Ayodhya: अवध की अयोध्या

Ayodhya: अलेक्जेण्डर कनिंघम ने चीनी यात्रियों के विवरण के आधार पर अयोध्या का एक पुरातात्विक विवेचन 1871 में किया था। अयोध्या में पुरातात्विक अवशेष लगभग 4-5 किलोमीटर की परिधि में फैले हुए हैं, जो समीपवर्ती धरातल से लगभग 10 मीटर ऊँचे हैं।

Prof J N Pal
Written By Prof J N Pal
Published on: 16 Jan 2024 6:15 AM GMT
Ayodhya
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Ayodhya: बाल्मीकि रामायण और रामकथा से सम्बन्धित अन्य ग्रन्थों से कहा जा सकता है कि रामकथा प्रचलन में थी। कला, चित्रकला, स्थापत्य अभिलेख और मुद्राओं में भी राम कथानक के दृश्यों के अंकन हैं।' लेकिन राम ऐतिहासिक हैं पुरातात्विक साक्ष्यों से यह निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता।

बी. बी. लाल ने महाभारत के बाद रामायण महाकाव्य को भी पुरातात्विक धरातल पर उतारने का प्रयास किया है। वाल्मीकि रामायण में कई स्थानों का नाम मिलता है, जो आज भी उसी नाम से जाने जाते हैं, जैसे अयोध्या जो राम की राजधानी थी, श्रृंगवेरपुर जहाँ उन्होंने वन-यात्रा के समय गंगा को पार किया था, भारद्वाज आश्रम जहाँ वे कुछ समय के लिए ठहरे थे और चित्रकूट आदि। इन स्थलों के उत्खननों से बी. बी. लाल को कई महत्वपूर्ण प्रमाण उपलब्ध हुए।

अलेक्जेण्डर कनिंघम ने चीनी यात्रियों के विवरण के आधार पर अयोध्या का एक पुरातात्विक विवेचन 1871 में किया था। अयोध्या में पुरातात्विक अवशेष लगभग 4-5 किलोमीटर की परिधि में फैले हुए हैं, जो समीपवर्ती धरातल से लगभग 10 मीटर ऊँचे हैं। स्वतन्त्र भारत में सर्वप्रथम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विजय शंकर दुबे ने प्रो. जी. आर. शर्मा के निर्देशन में 1961-62 में अयोध्या के कई टीलों का सर्वेक्षण किया था और यहाँ की पुरातात्विक सम्पन्नता की ओर संकेत किया था। उन्हें सरयू नदी के तट पर 7.60 मीटर मोटे नदी के अनुभाग से एन. बी. पी. पात्र-परम्परा के बर्तन और इसके साथ मिलने वाले अन्य पात्र- परम्पराओं के पात्र-खण्ड उपलब्ध हुये थे। वलय कूप (रिंगवेल) और सोख्ता बर्तन (सोकेज जार) भी यहाँ पर विद्यमान थे। इस स्थल की प्राचीनता तथा सांस्कृतिक अनुक्रम के निर्धारण के लिए 1969-70 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के ए. के. नारायण ने टी. एन. राय और पुरुषोत्तम सिंह की सहायता से उत्खनन किया था।

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सरयू नदी द्वारा काटे गए इसके प्राचीन अनुभागों में दीर्घकालीन आवास के प्रमाण मिलते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातात्विक दल ने यहाँ 3 स्थलों पर उत्खनन कार्य किया था-जैन घाट के समीप, लक्ष्मण टेकरी और नल टीला' । प्रथम दो स्थलों के उत्खननों में तीन सांस्कृतिक कालों का अनुक्रम प्राप्त हुआ था। यहाँ प्रथम और द्वितीय काल में सातत्यता थी और तृतीय काल के पहले समय का एक अन्तराल था। तीसरे स्थल, जो अपेक्षाकृत निचले धरातल पर है, के उत्खनन में केवल प्रथम सांस्कृतिक काल के प्रमाण उपलब्ध हुये थे। प्रथम सांस्कृतिक काल में एन. बी. पी. वेयर (उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र परम्परा), मोटा ग्रे-वेयर (धूसर पात्र- परम्परा) और इसके समकालीन रेड-वेयर (लाल पात्र-परम्परा) के पात्र-खण्ड प्राप्त हुये। इस काल की अन्य पुरा-सामग्रियों में पकी हुई मिट्टी का चक्र, गोलियाँ, पहिये, हड्डी के बने हुए बाणाग्र तथा तांबे, क्रिस्टल, शीशा और मिट्टी के बने हुए मनके उल्लेखनीय हैं। इस सांस्कृतिक काल के परवर्ती धरातल से भूरे रंग की 6 मानव मृण्मूर्तियाँ; कई पशु मृण्मूर्तियाँ और दो अयोध्या प्रकार के सिक्के उपलब्ध हुये। इस उत्खनन में कुछ लौह उपकरण भी प्राप्त हुये। उल्लेखनीय है कि अयोध्या नगर की कुछ ताम्र मुद्रायें जिन पर प्रथम शताब्दी ई. पू. की ब्राह्मी लिपि में 'अजुधे' लिखा है, 1970-71 में भी मिली थीं।

