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Bharatiya Kala Aur Sanskriti: कला जगत की बिसरे हिस्से को मंच की है तलाश
Bharatiya Kala Aur Sanskriti Kya Hai: विशेषकर जब कोई विदेशी मेहमान हमारे देश की धरती पर आता है तब उनको भारत की संस्कृति दिखाने के लिए ऐसे कलाकारों के कार्यक्रम या तो एयरपोर्ट के बाहर प्रस्तुति के लिए रखे जाते हैं या फिर कुछ सरकारी कार्यक्रमों में इस तरह की प्रस्तुतियां होती हैं।
Bharatiya Kala Aur Sanskriti Kya Hai: कोई भी कला साक्षी होती है अतीत की, आईना होती है वर्तमान का और भविष्य की कल्पना होती है। भारत के प्रत्येक अंचल की अपनी कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक, पारंपारिक व आदिवासी लोक कलाएं है और ये लोक कलाएं और कलाकार मूलतः गांवों और क्षेत्रीय अंचलों से आते हैं। इनमें से ज्यादातर कलाएं प्रायः सामान्यजनों और आदिवासियों के द्वारा संरक्षित एवं अपनाई गईं कलाएं होती हैं। ग्रामीण परिवेश और लोक संस्कृति में रचे-बसे आचार, व्यवहार ही तो कला तत्व के रूप में देश की लोक कलाओं को समृद्ध करते हैं। भारत सरकार गणतंत्र दिवस पर पद्मश्री, पद्मभूषण सम्मानों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के अलग-अलग लोगों को उनके अवदान के लिए सम्मानित भी करती है, जिससे हमें उन छिपे हुए कलाकारों के नाम पता चलते हैं जिनके बारे में हम अमूमन जानते ही नहीं है। तब हमें पता चलता है कि देश की मिट्टी में कितने ऐसे हीरे हैं जो कि अपनी चमक से दूसरों को भी प्रकाशित कर सकते हैं, पर मिट्टी में ही दबे-छुपे रह जाते हैं। जितने नाम सामने आते हैं उससे कहीं अधिक संख्या ऐसे नामों की होती है जो कि सामने ही नहीं आ पाते हैं और जो सामने आ भी जाते हैं क्या उनको बाद में भी अपनी कला का, अपनी सांस्कृतिक पहचान का वह हिस्सा मिल पाता है जिसके वे भागी होते हैं, अधिकारी होते हैं। वे अपने हिस्से का मंच, अपने हिस्से की कला को लेकर बिसरा दिए जाते हैं।
गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों में भारत की संस्कृति और सांस्कृतिक विविधता की झलक कर्तव्य पथ पर और अलग-अलग कार्यक्रमों में दिखाई देती है। वहां हम उन लोक कलाकारों को देखते हैं। विशेषकर जब कोई विदेशी मेहमान हमारे देश की धरती पर आता है तब उनको भारत की संस्कृति दिखाने के लिए ऐसे कलाकारों के कार्यक्रम या तो एयरपोर्ट के बाहर प्रस्तुति के लिए रखे जाते हैं या फिर कुछ सरकारी कार्यक्रमों में इस तरह की प्रस्तुतियां होती हैं। इसके अलावा अगर कोई लोग गायक या लोक कलाकार सामाजिक तौर पर लोकप्रिय है तो उसे कार्यक्रमों में बुला लिया जाता है, अन्यथा लोक कलाकार अपनी कला को अपने साथ ही लिए चले जाते हैं।
आखिर उनकी इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है? हमारे देश में किसी भी तरह की कला पर न तो रोजगारमूलक शिक्षा दी जाती है और न ही उस पर लिखी हुई किताबें भी बिकती हैं। प्रकाशकों को भी तो वही विषय, वही किताबें और लेखक भाते हैं जो कि हॉटकेक की तरह बिकें। कलाकारों पर लिखी गई किताबें या कला पर लिखी गई किताबों को हिंदी सहित क्षेत्रीय भाषाओं में अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। कलाकारों को अपने नए सृजन करने से, नई कला सिद्धांतों को गढ़ने से ही फुर्सत कहां मिलती है जो कि वे उसकी प्रदर्शनी भी करें और उनकी ब्रांडिंग भी। भारतीय कला जगत ने (यहां कला का अर्थ सिर्फ चित्रकला या मूर्ति कला से ही नहीं बल्कि लोकनृत्य कला, लोक गायन कला और लोक वाद्ययंत्र कला से भी है) ऐसे तमाम कला के सिद्धहस्तों को बिसरा दिया है या उनको उतना मान नहीं दिया गया है जिसके वे हकदार हैं।
