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Bharat Mein Rang Bhed: काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं

Bharat Mein Rang Bhed Mamla: आज भी त्वचा का रंग किसी भी प्रोफेशनल कामकाज में मूल्यांकन पर हावी रहता है।

Anshu Sarda Anvi
Published on: 6 April 2025 2:38 PM IST
Bharat Mein Rang Bhed Mamla
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Bharat Mein Rang Bhed Mamla

Rang Bhed Ka Mamla: पिछले दिनों देश में एक मुद्दा जे़र-ए- बहस रहा। कुछ लोगों ने ध्यान दिया, कुछ के लिए सामान्य बात थी । तो अधिकांश को पता ही नहीं चला कि ऐसा भी मुद्दा उठाते हैं क्या भला। मुद्दा था देश के सबसे साक्षर राज्य केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन द्वारा त्वचा की रंग से जुड़ी रंगभेदी टिप्पणियों का खुलासा। 1990 बैच की आईएएस अधिकारी शारदा मुरलीधरन ने पिछले दिनों अपने काले रंग की त्वचा के कारण अपने करियर और घर- परिवार में किए गए भेदभाव का सामना करने पर एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी ।उन्होंने यह भी लिखा कि उनकी योग्यता और प्रदर्शन की तुलना इसी पद पर उनके पूर्वाधिकारी रहे, जो कि उनके पति हैं और गोरे रंग की त्वचा वाले हैं, से की गई। यानी हमारे देश में लोग पढ़- लिख रहे हैं, आधुनिक सोच भी अपना रहे हैं, प्रगतिशील विचार भी आएं हैं । लेकिन आज भी त्वचा का रंग किसी भी प्रोफेशनल कामकाज में मूल्यांकन पर हावी रहता है।

भारत में विवाह संबंधों के लिए गोरा रंग बहुत मायने रखता है। डार्क स्किन/काले या सांवले रंग की महिलाओं और लड़कियों को पक्षपात का सामना करना पड़ता है, कई बार बड़ी ही अपमानजनक टिप्पणियां भी सुनने को पड़ती हैं। पहले भी जहां शादी-विवाह के संबंध लड़की के सांवले रंग की होने से नकार दिए जाते थे, वेआज भी यथावत हैं। साथ ही पुरुषों/लड़कों को भी उनके काले/सांवले रंग की त्वचा के लिए नकारे जाने का सामना करना पड़ता है।


लड़का अगर गोरा है, सुंदर, स्मार्ट है और उसकी पत्नी सांवली आ जाए तो यह सोच लिया जाता है कि या तो लड़के में कोई दोष है या लड़की वाले ज्यादा पैसे वाले हैं, जो लड़के वाले ऐसी सांवली बहू लाने के लिए राजी हो गए या कहीं यह प्रेम प्रसंग का मामला तो नहीं, जो लड़का सांवली लड़की से शादी करने को तैयार हो गया। घर वालों से सवाल कर लिया जाता है कि इस सांवली लड़की में ऐसा क्या देख लिया जो इसे अपने घर की बहू बना ली।

जाति- बिरादरी में आपके लड़के के लिए कोई रिश्तों की कमी तो नहीं थी। और खुद ना खास्ता अगर लड़का सांवले/काले रंग का हो और लड़की गोरे रंग वाली आ गई तो भी यह समाज कह देता है कि लड़की वालों की आर्थिक स्थिति कमजोर रही होगी तभी तो उन्होंने पैसे वाले लड़के को देखकर शादी कर दी या लड़की में जरूर कोई खोट होगा। इसीलिए उसने सांवले रंग के लड़के से शादी कर ली। दोस्तों में उसकी हंसी उड़ाई जाती है कि लंगूर को हूर कैसे मिल गई आदि -आदि। रिश्तों में खुशी या उनका टिकाऊ होना त्वचा के रंग पर नहीं बल्कि जीवन साथी के व्यक्तित्व और आपसी समझ पर निर्भर करता है।