कुबेर टीले का भी गहन सर्वेक्षण

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातात्विक दल ने कुबेर टीले का भी गहन सर्वेक्षण किया था जिसकी पहचान, कनिंघम ने बौद्ध स्तूप से की थी।यहाँ 39 x 6 सेमी. के आकार के ईंटों से निर्मित प्राचीन स्मारक के कई स्तर प्राप्त हुये थे। 'आर्यालाजी ऑफ दि रामायण साइट्स' प्रोजेक्ट के अन्तर्गत सेन्टर ऑफ एडवान्स्ड स्टडी, शिमला के बी. बी. लाल ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के के. वी. सौन्दरराजन तथा के. एन. दीक्षित के साथ सम्मिलित रूप से रामकथा से सम्बन्धित अयोध्या के 14 स्थलों का 1975-76, 1976-77 तथा 1979-80 ई. में उत्खनन किया था।

अयोध्या नगर के प्राचीन क्षेत्रों के रामजन्मभूमि टीला और हनुमानगढ़ी के पश्चिम में स्थित खुले हुए क्षेत्र स्थलों का उत्खनन कार्य 1976-77 में किया गया। इसके अतिरिक्त सीता की रसोई स्थल पर भी कुछ उत्खनन हुआ। प्राचीनतम आवासीय जमाव एन. बी. पी. वेयर (उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र- परम्परा) संस्कृति का था जिसमें कई रंगों के एन. बी. पी. पात्र-खण्ड उपलब्ध हुए हैं। एन. बी. पी. पात्र-परम्परा के साथ धुंधले काले रंग के रेखीय चित्रों से युक्त धूसर रंग के पात्र खण्ड भी उपलब्ध हुये थे, जो श्रावस्ती, पिपरहवा, कौशाम्बी आदि स्थलों की चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के समान हैं। ये पात्र- खण्ड हस्तिनापुर, मथुरा और अहिच्छत्र की चित्रित धूसर पात्र-परम्परा की संस्कृति के परवर्ती चरण का प्रतिनिधित्व करते हैं। मथुरा, श्रावस्ती, कौशाम्बी आदि स्थलों से प्राप्त तिथियों के आलोक में उत्खननकर्ताओं ने जन्मभूमि के इस आवासीय जमाव की तिथि सातवीं शताब्दी ई. पू. निर्धारित की है।

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यह टीला तृतीय शताब्दी ई. तक आबाद रहा, जैसा कि कई निर्माणात्मक चरणों से प्रतीत होता है। प्रारम्भिक चरणों में लकड़ी, घास-फूस और मिट्टी के घरों का निर्माण किया जाता था, लेकिन बाद में पकी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा। जन्मभूमि क्षेत्र के उत्खनन में ईंटों से निर्मित एक विशाल दीवाल के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, जिसकी पहचान रक्षा प्राचीर से की जा सकती है। इस विशाल दीवाल के ठीक नीचे कच्ची मिट्टी की ईंटों से निर्मित एक संरचना उपलब्ध हुई थी। इस चरण के ऊपरी धरातल में पकी मिट्टी के वलयकूप (रिंगवेल) प्राप्त हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रक्षा-प्राचीर एक गहरी खाई से युक्त थी, जो अग्रतः आवासीय जमाव के नीचे प्राकृतिक मिट्टी में खोदी गयी थी। इसी तरह हनुमानगढ़ी के पास के उत्खनन में भी एन. बी. पी. डब्लू. और परवर्ती कालों की संरचनायें, वलयकूप (रिंगवेल) फनाकार ईंटों से निर्मित कुंए प्राप्त हुए हैं। अयोध्या के प्राचीन टीलों के अधिकांश भाग संभवतः नदी द्वारा बहा दिये गये हैं। एन. बी. पी. डब्लू, जमाव के ऊपर यहाँ गहरे लाल रंग का जला हुआ स्तर है। इस प्रमाण के आधार पर शुंगों की द्वितीय राजधानी अयोध्या में पतंजलि द्वारा उल्लिखित इण्डो-यूनानी आक्रमण का संकेत मिलता है। इसी अग्निकाण्ड के कारण अयोध्या में एक युग का अंत हुआ और एन. बी. पी. डब्लू. संस्कृति नष्ट हुई।

