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कब तक बैंकों में पूंजी डालती रहेगी सरकार?

raghvendra
Published on: 28 Jun 2019 5:19 PM IST
कब तक बैंकों में पूंजी डालती रहेगी सरकार?
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dollar and rupees

दीपक गिरकर

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पिछले वित्तीय वर्ष में 4284.45 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था। सरकार ने इस दौरान इन बैंकों में 1,06,000 करोड़ रुपए की पूंजी डाली थी। जून, 2019 में ही भारतीय रिजर्व बैंक बांड्स के जरिए 12,500 करोड़ रुपए की पूंजी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में डाल रहा है। इस वित्तीय वर्ष में सरकार बैंकों को 30 हजार करोड़ रुपए उपलब्ध करवा रही है। सरकार हर साल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पूंजी डालती है लेकिन हालत हैं कि बदलते नहीं। आखिर कब तक सरकार लोगों की प्यास बुझाने के लिए कुओं में एक-एक लोटा पानी डालती रहेगी? सरकार इस समस्या की जड़ तक पहुंचने का प्रयास क्यों नहीं करती, ये बड़ा सवाल है।

दरअसल, भारतीय वित्तीय प्रणाली में असुरक्षा बढ़ी है। कमजोर जोखिम प्रबंधन और आंतरिक नियमन में कमी की वजह से गैर-निष्पादित आस्तियां (एनपीए) बढ़ गई हैं। एक अर्थशास्त्रीय आकलन के मुताबिक भारत में दो लाख करोड़ रुपए से अधिक के बैंक घोटाले हो चुके हैं। बैंकों की समस्या प्रशासन और नियामक ढांचे में व्याप्त विसंगतियों के कारण है। बैंकिंग व्यवस्था में सुधार के लिए बैंक बोर्ड ब्यूरो की स्थापना की गई परंतु यह ब्यूरो संकट की घड़ी में नाकामयाब सिद्ध हुआ। ब्यूरो के कार्यकलाप नायक समिति की अनुशंसाओं के अनुसार नहीं रहे। नायक समिति के अनुसार सरकारी बैंकों के प्रमुख, प्रबंध निदेशक और स्वतंत्र निदेशक का चयन बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो (बीबीबी) को करना था लेकिन ब्यूरो को पूरी स्वायत्तता ही नहीं दी गई। नायक समिति चाहती थी कि ब्यूरो को बैंकिंग प्रणाली की तमाम खामियों को दूर करने के अधिकार मिलने चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ हो नहीं सका। बैंक अधिकारियों और बैंक कर्मचारियों के प्रतिनिधियों को बैंक के बोर्ड में निदेशक के रूप में शीघ्र नियुक्ति दी जानी चाहिए। सच्चाई है कि स्वतंत्र निदेशक और नामांकित निदेशक बोर्ड की बैठकों में सिर्फ सिर हिलाने का काम करते हैं। इन्हें मूकदर्शक वाली भूमिका से बाहर निकलना होगा। नरसिम्हन समिति की सिफारिश थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रमुख और कार्यकारी निदेशकों का कार्यकाल कम से कम पांच वर्ष का होना चाहिए। व्यावहारिक रूप से बैंकों में शीर्ष प्रबंधन स्तर पर कोई जवाबदेही प्रणाली मौजूद नहीं है, जिसकी वजह से एïनपीए की समस्या और अधिक बढ़ती जा रही है।

भारत में संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था रिजर्व बैंक के नियमन, नियंत्रण एवं दिशा निर्देश के अनुसार संचालित होती है। बैंकों की व्यवस्था, कार्यप्रणाली पर निगाह रखना रिजर्व बैंक का दायित्व है। केंद्रीय बैंक का स्वतंत्र और स्वायत्त होना जरूरी है। तभी एनपीए नामक घातक बीमारी से निजात मिल सकेगी। एनपीए खातों वाले बड़े कॉर्पोरेट चूककर्ताओं पर बहुत पहले ही सर्जिकल स्ट्राइक होनी चाहिए थी। ऐसा होता तो यह समस्या इतना विकराल रूप धारण नहीं करती। जिनके खाते एनपीए हैं, बैंकों ने जिन्हें विलफुल डिफॉल्टर मान लिया है उन्हें कुछ विशेष फायदे जैसे सरकारी अनुदान प्राप्त करने से रोकना चाहिए। विलफुल डिफॉल्टर्स के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जरूरत है। बैंकों को इनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने में देरी नहीं करनी चाहिए। बैंकों में कदम-कदम पर जांच पड़ताल की व्यवस्था है फिर भी वहां बड़ी संख्या में घोटाले होना व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा करता है। बड़े घोटाले होना ऑडिटर्स और मैनेजमेंट की असफलता की निशानी है।