सांवली, सलोनी रंगत का भी अपना एक आकर्षण,अपना एक सलीका होता है। गर्भस्थ महिला को आज भी हमारे समाज में संतरा, नारियल पानी, रसगुल्ला, दही, नारियल जैसी चीज खाने के लिए कहा जाता है जिससे गर्भस्थ शिशु का रंग गोरा रहे। गेहूंवर्णी रंग कहकर सांवले या काले रंग को ढकने की खानापूर्ति भी की जाती है।

जब कपड़े भी खरीदने जाते हैं तो गोरे रंग की त्वचा वाले को कहा जाता है कि वह जो भी रंग खरीदेगा, पहनेगा उस पर सभी खिलेगा, फबेगा, चलेगा । पर जहां सांवली त्वचा की बात आ जाती है तो हमारा देखने का नजरिया संकुचित हो जाता है कि उस पर सारे रंग नहीं खिल सकते हैं। दरअसल, हमारे समाज में त्वचा के रंग को लेकर जो मानसिकता जड़ों में घुसी हुई है उसको बाहर निकाल पाना उतना आसान भी नहीं। रंगभेद सिर्फ सुंदरता के पैमानों तक ही सीमित नहीं बल्कि इसके प्रति पूर्वाग्रही सोच ने हमारे पूरे समाज में गहरी जड़ें फैला रखी हैं। हमारा समाज हमेशा से गोरेपन को लेकर जुनूनी रहा है। हमेशा से यह माना जाता रहा है कि गोरी त्वचा श्रेष्ठ होती है। 'गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा' ऐसे गाने देने वाली बॉलीवुड इंडस्ट्री खुद रंगभेद की मानसिकता का शिकार रही है। कई बॉलीवुड सेलेब्स को भी रंगभेद का सामना करना पड़ा है, जिनमें शिल्पा शेट्टी, श्रीदेवी, हेमा मालिनी, हिना खान, ईशा गुप्ता, सैयामी खेर, शांतिप्रिया, काजोल, इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, प्रियंका चोपड़ा, सोनम कपूर, बिपाशा बासु ऐसे बहुत से नाम है जिन्होंने अपने करियर में देश या विदेश में में रंगभेद का सामना किया है। बॉलीवुड कई ऐसे गानों के ज़रिए 'गोरी गोरी' महिलाओं की प्रशंसा करता है।


सच तो यह है कि केवल लड़कियों में गोरा बनने की ललक नहीं है, पुरुष भी इसमें पीछे नहीं हैं। गोरेपन की क्रीमों को बड़े बॉलीवुड अभिनेता प्रचार प्रसार कर रहे हैं, यह और कुछ नहीं हमारे रंगभेदी रवैये का एक संकेत मात्र है। अगर ऐसा न होता तो पुरुषों के लिए सेलून की संख्या ना बढ़ी होती। सांवले रंग के पुरुष स्वयं को समाज के सामने प्रस्तुत करने में हिचकिचाते भी हैं। प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी और लेखिका व उद्योगपति प्रभा खेतान की आत्मकथाओं को पढ़ने से पता चलता है कि किस प्रकार सांवले रंग ने उनके बचपन में नकारात्मक प्रभाव डाला, जिसका असर उनके पूरे व्यक्तित्व पर जिंदगीभर रहा। प्रसिद्ध उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला की बेटी और गायिका अनन्या बिड़ला ने भी अमेरिका में उनके साथ ‘नस्लीय’ भेदभाव का आरोप लगाया। अनन्या ने अपनी पोस्ट में लिखा कि वाशिंगटन में एक रेस्तरां के कर्मचारियों ने उन्हें और उनके परिवार को बाहर निकाल दिया। उन्होंने इस घटना को दु:खद बताते हुए कहा कि रेस्तरां को उन्हें अपने ग्राहकों के साथ सही व्यवहार करने की आवश्यकता है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब किसी भारतीय नामचीन हस्ती को विदेशी धरती पर रंगभेद या नस्लभेद का सामना करना पड़ा हो। नामचीन हस्तियों के साथ जब इस तरह का रंगभेदी व्यवहार विदेशी धरती पर होता है तो साधारण भारतीय की तो हस्ती ही क्या? वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों और रहने वाले भारतीयों को भी उनकी त्वचा की रंग के कारण हमेशा एक प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा जाता है।