राजा वासुदेव की मिट्टी की मुहर

इस उत्खनन से प्राप्त पुरासामग्रियाँ हैंः लगभग आधा दर्जन मुहरें, 70 सिक्के और सौ से अधिक मृण्मूर्तियाँ। इसमें राजा वासुदेव की मिट्टी की मुहर विशेष उल्लेखनीय है। इस राजा के द्वितीय शताब्दी ई. पू. के अयोध्या के सिक्के भी उपलब्ध हुए हैं। इसी काल से संबंधित मूलदेव का एक सिक्का और एक भूरे रंग की कायोत्सर्ग मुद्रा में मानव मृण्मूर्ति (जो जैन केवलिन की प्रतीत होती है) उपलब्ध हुई है। चतुर्थ शताब्दी ई. पू. के धरातल से उपलब्ध यह मृण्मूर्ति संभवतः सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपने प्रकार की सबसे प्राचीन मूर्ति है। पक्की मिट्टी की बनी हुई बड़े आकार की धार्मिक मृण्मूर्तियाँ प्रथम शताब्दी ई. के धरातल से हनुमानगढ़ी से अधिक संख्या में उपलब्ध हुई हैं, जो अहिच्छत्र के उत्खनन से प्राप्त बी. एस. अग्रवाल द्वारा वर्णित तथाकथित विदेशी प्रकार की मृण्मूर्तियों की तरह हैं। इस प्रकार की मृण्मूर्तियां कौशाम्बी, पिपरहवा, वैशाली आदि स्थलों से भी उपलब्ध हुई हैं।

प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल की महत्वपूर्ण खोजों में प्रथम-द्वितीय शताब्दी ई. के धरातल से उपलब्ध राउलेटेड वेयर के पात्र खण्डों का उल्लेख किया जा सकता है, जो ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में अयोध्या में बड़े पैमाने पर व्यापार एवं वाणिज्य का संकेत करते हैं। सरयू नदी का गंगा से छपरा में संगम होता है। गंगा नदी के मार्ग से अयोध्या का सम्बन्ध पूर्वी भारत के ताम्रलिप्ति जैसे नगरों से था।" प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल के जमावों के बाद यहाँ के आवासीय जमाव में एक अन्तराल दिखाई पड़ता है। ग्यारहवीं शताब्दी ई. के आस-पास यह स्थल फिर से आबाद हुआ। ईंटों और चूने से निर्मित मध्यकाल की एक फर्श इस धरातल से प्राप्त हुई है।

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अयोध्या से 16 किलोमीटर दक्षिण में नन्दिग्राम और उसके समीप के क्षेत्रों में इस अभियान दल द्वारा कुछ उत्खनन किये गये थे। तमसा नदी के तट पर स्थित नन्दिग्राम, वाल्मीकि रामायण के अनुसार यही वह स्थान था जहां से भरत ने राम के वनवास काल में शासन किया था। यहां के उत्खनन से अयोध्या की ही तरह प्राचीनता के प्रमाण प्रस्तुत करने वाली पुरासामग्रियाँ उपलब्ध हुई हैं। यद्यपि आजकल नन्दिग्राम तमसा के उत्तरी तट पर स्थित है । लेकिन इसके दक्षिणी तट पर स्थित राहेट टीले के उत्खनन से महत्वपूर्ण पुरावशेष उपलब्ध हुए हैं। इन उत्खननों के आलोक में अयोध्या की प्राचीनता को सातवीं शताब्दी ई.पू. तक ले जाया जा सकता है।"