कला न तो स्वयं बोल सकती है और न ही खुद की व्यथा को लिख सकती है। पर यह कलाकार वे शख्सियत होते हैं जो अपने नृत्य, वाद्ययंत्रों, स्वर, पेंटिंग आदि के द्वारा विभिन्न भावो, संवेदनाओं और रागों के माध्यम से दुःख, खुशी, विषाद को मुखर रूप से लिख देते हैं, प्रदर्शित कर देते हैं। इनमें से कई कलाकारों को राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिलती है अपनी कला के माध्यम से पर अधिकांशतः की कला उनको कभी भी रोजगार तक नहीं दिला पाती या अपनी कला से संबंधित उस तरह का रोजगार नहीं दिला पाती जिससे वे अपनी कला के प्रति सम्मान महसूस कर सकें। अपने मन में इसकी टीस लिए हुए या तो वे अपनी कला का साथ छोड़ देते हैं और अन्य रोजगारों में लग जाते हैं या फिर औने-पौने दामों में अपनी कला को बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं। उनमें से भी जिनकी पहुंच ऊपर तक हो पाती है, वे अपनी कला का प्रदर्शन बड़े -बड़े पांच-सात सितारा होटल की लॉबी में कर लेते हैं और कितने ऐसे होते हैं जिनको कहीं भी स्थान नहीं मिलता, वे अपनी कला को मंदिरों या बाजार में फुटपाथ पर प्रदर्शित करते दिखाई दे जाते हैं। आपने भी देखा होगा मंदिर की सीढ़ियों पर सारंगी, बांसुरी या हारमोनियम बजाते हुए उन गुमनाम कलाकारों को, जिनकी दुर्दशा किसी से भी छिपी नहीं है। कुछ सिक्कों या रुपयों की आस में वहां बैठकर अपने वाद्य यंत्र पर अपनी कला को बिखेरते ये कलाकार अपनी कला को नहीं बल्कि उसे दर्द को बिखेर रहे होते हैं, जिसका उन्हें कभी सिला ही नहीं मिला। ऐसे कलाकार अपनी जिंदगी के आखिर तक भी भले ही अपने साज को, अपनी कला को खामोश नहीं होने देते हैं पर अपनी जिंदगी को गुमनामी के अंधेरों में ही व्यतीत करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उनकी यह स्थिति हमारी सामाजिक बदहाली का सूचक नहीं बल्कि हमारी कलापक्षीय मानसिक बदहाली का सूचक है।
ये कलाकार जो कि सामाजिक बदलाव के वाहक होते हैं, देश और समाज को अपनी सांस्कृतिक विरासत और धरोहर से जोड़े रखते हैं, उनकी कला और उन कलाकारों के उन्नयन पर हम कभी भी बात नहीं करते। कभी किसी भी शास्त्रीय और लोककला को न तो उतने दर्शक मिलते हैं और न ही समझने वाले जो कि आधुनिक पश्चिमी कला को मिलते हैं। ये प्रतिभाशाली कलाकार 2 जून की रोटी के लिए हमेशा संघर्ष करते दिखाई दे रहें होते हैं। सच मायनों मेंआज कला वास्तव में एक सामग्री या अर्थ कमाने का साधन बनकर रह गई है। जबकि कोई भी कला किसी भी कलाकार के व्यक्तिगत अनुभव, कौशल, मेहनत और अनुभूतिपरकता से उपजती है , उससे बनी होती है। और आज की स्थिति में परिवर्तन हो चला है।अब हम कला को मनोरंजन के क्षेत्र में खोजते हैं। अब हम कला को यूट्यूबरों और ब्लॉगर्स के माध्यम से देखते हैं।
अब हम कल के प्रति उदासीन हो चले हैं, क्योंकि हमें लगने लगा है कि भारतीय सांस्कृतिक कलाओं को समझने के लिए इतना गहरा उतरना होता है कि अब हम उसे लायक ही नहीं बचें हैं कि हम इतना गहराई में उतरकर उन कलाओं को समझ सकें। अब हमारा दिमाग बहुत ही सतही हो चला है और हम क्षणिक सुख में ही, क्षणिक शांति में ही प्राप्त कला से संतुष्ट हो जाते हैं। इसीलिए अब हमारे मनोरंजन के साधन बदल गए हैं। कला कभी भी मनोरंजन का साधन नहीं होती है बल्कि कला तो मानसिक शांति, मानसिक प्रगति का साधन होती है। यही कारण है कि हमारे देश की सांस्कृतिक लोक परंपराएं, लोक नृत्य, लोक कलाएं, लोक वाद्य अब अगली पीढ़ी को हस्तांतरित नहीं हो रहे हैं। और इन कलाओं की जानकार पीढ़ी अब बुजुर्ग होती जा रही है और यह कला अब धीरे-धीरे करके इतिहास के पन्नों में सिमटती जा रही है। दूर क्यों देखें, हम अपने आसपास ही ऐसे बहुत से कलाकार पाएंगे जिनकी कला उनके साथ ही खत्म हो जाएगी और उसको आगे संवारने वाला नामलेवा कोई भी नहीं होगा। सरकार के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को भी इस ओर ध्यान देना होगा कि हम अपने लोक कलाकारों को उनके हिस्से का सम्मान, उनके हिस्से का मंच प्रदान कर पा रहे हैं या नहीं।
(लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं।)