हमारे समाज में लड़कियों के लिये सांवला रंग किसी शारीरिक अपंगता जैसा ही बड़ा अभिशाप है। हमारे देश में त्वचा के रंग को लेकर होने वाला भेदभाव इसके प्रति नकारात्मक भाव के कारण है जिसके आधार पर समाज के मन में पूर्वाग्रह का निर्माण होता है। पूर्वाग्रह से प्रभावित व्यक्ति वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए विशेष समूह और लोगों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार करने लगता है। हमारे देश का संविधान रंग को लेकर किसी भी तरीके के भेदभाव को संरक्षण नहीं देता है। वह हर तरह के रंग वाली त्वचा वाले लोगों को देश में रहने का समान अधिकार देता है। उसके लिए प्रत्येक व्यक्ति समान है। इसी से सामाजिक ताने-बाने का निर्माण होता है। शहरों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में भी यह रंगवाद अधिक फैला हुआ है। सोशल मीडिया के इस दौर में त्वचा का रंग भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण को और ज्यादा दिखाता है। वह इस रंगभेद को एक वस्तु, एक उत्पाद के तौर पर प्रसारित करता है। एक वर्ग के बीच अपनी विश्वसनीयता भी स्थापित करता है और रंगभेदी दृष्टिकोण का सार्वजनिक रूप से प्रचार भी करता है। हमारे देश में जितने भी मैट्रिमोनियल साइट्स हैं उनमें भी रंगभेद पूरी तरह से दिखाई देता है। गोरा, लंबा होना एक अच्छे परिवार से आने की पहचान होता है, जबकि सांवला, काला रंग उसको दूसरे पायदान पर रख देता है।

सिर्फ दक्षिण एशियाई देशों में ही नहीं बल्कि अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका सहित तमाम देशों में रंगभेद फैला हुआ है।अमेरिका में 2020 में एक अश्वेत जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या पुलिस हिंसा और नस्लीय भेदभाव का एक दर्दनाक उदाहरण है। जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत, 20 डॉलर के नकली नोट को लेकर हुए विवाद के चलते हुई थी फ़्लॉयड के अंतिम शब्द 'आई कांट ब्रीद' लोगों के लिए मंत्र-सा बन गया था। इस घटना ने अमेरिका में अश्वेत लोगों के ख़िलाफ़ नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोकोविया और पूर्वाग्रह की जड़ें उजागर कीं।

अश्वेतों द्वारा किए गए प्रदर्शन से अमेरिका में 300 साल पुरानी रंगभेद समस्या की परतें उघड़ कर सामने आ गईं।महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला जैसे लोगों का उदाहरण हम रंगभेद के खिलाफ संघर्षों के लिए हमेशा से सुनते आए हैं। अब तो विज्ञान और कला ने भी नस्लीय मतभेदों को दर्शाने के लिए रंग का भेद करना शुरू कर दिया। रंग नस्लीय मतभेदों को व्यक्त करने का एक तरीका बन गया है। सदियों से गोरेपन और इससे जुड़े विशेषाधिकार और शक्ति दुनिया भर में सुंदरता, बुद्धिमत्ता, स्थिति और अखंडता के मानक बने रहे हैं। जरूरी है कि इस रंगभेदी विचार के प्रति सामाजिक रूप से जागरूकता पैदा की जाए, इसका बहिष्कार किया जाए और प्रकृति द्वारा प्रदत्त सभी रंगों को दिल खोलकर अपनाया जाए।

(लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं)

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