इस तथ्य का पता लगाना था कि क्या एन. बी. पी. डब्लू. काल के पहले का कोई आवासीय जमाव अयोध्या में है या नहीं? 1979-80 ई. में इस उद्देश्य से सेन्टर ऑफ एडवान्स्ड स्टडी, शिमला के बी. बी. लाल ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के के. एन. दीक्षित के संयुक्त तत्वाधान में उत्खनन कार्य पुनः प्रारम्भ किया। इस उत्खनन से यह पता चला कि यहाँ का प्राचीनतम काल सातवीं शताब्दी ई. पू. के प्रारम्भ में एन. बी. पी. वेयर (उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र-परम्परा) के प्रथम चरण से सम्बन्धित किया जा सकता है और यह क्षेत्र चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के विस्तार क्षेत्र के बाहर था। प्रारम्भिक चरण में एन. बी. पी. पात्र-परम्परा के बर्तन पतले अनुभाग वाले, अच्छी तरह पके हुए, चमकदार पालिश से युक्त और गहरे काले, स्टील धूसर (स्टील ग्रे), नीले (इण्डिगो), रूपहले (सिल्वरी) सुनहले आदि विभिन्न रंगों के हैं। कुछ बर्तनों के प्रकार ऐसे हैं जो इसी चरण में मिलते हैं। एन. बी. पी. वेयर के साथ मिलने वाली लाल पात्र-परम्परा के पात्र प्रकारों में प्रथम चरण से मध्यवर्ती और परवर्ती चरणों में परिवर्तन दिखाई पड़ता है। मृण्मूर्तियों में विकास के चिन्ह परिलक्षित होते हैं। ये अधिक संख्या में उपलब्ध हुई हैं। अन्य उल्लेखनीय पुरासामग्रियों में जैस्पर, अगेट, चलसिडनी के बने हुए और लगभग सभी धरातल से मिलने वाले विभिन्न प्रकार के वाट अथवा बेलनाकार टुकड़े और राक क्रिस्टल तथा दूसरे अर्धरत्नों वाले पत्थर पर पक्षियों के आकार में बने हुए लटकनों का उल्लेख किया जा सकता है। एन. बी. पी. डब्लू. काल में ही पकी ईंटों के मकानों से युक्त नगर नियोजन, पक्की मिट्टी के वलयकूप आदि उपलब्ध हुए हैं, लेकिन ये इस संस्कृति के प्रथम चरण से सम्बन्धित नहीं हैं।

नागेश्वर लिंग का पीठ अशोक स्तम्भ का भाग

अयोध्या से एक अनोक कालीन सिंह शीर्ष प्रतिवेदित है। 12 बी. आर. मणि के अनुसार नागेश्वर लिंग का पीठ अशोक स्तम्भ का भाग है जिसे 2003 ई. में चाँदी के चादरों से आच्छादित कर दिया गया। लगभग द्वितीय शताब्दी ई.पू. में एन. बी. पी. डब्लू. काल के बाद अयोध्या निरन्तर शुंग; कुषाण और गुप्त युग से मध्यकाल तक आबाद रहा। शुंग काल की पकी ईंटों की बनी हुई एक दीवाल प्रकाश में आयी है। इसी प्रकार गुप्तकालीन एक मकान के प्रमाण भी उपलब्ध हुए हैं। इस स्थल से उपलब्ध गुप्तकालीन मिट्टी के बर्तन श्रृंगवेरपुर और भारद्वाज आश्रम से उपलब्ध गुप्तकालीन बर्तनों के सदृश हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 2002-03 में भारत के माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश पर हरि मांझी और बी. आर. मणि के निर्देशन में रामजन्म भूमि क्षेत्र में उत्खनन किया जिसमें प्राक्. एन. बी. पी. संस्कृति से लेकर मुगल काल तक के पुरावशेष मिले।" उत्खनन से प्राप्त प्राचीनतम कार्बन तिथि 1250+130 ई.पू. से कहा जा सकता है कि अयोध्या की प्राचीनता 1300 ई.पू. तक ले जायी जा सकती है।" परन्तु इस प्राचीनतम धरातल से कोई संरचनात्मक साक्ष्य नहीं मिले हैं।

अब तक किये गये उत्खननों से अयोध्या में पाँचवी से दसवीं शताब्दी ई० के मध्य के आवासीय जमावों के प्रमाण नहीं उपलब्ध हुए हैं । लेकिन अन्य क्षेत्रों से उपलब्ध अभिलेखीय प्रमाण संकेत करते हैं कि गुप्तकाल में अयोध्या में आबादी थी। इसी प्रकार चीनी यात्री फाहयान और ह्वेनशांग ने क्रमशः पाँचवीं और सातवीं शताब्दी ई. में अयोध्या की यात्रा की थी। इससे भी इसी प्रकार के संकेत मिलते हैं। 11वीं शताब्दी ई. में इस स्थल के पुनः आबाद होने के दो-शताब्दियों के अन्दर ही- मध्यकाल की कांचलित (ग्लेज्ड वेयर) पात्र परम्परा मिलने लगती है।" अयोध्या के अधिकांश वर्तमान हिन्दू मन्दिर पिछली दो शताब्दियों में निर्मित किये गये थे।

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बी. बी. लाल के अनुसार तैत्तरीय आरण्यक और अथर्ववेद में उल्लिखित अयोध्या (अ + योध्या, अ + योध्याः, अ + योध्येन) जिसका तात्पर्य अजेय है, वस्तुवाचक संज्ञा के रूप में नहीं प्रयुक्त हुआ है। इसलिए इसका तात्पर्य नगर से नहीं है। अतः वर्तमान अयोध्या के उत्खननों से जो भी प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, उनकी वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए। उत्खननों ने सिद्ध किया है कि वर्तमान अयोध्या काल्पनिक नगर न होकर एक वास्तविक प्राचीन नगर था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुनीश चन्द्र जोशी ने तैत्तरीय आरण्यक में उपलब्ध अयोध्या के दर्शन सम्बन्धी लाक्षणिक विवरण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आधुनिक अयोध्या से राम का सम्बन्ध बाद में किया गया। इस प्रकार तैत्तरीय आरण्यक की अयोध्या एक काल्पनिक नगरी थी।

