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कोरोना 'काल'- केंद्र दोषी या राज्य सरकारें

कोरोना वायरस की ताजा लहर ने भारत को हिला कर रख दिया है। यह तो कोई इतिहासकार ही बता सकता है

RK Sinha
Written By RK SinhaPublished By Roshni Khan
Published on: 3 May 2021 10:16 AM GMT (Updated on: 3 May 2021 10:58 AM GMT)
article on situation of corona in politics
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कोरोना (सोशल मीडिया)

लखनऊ: कोरोना वायरस की ताजा लहर ने भारत को हिला कर रख दिया है। यह तो कोई इतिहासकार ही बता सकता है कि क्या भारत के समक्ष कभी इस तरह की विपत्ति, संकट या चुनौती पहले भी आई थी? यह समय सब को राजनीतिक भेदभाव भुलाकर मिल-जुलकर कोरोना का मुकाबला करने का है। क्योंकि इस वैशिवक महामारी से लड़ने का यह ही एकमात्र रास्ता और विकल्प भी है। पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी इस मौके को अपने लाभ के लिए सदा भुनाना चाहते हैं। ये दोनों कोरोना के कारण देश में उत्पन्न स्थिति के लिए लगातार केन्द्र सरकार को दोषी बता रहे हैं। यदि इन्हें भारत के संविधान की रत्ती भर भी समझ होती तो ये शांत रहते और सरकार का साथ दे रहे होते। पर इन्होंने कभी संविधान को जाना समझा होता तब न? इन्हें इतना भी नहीं पता कि स्वास्थ्य क्षेत्र भारत के संविधान की राज्य सूची में है।

हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र को संविधान के तहत समवर्ती सूची में स्थानांतरित किए जाने की मांग होती रही है। परन्तु, अभी 'स्वास्थ्य' का विषय पूर्णतः राज्य सूची में आता है। इस बात को यूं भी समझा जा सकता है कि संविधान में तमाम विषयों को केन्द्र, राज्य और समवर्ती सूची में रखा गया है। अगर स्वास्थ्य राज्य सूची में है तो फिर आजकल राज्यों में स्वास्थ्य क्षेत्र की जो दयनीय स्थिति सामने आ रही है उसके लिए केन्द्र सरकार किस तरह से जिम्मेदार है। राज्यों ने अपने यहां स्वास्थ्य सुविधाओं को स्तरीय क्यों नहीं बनाया? क्या इस सवाल का जवाब सोनिया गांधी या उनके यशस्वी पुत्र राहुल गांधी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और बंगाल की तीसरी बार मुख्यमंत्री बनी ममता बनर्जी देना चाहेंगे?

इसमें कोई शक नहीं है कि 'स्वास्थ्य' को समवर्ती सूची में शिफ्ट करने से केंद्र को राज्यों के स्वास्थ्य सेक्टर को और गंभीरता से देखना पड़ता। क्या कभी कांग्रेस शासित राज्यों ने इस तरह की मांग की? अब जब कोरोना के कारण देश छलनी हो रहा है तो कुछ नेताओं को तो मानो हाथ लग गया एक मुद्दा केंद्र सरकार को सुबह-शाम पानी पी पीकर कोसने का। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी कोरोना के मौजूदा हालात पर मोदी सरकार पर और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तीखे हमले बोल रहे हैं। वे इस स्थिति के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री को ही जिम्मेदार मान रहे हैं।

देखा जाए तो अधिकतर राज्यों का अपने स्वास्थ्य क्षेत्र को बेहतर बनाना के लेकर रवैया बेहद ठंडा रहा है। एक उदाहरण लीजिए। पश्चिम बंगाल के पहले मुख्यमंत्री डा. बी.सी. राय (जन्म: 1 जुलाई, 1882 - मृत्यु: 1 जुलाई, 1962) ने अपने राज्य की राजधानी कोलकाता में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निर्माण के प्रस्ताव को मानने से ही इंकार कर दिया था। एम्स दिल्ली में न स्थापित होता तो क्या होता। यकीन मानिए कि तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री राज कुमारी अमृत कौर चाहती थी कि एम्स का निर्माण पश्चिम बंगाल की राजधानी में हो, पर यह प्रस्ताव डा.बी.सी. राय को रास नहीं आया।

उन्होंने इसे ठुकरा दिया। फिर यह 1956 में दिल्ली में बना। इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि भारतीय राज्य अपने यहां स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर कोई बहुत गंभीर नहीं रहे हैं। इन्होंने स्तरीय अस्पतालों से लेकर मेडिकल कॉलेजों के निर्माण करने के बारे में भी कभी कोई नीति नहीं बनाई । एम्स भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर के ही विजन का परिणाम है। वह गांधी जी की प्रिय शिष्या थीं।