आर्थिक अपराधों की वृद्धि को देखते हुए विशेष गुप्तचर व्यवस्था की जरूरत है। प्रवर्तन एजेंसियां घोटाले होने के बाद घोटालेबाजों के विरुद्ध कार्रवाई शुरू करने में ही कई दिन लगा देती हैं। यदि नीरव मोदी प्रकरण में वर्ष 2017 में ही उसके द्वारा की गई धोखाधड़ी के विरुद्ध उचित कार्रवाई की गई होती तो फ्रॉड की रकम में इतनी अधिक बढ़ोतरी नहीं हो पाती। जानबूझकर दीवालिया होने वाले कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने में तत्परता बरतनी चाहिए। आर्थिक अपराध कर के दूसरे देशों को भाग गए अपराधियों को वापस लाना भी बड़ी समस्या है। इसके लिए प्रत्यपर्ण संधि का विस्तार बेहद जरूरी है। अभी कुल 37 देशों के साथ ही यह संधि है। अधिक से अधिक देशों के साथ यह संधि करनी चाहिए।

संबंधित एजेंसियों की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए। सभी नियामक संस्थाएं, प्रवर्तन एजेंसियां सिर्फ स्वायत्तता की बात करती हैं लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि स्वायत्तता के साथ जवाबदेही भी साथ आती है। जब तक देश में कॉर्पोरेट प्रवर्तकों के बचाव की संस्कृति खत्म नहीं होती तब तक एनपीए नामक बीमारी का कोई इलाज नहीं है। बड़े अंतर्राष्टीय बैंकों में प्रत्येक उद्योग के लिए एक विशेष सेटअप होता है जहां कर्मचारियों को परियोजना की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इसी प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था हमारे देश में भी होनी चाहिए। बैंकों द्वारा प्रतिवर्ष बैंक के पैनल अधिवक्ताओं, मूल्यांकनकर्ताओं, अंकेक्षकों, सनदी लेखाकारों के कामकाज की समीक्षा की जानी चाहिए। ऐसे सभी लोगों को हटा देना चाहिए जिन्होंने तथ्यों को छिपाते हुए फर्जी रिपोर्ट बनाकर अपने ग्राहकों को फायदा पहुंचाकर बैंकों के एनपीए बढ़ोतरी करवाई है।

वित्त मंत्रालय और सम्बंधित मंत्रालयों में अधिकारियों की नियुक्तियां और उन्हें बैंकिंग व वित्तीय सेवाओं में प्रशिक्षण प्रदान करने की एक व्यवस्थित प्रणाली होनी चाहिए। सरकार के पास अर्थशास्त्रियों और आर्थिक पेशेवरों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। इस दिशा में तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए। बैंकों में फंसे कर्ज की समस्या को दूर करने के लिए वित्त मंत्रालय मुक्त नहीं हो सकता है। एनपीए की समस्या से निपटने के लिए रिजर्व बैंक हमेशा नई-नई योजनाएं ले आता है लेकिन उन योजनाओं के नतीजों का कभी भी विश्लेषण नहीं किया जाता। अग्रिमों की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर एक विशेष मजबूत निगरानी तंत्र विकसित करने की जरूरत है। सरकार अब बैंकिंग समस्या के समाधान के लिए छोटी-छोटी कमजोर बैंकों का मर्जर कर रही है। बैंकों के निजीकरण के बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है।

इसके अलावा रेटिंग एजेंसियों में स्वच्छता के लिए सेबी द्वारा आवश्यक कदम उठाए जाने की जरूरत है। अभी रेटिंग एजेंसियों पर सेबी का नियंत्रण है लेकिन कार्य की अधिकता की वजह से सेबी रेटिंग एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर उचित ध्यान नहीं दे पाता। रेटिंग एजेंसियों पर नियमन और नियंत्रण के लिए एक स्वतंत्र नियामक की जरूरत है। इस पर भी नीति निर्माताओं को विचार-विमर्श करना चाहिए। जोखिम प्रबंधन में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है। देश में एक स्वतंत्र ऋण प्रबंधन एजेंसी की आवश्यकता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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