संयुक्त निकाय के अनुसार अयोध्या गंगा के तट पर स्थित था। मुनीश चन्द्र जोशी का अनुमान है कि वर्तमान अयोध्या प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य में वर्णित साकेत के ध्वंसावशेषों पर स्थित है। गुप्तकाल में इसे अयोध्या के नाम से जाना जाने लगा। कालिदास ने अयोध्या और साकेत को पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त किया है जबकि पालि साहित्य में साकेत अयोध्या से एक पृथक् नगर था। जोशी के अनुसार प्राचीन अयोध्या की खोज हमें कहीं अन्यत्र करनी चाहिए। 20 मुनीश चन्द्र जोशी के इन सन्देहों का निवारण बी. बी. लाल ने अपने एक विस्तृत लेख में किया है।" उनके अनुसार वाल्मीकि रामायण में भी इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि अयोध्या सरयू के तट पर स्थित थी। संयुक्त निकाय में अयोध्या को गंगा के तट पर कहने का आश्रय सिर्फ यह है कि अयोध्या एक पवित्र नदी के तट पर स्थित थी। बौद्ध साहित्य में इस तरह के विवरण अन्य प्राचीन नगरों के लिए भी मिलते हैं। जैसे संयुक्त निकाय में कौशाम्बी को गंगा के तट पर स्थित बताया गया है।

वाल्मीकि रामायण में राम, सीता और लक्ष्मण के वन-गमन के सन्दर्भ में भौगोलिक विवरण मिलता है कि वे सुमन्त के साथ रथ पर चढ़कर अयोध्या से चले। अयोध्या निवासियों ने तमसा नदी तक उनका अनुगमन किया। तमसा के तट पर उन्होंने रात्रि व्यतीत की। प्रातः काल अयोध्यावासियों को वहीं छोड़कर वे आगे बढ़े और तमसा नदी को पार किया। दक्षिण में बढ़ते हुए उन्होंने वेदश्रुति, गोमती और स्यन्दिका नदियों को पार किया जिन्हें क्रमशः वर्तमान विसुही, गोमती और सई नदियों से समीकृत किया जा सकता है। और दक्षिण में चलने पर वे शृंगवेरपुर पहुँचे जहाँ निषादराज गुह ने उनका स्वागत किया। यहीं से सुमंत रथ के साथ अयोध्या लौटे। गंगा को पार करने के बाद गंगा-यमुना के संगम पर वे भारद्वाज ऋषि के आश्रम में पहुँचे। भारद्वाज की सलाह पर वे यमुना को पार करके चित्रकूट चले गये। इस विवरण के आधार पर स्पष्ट है कि अयोध्या गंगा के तट पर न होकर सरयू के तट पर ही स्थित थी। क्योंकि सरयू के तट पर फैजाबाद के अयोध्या के अतिरिक्त और किसी अयोध्या नामक नगर की स्थिति नहीं है, इसलिए लाल के अनुसार वर्तमान अयोध्या ही वाल्मीकि रामायण की अयोध्या मानी जानी चाहिए।

रामकथा के भौगोलिक क्षेत्र में मिलने वाली मध्य पाषाणिक आखेटक संस्कृति और रामायण में आदिम संस्कृति के विभिन्न सन्दर्भों के आधार पर मूल रामकथा की प्राचीनता को प्रागैतिहासिक काल तक ले जाया जा सकता है। संभव है परवर्ती काल में जब इस कथानक में विस्तार हुआ तो विकसित संस्कृतियों के प्रभाव से इसका रूप बदल गया लेकिन आदिम संस्कृति के प्रमाण पूर्णतः विलुप्त नहीं हुये।

रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना वैवस्वत मनु द्वारा की गई। यह इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं की राजधानी रही। इस नगरी का अन्त वृहदवल की मृत्यु के बाद हुआ जो महाभारत युद्ध में मारा गया था। परम्परा के अनुसार वृहदवल की मृत्यु के बाद उज्जयिनी के विक्रमादित्य के समय तक यह नगरी वीरान रही। विक्रमादित्य ने इस पवित्र नगरी को ढूँढ़ निकाला और जंगल काटकर यहाँ किला और मंदिर बनवाया। विक्रमादित्य की पहचान कनिंघम ने गुप्तवंश के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से की है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोध्या एक सुव्यवस्थित नगरी है जो ईसा पूर्व के पाँचवी शताब्दी के पहले की नहीं हो सकती क्योंकि इसके पूर्व गंगा की घाटी में ऐसी किसी शहरी सभ्यता का विकास नहीं हुआ था। कोशल देश का ई.पू. 5वीं शताब्दी के बाद का इतिहास हमें ज्ञात है, पर इसमें इक्ष्वाकुवंशीय राजा दशरथ, राम आदि के शासन की कोई गुंजाइश नहीं है।