एम्स के डाक्टर रोगियों को पूरे मन से देखते हैं। इधर समूचे उत्तर भारत या कहें कि हिन्दी भाषी राज्यों और बंगाल-उड़ीसा तक के रोगी आते हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के रोगियों को दिल्ली एम्स पर खासा यकीन है। इधर बिहार के पटना, दरभंगा, किशनगंज, अररिया, मुजफ्फरपुर वगैरह के तमाम रोगी इधर से स्वस्थ होकर ही घर वापस जाते हैं। आखिर सब राज्यों में एम्स जैसे पांच- सात अस्पताल क्यों नहीं खुले।

केन्द्र तो हर साल के अपने बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए भी एक निश्चित धनराशि रखता है। वह धन राशि सभी राज्यों को बाँट दी जाती है। आगे राज्य उसे अपनी मर्जी से खर्च करते हैं I राज्यों को अपनी आबादी और जरूरतों के हिसाब से स्वास्थ्य सुविधाएं विकसित करनी चाहिए थी। उस तरफ ज्यादातर राज्यों का ध्यान नहीं गया। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) सरकार बार-बार कहती रही कि उसने मोहल्ला क्लीनिक बनाए। क्या कोई बताएगा कि इस कोरोना काल में उनका क्या हुआ? अभी तो देश को कोरोना को हराना होगा। एक बार कोरोना को मात देने के बाद नए मेडिकल कॉलेजों को खोलने के संबंध में भी ठोस कार्यक्रम बनाना होगा। देश में मेडिकल कॉलेजों की संख्या उस तरह से बढ़ नहीं सकी है।

नए खुलने वाले मेडिकल कॉलेजों में दाखिले पारदर्शी तरीके से हों और इनमें उच्चस्तरीय फैक्ल्टी आए। मान लीजिए कि हमारे यहां मेडिकल कॉलेजों में दाखिलों के स्तर पर जमकर धांधली होती रही है। इसके चलते हजारों-लाखों मेधावी छात्र डाक्टर बनने से वंचित रह गए।

दरअसल देश के 6 राज्यों, जो भारत की आबादी का 31 फीसदी का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहां 58 फीसदी एमबीबीएस सीटें हैं; दूसरी ओर, आठ राज्य जहां भारत की आबादी के 46 फीसदी लोग रहते हैं, वहां केवल 21 फीसदी एमबीबीएस सीटें हैं। यह चिकित्सा– शिक्षा में भारी असंतुलन और गड़बड़ी की तरफ इशारा करता है। सामान्य रुप से स्वास्थ्य की कमी को गरीबी के साथ जोड़ा जाता है। उदाहरण के लिए, कुपोषित बच्चों के उच्चतम अनुपात के साथ वाले राज्यों में झारखंड और छत्तीसगढ़ में संस्थागत प्रसव के लिए सबसे खराब बुनियादी ढांचा है। इन सब बिन्दुओं पर अब काम करना होगा।

अगर स्वास्थ्य क्षेत्र राज्यों का विषय है तो इसका यह मतलब नहीं है कि केन्द्र सरकार की राज्यों के हेल्थ सेक्टर को लेकर कोई जिम्मेदारी नहीं है। केंद्र सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में राज्यों को शोध और नई योजनाओं के संबंध में मार्गदर्शन देते रहना होगा। केन्द्र तथा राज्य सरकारों को देश के सभी नागरिकों को सुलभ, सस्ती और पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए मिलकर काम करना होगा। हालांकि यह स्वीकार करना होगा कि अभी तक इस बाबत कोई बहुत शानदार काम नहीं हुआ। यह भी जान लिया जाए कि स्वास्थ्य का अधिकार पहले ही संविधान के अनुच्छेद 21 के माध्यम से प्रदान किया गया है जो जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी देता है।

इसलिये यह चाहिये कि सभी राज्य सरकारें अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी तत्परता से निभायें और बिना वजह इस कोरोना संकट काल में आरोप-प्रत्यारोप में समय गंवाने की बजाय अपने राज्य की जनता को सही और कारगर स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध करायें I जहाँ तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कोरोना संघर्ष का सवाल है, पूरा विश्व और देश का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि शुरू से लेकर अबतक कोरोना से संघर्ष करने में प्रधानमंत्री मोदी का क्या रोल रहा है I उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली बात तो शोभा नहीं देती न ?

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