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Bangladesh Crisis Update: ये ख्वाबों की दुनिया

Bangladesh Crisis Update News: चींटियों का कोई भरोसा नहीं। वे हाथी तक को खत्म कर सकती हैं। जानते सब हैं । लेकिन चींटियों से डरता कोई नहीं, सबको अपने शक्तिमान होने का भरम है। सब हाथी हैं।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 13 Aug 2024 11:05 AM IST
Bangladesh Crisis Update News
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Bangladesh Crisis Update News 

Bangladesh Crisis Update News: हम सब जनता हैं। अलग अलग खड़े हों तो लगते हैं बेजार, असहाय, अकेले, मजलूम। चींटे चींटियों जैसे। फूंक मार दीजिए तो उड़ जाएंगे। पैरों के नीचे दबा दें तो अस्तित्व की निशानी तक गायब हो जाये। भेड़ बकरी की तरह हंक जाएंगे।

लेकिन चींटियां भी कुदरत की बनाई नायाब चीज हैं। यही चींटियां कभी कभी ऐसा भी कर देती हैं कि भारी भरकम इमारतों की नींव खोखली कर दें। जमीन के नीचे नीचे ऐसी सुरंगें बना दें कि इंसान क्या बना पायेगा। चींटियों का कोई भरोसा नहीं। वे हाथी तक को खत्म कर सकती हैं। जानते सब हैं । लेकिन चींटियों से डरता कोई नहीं, सबको अपने शक्तिमान होने का भरम है। सब हाथी हैं।


लेकिन यही भरम टूटते हमने अभी अभी बांग्लादेश में देखा है। वहीं नहीं, बल्कि हमने अपने सभी पड़ोसियों के यहां चींटियों को हाथियों को गिराते देखा है। सभी जगह अजेय दिखते बड़े लोग इन्हीं चींटी जैसी जनता के हाथों पस्त होते देखे गए हैं। चुनाव और वोट के जरिये ही नहीं बल्कि सिर्फ घर से बाहर निकल कर ही जनता ने मंजर को बदल दिया है। जो सैकड़ों साल पहले फ्रांस में हुआ वो क्या बांग्लादेश और श्रीलंका में नहीं दोहराया गया? वोट देने वाली जनता ही तो थी जो ऊब कर सड़क पर आ गई।

बांग्लादेश में तख्ता पलट करती आम जनता: Photo- Social Media

ये इतिहास की किताबों में दर्ज किस्से नहीं हैं बल्कि दुनिया में अनेक ऐसे उदाहरण हमने अपनी ही जिंदगी में देखे हैं। सिर्फ सत्ताएं, राष्ट्राध्यक्ष और डिक्टेटर ही नहीं बल्कि अजेय से लगते सुपरस्टार्स और सेलिब्रिटीज़ तक हर कोई जनता के हाथों ही हारा है। ईरान के शाह का शासन जनता ने ही अंत किया। साउथ अफ्रीका में नेल्सन मंडेला अकेले कुछ नहीं कर सकते थे अगर जनता साथ न होती। अफगानिस्तान को कोई कभी गुलाम नहीं बना पाया। क्योंकि वहां के लोगों ने गुलाम बनने से इनकार कर दिया था।

बातें होतीं हैं कि सत्ता गिराने में विदेशी ताकतों का हाथ होता है। हो सकता है यह सच हो । लेकिन विदेशी ताकत या एजेंसी तब ही कुछ कर पायेगी जब कोई चिंगारी भड़क उठी हो। बगैर चिंगारी ये ताकतें भी शायद ही कुछ उखाड़ पाएं। इन ताकतों को भी उसी का सहारा चाहिए जिसे जनता कहा जाता है। जनता के बगैर ये भी बिना इंजन की ट्रेन हैं। इंजन तो जनता ही है।

सही कहा गया है कि सभी चीजों का अंत होता है। होना ही चाहिए। चाहे क्रूर तानाशाहों का शासन हो या नेकनीयत वाले निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का, वे सभी समय के साथ अलग अलग डिग्री की इंटेंसिटी के साथ बिखर जाते हैं।

बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना: Photo- Social Media

बांग्लादेश को शेख हसीना ने सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना दिया था। लेकिन फिर भी जनता ने उन्हें उखाड़ फेंका। और तो और, बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्तियों और उनकी निशानियों तक को नेस्तनाबूद कर डाला। सिर्फ इसलिए कि वह शेख हसीना के पिता थे। शेख हसीना जान ही नहीं पाईं कि कब नक्कारखाने में तूती की आवाज नहीं बल्कि दुदुम्भी बजने लगी है। उनके लम्बे शासन काल में भले देश की जीडीपी छलांग लगा गई । लेकिन बांग्लादेशियों की जेबों में इतनी कंगाली बनी रही कि उन्हें भारत में घुस कर कबाड़ और कूड़ा बीनने में ही ‘अमीरी’ दिखने लगी।

भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी: Photo- Social Media

इन्हीं दुदुम्भी की आवाजों ने इतिहास में मिस्र के शासक, ईरान के नेता, नेपाल के राजा, रूस के ज़ार, सोवियत संघ के शासक, रोमानिया के प्रेसिडेंट जैसे तमाम लोगों को इतिहास के पन्नों में ही समेट दिया है। हम इंदिरा गांधी को ही देखें। क्या वो अजेय नहीं दिखती थीं? क्या हुआ उनका? दशकों तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी को जनता ने ही कहां ला कर पटक दिया। दुनिया के सरमायेदार अमेरिका को देखिए। 2020 में चुनाव के बाद पूरा समाज ही दोफाड़ हो गया, ऐसी दरार बन गई जो अब पटने से रही। ब्रिटेन का उदाहरण सामने है। ताश के पत्तों की सरकारों को जनता बदल रही है।

ऐसा होता क्यों है, इस सवाल पर 2020 में एक बड़ी रोचक रिसर्च हुई। सत्ता से गिराए गए 30 शासनों पर रिसर्च करने वालों ने पाया कि जब ‘अच्छी’ सरकारें यानी ऐसी सरकारें जो जनता को सामान और सेवाएँ प्रदान करती थीं और न ज्यादा पैसा लूटती थीं और न निरकुंश रहती थीं, वैसी सरकारें निरंकुश शासन व्यवस्थाओं की तुलना में बहुत तेजी से भरभरा जाती हैं। सबसे महत्वपूर्ण और कॉमन बात जो इस रिसर्च में निकल कर आई वह ये थी कि अच्छी सरकारों के पतन में ऐसे नेता पाए गए जिन्होंने मूल सामाजिक सिद्धांतों, नैतिकताओं और आदर्शों को बनाए रखने से इनकार कर दिया और उन्हें कमजोर कर दिया। रिसर्च करने वालों का तर्क है कि इन्हीं खासियतों की वजह से सैकड़ों बरसों तक राज करने वाले साम्राज्य बने रहे, चलते रहे। बात में दम है।

सामाजिक सिद्धांत, नैतिकता और आदर्श भले ही बड़े किताबी शब्द लगते हों। फलसफे की चीज लगती हो। लेकिन हम सभी की जिंदगी इन्हीं पर टिकी है, ये ही धुरी हैं। हमारे परिवार इन्हीं पर चलते हैं। ये चीजें खत्म, हम भी खत्म।

इस जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। कोई भी ऐसी चीज नहीं जो हमेशा रहेगी सिवाय मूल तत्वों के। और यही बात समझनी होगी हमारे लीडरान को, जो दुर्भाग्य से नई दुनिया में कभी नहीं समझे।

हम जनता भले ही खेत में रोपे गए धान के पौधों की तरह बेहद कमजोर दिखें जो हवा के जरा से झोंके से धराशाई होते दिखते हैं। लेकिन असल में होते नहीं और पलट कर फिर उठ खड़े होते हैं। जो ख्वाबों में जीते हैं उन्हें जनता जाग कर हराती है।

( लेखक पत्रकार हैं।)

Shashi kant gautam

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