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अतः यदि रामायण में वर्णित घटनाएँ ऐतिहासिक हैं तो वे ई.पू. 5वीं शताब्दी के पहले की होगी और तब रामायण में अयोध्या का वर्णन निश्चित ही बाद का प्रक्षेप है। कहने का तात्पर्य यह कि अयोध्या यदि काल्पनिक नहीं है तो अधिक से अधिक एक छोटा सा ग्राम रहा होगा। एक विकसित नगर के रूप में इसका वर्णन बाद में प्रक्षिप्त किया गया होगा या फिर हम यह मान लें कि वाल्मीकि रामायण बहुत बाद में लिखा गया और अयोध्या भले ही एक नगर न रहा हो पर उस काल में अनेक नगर स्थापित हो चुके थे, जिसके आधार पर वाल्मीकि ने अयोध्या का एक नगर के रूप में वर्णन किया। रामायण में अयोध्या को कोशल महाजनपद की राजधानी कहा गया है, जबकि बौद्ध और जैन ग्रन्थों में कोशल की राजधानी को साकेत कहा गया है। यदि साकेत और अयोध्या एक ही स्थल के दो नाम थे, तो आश्चर्य है कि समूची वाल्मीकि रामायण में साकेत का कोई उल्लेख नहीं है। 500 ई. के हूणों के विजेता गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से अयोध्या लाते हैं तो अयोध्या और साकेत दोनों के एक होने का सन्दर्भ देते हैं। वे शिलालेख में अपनी तुलना राम से करते हैं। रघुवंश में अयोध्या और साकेत दोनों ही नाम पर्यायवाची होकर बार-बार प्रयुक्त हुए हैं। इस आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि साकेत और अयोध्या एक ही नगर के दो नाम हैं। एस. पी. गुप्त का कहना है कि प्राचीन धार्मिक नगर अधिकतर युग्म नामों से सम्बोधित होते थे, जैसे-वाराणसी-काशी, प्रतिष्ठानपुर-प्रयाग या साकेत-अयोध्या ।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने जहाँ एक ओर अयोध्या में बौद्ध विहारों का होना बताया है, वहीं कई देव मन्दिरों का होना भी । लेकिन उनकी संख्या कम है। यदि बौद्ध ग्रन्थों में साकेत नाम अधिक प्रचलित है तो अयोध्या नाम भी उसमें आया है, किन्तु अपेक्षाकृत कम । क्योंकि एक मत के लोग प्रायः एक नाम का ही प्रयोग अपनी धर्म-पुस्तकों में करते हैं, जैसे हिन्दू अयोध्या नाम का अधिक प्रयोग करते हैं। संयुक्त निकाय, दीघ निकाय, अंगुत्तर निकाय आदि में कोशल की राजधानी को साकेत कहा गया, किन्तु अंगुत्तर निकाय, संयुक्त निकाय और बुद्धघोष में अयोध्या नगर का भी उल्लेख हुआ है।

साकेत को उत्तर भारत के 6 बड़े नगरों में गिना जाता था। यह एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र था और व्यापारियों का निवास स्थान था। यहाँ अनेक बौद्ध बिहार थे, जहाँ बुद्ध अनेक बार ठहरे थे। यदि साकेत और अयोध्या एक ही होते तो इसमें कोई संदेह नहीं कि बौद्ध ग्रन्थों में ऐसा जरूर कहा गया होता। इसी कारण विमल चरण ला ने लिखा है कि कुछ विद्वानों का विचार है कि साकेत और अयोध्या एक ही थे पर रीज डेविड ने सफलतापूर्वक दर्शाया है कि बुद्ध के काल में दोनों नगरों का अपना अलग अस्तित्व था। बौद्ध ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि साकेत श्रावस्ती से छह-सात योजन की दूरी पर है और यही दूरी आज साहेत-माहेत (श्रावस्ती) और फैजाबाद के बीच की भी है। जहाँ तक राम की पूजा का प्रश्न है, प्राचीन भारतीय कला के सुप्रतिष्ठित इतिहासकार जे. एन. बनर्जी ने अपनी पुस्तक ‘द डेवलपमेण्ट आफ हिन्दू आइकोनोग्राफी’ में लिखा है कि पहले राम का प्रयोग दशरथ के राम के लिए न होकर राम बलराम के लिए होता था। उदाहरण के लिए पतंजलि के महाभाष्य में नृपति राम और केशव का उल्लेख हुआ है। पर यहाँ तात्पर्य बलराम से है। सबसे पहले स्पष्ट रूप से दशरथ के पुत्र राम की मूर्ति का उल्लेख बराहमिहिर की वृहत्संहिता में ही मिलता है, पर यह तो गुप्त-युग के बाद की रचना है। आधुनिक अयोध्या में ईसा की दूसरी शताब्दी से पहले राम की पूजा प्रचलित होने का प्रमाण नहीं मिलता।

