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Cyber Crime: साइबर अपराधियों और करप्शन से बचाना होगा बैंकों को

Cyber Crime: इससे निपटने के लिए पूर्ववर्ती केंद्र सरकारों ने कुछ कदम भी उठाए, लेकिन, इनके आधे-अधूरे कार्यान्वयन से आशातीत सफलता नहीं मिली

RK Sinha
Report RK Sinha
Published on: 8 July 2024 4:31 PM IST
Cyber Crime ( Social- Media- Photo)
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Cyber Crime ( Social- Media- Photo)

Cyber Crime: नरेन्द्र मोदी सरकार के केन्द्र में लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज होने के बाद एक उम्मीद पैदा हुई है कि सरकार अब बैंकिंग सेक्टर को अधिक पारदर्शी और बेहतर बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाती रहेगी। बीते कुछ सालों के दौरान, भारतीय बैंकों ने जितने उतार-चढ़ाव झेले हैं, शायद किसी अन्य देश ने नहीं झेला होगा। कई भारतीय बैंक अनेक घोटालों-घपलों, ऋण अदायगी न होने, जालसाजियों, अनर्जक परिसम्पत्तियों (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) के बढ़ते बोझ, कर्जमाफी की गलत नीतियों आदि के कारण कई बार तो पूरी तरह डूब गए या भारी घाटे में चले गए। इससे निपटने के लिए पूर्ववर्ती केंद्र सरकारों ने कुछ कदम भी उठाए, लेकिन, इनके आधे-अधूरे कार्यान्वयन से आशातीत सफलता नहीं मिली।


लेकिन, राहत की बात है कि मोदी सरकार ने पिछले दस वर्षों में बैकिंग क्षेत्र में फैली गड़बड़ियों को दूर करने के लिए अनेक फौरी कदम उठाए, जिससे बैंकों की स्थिति में अब धीरे-धीरे सुधार आने लगा है। अनेक बैंक न सिर्फ घाटे से उबर कर लाभ की ओर अग्रसर हैं, बल्कि अनेकों घोटालों पर लगाम भी लगी है। अनेक घोटालेबाज़ों की सम्पत्ति कुर्क कर ऋण वसूली भी की गई है, बैंकों का पुनर्पूंजीकरण किया गया और अनर्जक परिसम्पत्तियों का बोझ काफी कम हुआ है। क्या यह सुखद स्थिति नहीं है कि 2013 से 2017 के बीच बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्तियां 12.47 प्रतिशत थी, जो धीरे-धीरे लुढ़कते हुए सितंबर 2023 में 3.2 प्रतिशत हो गई, भले ही इसमें सरकार द्वारा बैंकों के पुनर्पूंजीकरण का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा। अब सवाल यह है कि क्या बैंकों में सुधार की वर्तमान स्थिति भविष्य में भी जारी रहेगी या “लौट के बुद्धु घर आए” की कहावत चरितार्थ होगी


भारतीय बैंक इस तथ्य के साक्षी हैं कि देश की आज़ादी से पहले और बाद में भी वे डूबते रहे या भारी घाटा सहते रहे हैं। यह उबड़-खाबड़ स्थिति सोचने को विवश करती है कि जब तक लंबे समय तक सुधार प्रक्रिया जारी नहीं रहेगी, तब तक समस्या का स्थायी निराकरण संभव नहीं है। इस विषय पर वरिष्ठ लेखक श्रीपाल जैन की हालिया प्रकाशित पुस्तक –“भारतीय बैंकों का बदलता चेहरा”उपरोक्त विविध पहलुओं का बखूबी विश्लेषण करती है। आज़ादी से पहले और बाद में बैंकों में घोटालों, महाघोटालेबाज़ों, जालसाजी के हथकंडों, बैंकिंग में साइबर अपराधों, येस बैंक के उत्कर्ष एवं पतन, अनर्जक परिसम्पत्तियों के मकड़जाल आदि का विस्तृत विवरण दिया गया है। साथ ही, बैंकों के निजीकरण की गूंज, कृषि ऋणमाफी के अर्थशास्त्र, नोटबंदी, जन-धन योजना, रिजर्व बैंक की स्वायत्तता, डिजिटल बैंकिंग की बढ़ती लोकप्रियता एवं जोखिम आदि की आलोचनात्मक चर्चा की गई है।



