुआत की गई। यह युद्ध और आतंक का नया हथियार है।

आबादी संकेंद्रण इस तरह की मंशा रखने वालों के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। जो लोग देश और समाज को बांटना चाहते हैं उनको खाद पानी देता है। ऐसी मनोवृत्तियों को फलीभूल होने का मौका देता है। आबादी सकेंद्रण के लिए परिस्थितियां उत्पन्न करना आतंकवाद और देशविरोधी गतिविधियों का नया काम और नया चेहरा है। इन्हें दाना पानी राजनैतिक दल मुहैया कराते हैं।

दिल्ली के औरंगजेब रोड का नाम बदलकर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम के नाम करना और इसके पक्ष विपक्ष में खड़े होने वाली मनोवृत्तियां विघटनकारी शक्तियों को हवा देती हैं। अगर किसी समूह की मनोवृत्ति को अब्दुल कलाम और औरंगजेब में अंतर नजर नहीं आता तो इसे उस समूह का धतभाग्य कहेंगे।

जम्मू कश्मीर में नई सरकार आने के बाद कश्मीरी पंडितो की वापसी के लिए एक विशेष इलाके में उनकी कालोनियां बनाकर प्रस्ताव दिया गया। जिसका विरोध बाहर के लोगों के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों ने भी किया। यह महज इसलिए क्योंकि एक विशेष इलाके में ही उनकी वापसी जम्मू छोड़कर जाने के उनके अंदर के भय और असुरक्षा को खत्म नहीं करती है।

यह भी सच है कि जहां-जहां छिटपुट कश्मीरी पंडित थे उन्हें भी पलायन करना पड़ा। वह पलायन भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना और आसपास के घटना का विस्तार है। यह सिर्फ मानवाधिकार हनन नहीं है क्योंकि कौन किस इलाके में रहेगा यह तय करना उसका हक है। लेकिन जब पलायन पर मानवाधिकार संज्ञान ले रहा हो तो साफ है कि कारण जरुर ऐसे होंगे जो पलायन करने वालों के लिए दर्द का सबब रहे होंगे। जो सिर्फ मनचाही जगह पर नहीं होगा।

एक ऐसे इलाके में जहां लव जेहाद हो, जहां दंगे की आंच अभी पूरी तरह ठंडी न पड़ी हो जिस इलाके में अखलाक की घटना हो, जहां जातियों के बंटवारे धार्मिक विभाजन के आगे बौने पड़ गए हों, जहां जातियों को लेकर कालमार्क्स और डा. राम मनोहर लोहिया सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए हों, जहां धर्म, ध्वजा सियासत की धुरी बन रही हो वहां आबादी सकेंद्रण किसी बड़े अंदेशे का सबब बन सकता है।

ऐसे में इस पर स्यापा पीटने, इससे लाभ उठाने, इसे हथियार बनाने और इसे ढाल बनाने की जगह उन कारणों की पड़ताल कर उन्हें समूल नष्ट किया जाना चाहिए जो कैराना और आसपास के इलाके में आबाद सकेंद्रण का सबब बन रहे हैं।

वैश्वीकरण के बाद भौगोलिक सीमाएं टूटी। इन टूटती हुई भौगोलिक सीमाओं के दौर में यह सोचकर बैठना कि यह सब कैराना और आसपास है एक ऐसी आपदा को निमंत्रित करना है जिसमें भेड़िया बगल वाले को मारकर भूख शांत कर लेता है। लेकिन हम खुद बच जाने को लेकर खुश हो लेते हैं। हम भूल जाते हैं कि भेड़िया फिर कुछ दिनों बाद भूखा हो जाएगा। भेडिए की भूख उसके मरने तक खत्म नहीं होगी।

यह सत्य और तथ्य स्वीकार करने का समय है। अभी तो भला है कि मानवाधिकार ने इसे अपने एजेंडे का हिस्सा बना लिया पर टूटती भौगोलिक सीमाओं के दौर में आबादी सकेंद्रण को एक घटना मानकर आंख मूदने और सियासत करने की पंरपरा एक ऐसा दंश दे जाएगी जिसके जख्म लंबे समय सालते रहेंगे।



\

Next Story