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अयोध्या अनेक धर्मों से जुड़ी रही है। यह नगरी बौद्ध, जैन, वैष्णव मत, शैवमत सभी का केन्द्र रही है। इस क्षेत्र के उत्खनन में एक मृण्मूर्ति मिली है जो बी. बी. लाल के विचार से सम्भवतः किसी जैन तीर्थंकर की है। इसके अतिरिक्त कुछ और लघु मृण्मूर्तियां मिली हैंजो उर्वराशक्ति (मातृ देवी) की प्रतीक हैं। अयोध्या से एक मिट्टी की मुहर प्राप्त हुई है जिस पर दो पैरों के निशान (पादुका का युग्म) बने है और पुष्पसारः लिखा हुआ है। थपलियाल के अनुसार इसे ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित किया जा सकता है। 1094 ई. के एक अभिलेख के अनुसार अयोध्या के गहडवाल राजा चद्रदेव ने भूमिदान करने से पहले परम्परानुसार नदी में स्नान किया और वैष्णव मतानुसार पूजा- अर्चना की।

इस विवेचन के आधार पर निष्कर्षतः माना जा सकता है कि वर्तमान अयोध्या वाल्मीकि रामायण की अयोध्या थी। लेकिन वाल्मीकि रामायण के राम के बारे में इतिहास और पुरातत्व कुछ कहने में असमर्थ है। फिर भी पुरातात्विक अनुसंधानों ने पूरे कथानक के कम से कम भौगोलिक परिदृश्य को स्पष्टतः पुष्ट किया है।

अवध क्षेत्र के लोकगीतों से अयोध्या और अयोध्या की संस्कृति का लोकमय होना महसूस किया जा सकता है। ऐसे अनेक गीत अवध और समीपवर्ती क्षेत्रों में आज तक विभिन्न सामाजिक उत्सवों के समय गाए जाते हैं। अवध और राम कथा भारतीय लोक जीवन में बस गयी हैं । लेकिन ये ऐतिहासिक सत्य के कितना निकट हैं, ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। रामायण के कथानक ने जनमानस को बहुत प्रभावित किया है। तुलसी ने वाल्मीकि की तुलना में इसे और अधिक व्यापक और लोकप्रिय बनाया । लेकिन इन कवियों के अतिरिक्त और इनके पहले तथा बाद में भी बहुत से अनाम और बेपढ़े लोगों ने भी राम कथा सम्बन्धी लोक गीतों के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति की। यही कारण है कि विवाह के समय हर गाँव अयोध्या, हर ससुराल जनकपुर, हर दूल्हा राम और और हर दुल्हन सीता हो जाती है।

सन्दर्भः

1. सिन्हा, बी. पी. (सम्पादक) 1989 श्रीराम इन आर्ट, आर्यालॉजी एण्ड लिटरेचर, दि बिहार पुराविद् परिषद, पटना।

2. कनिंघम, अलेक्जेन्डर, 1871, आर्कलोजिकल सर्वे आफ इण्डिया-

कला और संस्कृति में श्रीराम :: 91

फोर रिपोर्ट्स (1862-63-64-65) पृ. 317-327. रिप्रिंट (1972) इण्डोलोजिकल बुकहाउस, डेलही, वाराणसी।

3. इण्डियन आर्यालॉजी : ए रिव्यू, 1961-62, पृष्ठ 53।

4. इण्डियन आर्यालॉजी : ए रिव्यू, 1969-70, पृष्ठ 40-41।

5. इण्डियन आर्यालॉजी : ए रिव्यू 1970-71, पृष्ठ 63 ।

6. इण्डियन आर्यालॉजी : ए रिव्यू, 1976-77, पृष्ठ 52-53

7. अयोध्या में बी. बी. लाल द्वारा किए गये उत्खनन में निचले धरातल से चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के जो पात्र खण्ड उपलब्ध हुए हैं उनका फैब्रिक (अनुभाग) मोटा है और उन पर धुँधले रेखीय चित्र बने हैं। ऐसे पात्र खण्ड कौशाम्बी के उत्खनन से भी उपलब्ध हुए हैं। क्योंकि ये पात्र खण्ड विशिष्ट (टिपिकल) चित्रित धूसर पात्र खण्डों से भिन्न हैं इसलिए इन्हें पुरातत्वविद् चित्रित धूसर पात्र परम्परा की संस्कृति के स्थलों के अन्तर्गत नहीं रखते। देखिए अग्रवाल, डी. पी., 1984, आर्कलोजी ऑफ इण्डिया, पृष्ठ 253।