देश में आज़ादी के बाद निजी और सरकारी बैंक दोनों थे, लेकिन, उनमें अनेक घोटाले हुए और कई बैंक डूबे भी। फिर भी, सरकारी बैंक अर्थव्यवस्था की प्रगति एवं व्यवसाय में वृद्धि में एक प्रमुख इंजन रहे। निजी बैंक आम लोगों के आसानी से खाते भी नहीं खोलते थे। जुलाई 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से आम जनता की बैंकों तक पहुंच बढ़ने लगी। इस दौर में अनेक बैंकों का विलय हुआ, जिसके कतिपय सकारात्मक परिणाम भी सामने आने लगे। लेकिन धीरे-धीरे सरकारी बैंकों में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, राजनीतिक हस्तक्षेप आदि से असली और फर्जी कंपनियों को अनाप-शनाप मात्रा में ऋण दिए गए, जिनमें से कइयों की वसूली नहीं हुई या आंशिक वसूली हो पाई। इससे सरकारी और निजी बैंकों दोनों को भारी घाटा हुआ।


1990 के दशक के आरंभ में उदारीकरण की नीति अपनाई गई और कुछ समय के बाद आधुनिक प्रौद्योगिकी से लैंस (क्रेडिट कार्य, डेबिट कार्य, चेकों का शीघ्र समशोधन, बीमा. म्यूचुअल फंड खोलना आदि) एच.डी.एफ.सी., आई.सी.आई.सी.आई. बैंक, येस बैंक जैसे निजी बैंक लोकप्रिय हुए। निजी बैंकों के नए उत्पादों, योजनाओं और आधुनिक प्रौद्योगिकी ने सरकारी बैंकों के सामने तगड़ी प्रतिस्पर्धा पेश कर दी। इससे सरकारी एवं अन्य निजी बैंक भी नए उत्पादों, योजनाओं और आधुनिक प्रौद्योगिकी का सहारा लेने को विवश हुए। नतीजतन, सरकारी एवं निजी बैंकों की स्थिति में कुछ सुधार अवश्य दर्ज किया गया, लेकिन उदारीकरण की लहर में घोटालों-घपलों, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, राजनीति हस्तक्षेप का सिलसिला भी आगे बढ़ता गया। हर्षद मेहता, केतन पारिख के घोटाले और ग्लोबल ट्रस्ट जैसे बैंक के डूबने जैसे घटनाक्रम इसी काल में हुए।


मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल में पी.एन.बी. बैंक, पी.एम.सी. बैंक एवं अन्य सहकारी बैंकों, येस बैंक के घोटालों, महाघोटालेबाज़ों के विदेश भागने से भारी संकट पैदा हो गया था। बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्तियों को बोझ रिकॉर्ड स्तर को छू गया। ऐसे में छोटे बैंकों का बड़े सरकारी बैंकों में विलय कर उनकी संख्या सीमित रखने की सराहनीय पहल की गई। इस बीच भारत के व्यापार में बेतहाशा वृद्धि जारी रही, जिससे बैंकों में तरलता बरकरार रखी जा सकी। रिजर्व बैंक की निगरानी को अधिक चुस्त-दुरुस्त किया गया। नोटबंदी, जन-धन योजना, आवास योजनाओं एवं आत्मनिर्भर भारत, मैन्यूफैक्चरिंगऔर अन्य सेक्टरों को भारी बढ़ावा मिला। इस बीच कोविड-19 की महामारी ने दस्तक दी, जिससे अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का लगा। लेकिन, मोदी सरकार ने कुछ माह में ही आर्थिक मोर्चे पर नियंत्रण पाने के ठोस प्रयास किए। कोरोना महामारी के दौरान डिजिटल बैंकिंग के जरिए लेन-देन भारी मात्रा में बढ़ा, जिसने अब तक दुनिया में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यू.पी.आई. का देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में भी डंका बज रहा है।


इसके बावजूद बैंकों के स्वास्थ्य को लेकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। छिटपुट बैंक घोटाले अभी भी हो रहे हैं, डिजिटल बैंकिंग में फ्रॉड्स बढ़े हैं, बैंकिंग में साइबर अपराधियों का जाल लगातार फैल रहा है। इससे न केवल बैंकों, बल्कि खाताधारकों को भारी चपत लग रही है। इस मामले में फुलप्रूफ नियंत्रण अभी तक कायम नहीं पाया है। श्रीपाल जैन ने अपनी पुस्तक के निष्कर्ष में सही कहा है –“वर्तमान में अधिकतर बैंक लाभ की ओर अग्रसर हैं। मोदी सरकार ने समस्याओं एवं चुनौतियों को अवसरों में तब्दील किया है, जिसमें रिजर्व बैंक की निगरानी का प्रमुख योगदान माना जा सकता है।”लेकिन, जब तक बैंकों में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, फर्जी दस्तावेजों के आधार पर कंपनियों या व्यक्तियों को ऋण देने और बैंकिंग में साइबर अपराधियों की घुसपैठ नहीं रोकी जाती, तब तक बैंकों की मजबूती और फुलप्रूफ सुरक्षा का सपना आधा-अधूरा ही रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)



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Shalini Rai

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