8. बी. बी. लाल से जी. आर. शर्मा को व्यक्तिगत जानकारी।

9. शर्मा, जी. आर., 1980 रेह इन्सक्रिप्सन ऑफ मेनान्डर एण्ड इण्डोग्रीक इनवेजन इन गंगा वैली, अविनाश प्रकाशन, इलाहाबाद।

10. राउलेटेड पात्र परम्परा के पुरातात्विक महत्व और प्रसार क्षेत्र के लिए द्रष्टव्य- देशपाण्डे, एम.एन., 1969, रोमन पॉटरी, पॉटरीज इन एन्सिएण्ट इण्डिया, पटना विश्वविद्यालय, पटना।

11. इण्डियन आर्यालॉजी : ए रिव्यू, 1976-77, पृष्ठ 52-531

कला और संस्कृति में श्रीराम :: 92

12. सिंह, अशोक, 2014, अयोध्या, हिस्ट्री ऑफ एन्सिएन्ट इण्डिया वाल्यूम छ। दी टेक्स्ट्स पोलिटिकल हिस्ट्री एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन टिल 200 बी.सी., पृष्ठ 501-505, दिलीप के. चक्रवर्ती और मक्खनलाल (सम्पादक), विवेकानन्द इण्टरनेशनल फाउन्डेशन, नई दिल्ली और आर्यन बुक्स इन्टरनेशनल, नयी दिल्ली।

13. मणि, बी. आर., 2007, ए डिकेड आफ क्रम्बलिंग हेरिटेज : अयोध्या (1995-2005) पुरातत्व 37, पृष्ठ 139-141।

14. इण्डियन आर्यालॉजी: ए रिव्यू, पृष्ठ 76-771

15. मांझी, हरि और बी. आर. मणि, 2003, अयोध्या 2002- 03, एक्सकैवेसन्स एट दि डिप्यूटेड साइट, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नयी दिल्ली।

16. दीक्षित, के. एन. 2003, रामायण, महाभारत एण्ड आर्यालॉजी, पुरातत्व, 33, पृष्ठ 114-118 ।

17. वर्मा, विजय प्रकाश, 2000, अवध और अयोध्याः पुरातात्विक दृष्टि, स्वाभा प्रकाशन, इलाहाबाद।

18. लाल बी. बी., 1979, अयोध्या, ए. घोष द्वारा सम्पादित, ऐन इन्साइक्लोपीडिया ऑफ इन्डियन आर्यालॉजी में, पृष्ठ 31- 32, मुंशीराम मनोहर लाल पब्लिसर्स प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।

19. लाल बी. बी., 1981, वाज अयोध्या ए मिथिकल सिटी, पुरातत्व 10, पृष्ठ 45-4911

20. जोशी, एम. सी., 1982, अयोध्या: मिथिकल एण्ड रियल, पुरातत्व 11, पृष्ठ 107-109।

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21. लाल बी. बी., 1987, अयोध्या आफ दी वाल्मीकि रामायण : एन इनर जाइजिंग डिबेट ऑन इट्स आइडेन्टिफिकेश्चन, पुरातत्व 16, पृष्ठ 79-841

22. लाल बी.बी,, 1987 पूर्वोक्त।

23. पाल, जे. एन., 1989, क्या राम प्रागैतिहासिक है? श्रीराम इन आर्ट, आर्कालाजी एण्ड लिटरेचर, वी. पी. सिन्हा (सम्पादक) पृष्ठ 196-205, दि बिहार पुराविद परिषद, पटना।

24. इस समय यह मुहर इलाहाबाद संग्रहालय में है, थपलियाल, के. के., 1972, स्टडीज इन एन्सिएण्ट सील्स, फ्राम सेकण्ड सेन्चुरी बी. सी. टू मिड सेवेन्थ सेन्चुरी ए. डी., पृष्ठ 161-1621 अखिल भारतीय संस्कृत परिषद, लखनऊ।

(लेखक प्राचीन इतिहास,संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग , इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज के प्रोफ़ेसर एवं पूर्व अध्यक्ष रहे है।’ कला और संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से साभार । यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है।)

Monika

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Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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