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बिहार बच गयाः मोदी का दम न होता, नीतीश ने डाल दिये थे हथियार

नीतीश की ग्रहदशा कैसी रहेगी? भाग्यवान होंगे तो छींका फूटेगा। कितने माह मुख्यमंत्री वे रह पायेंगे? भाजपा कब तक कृपालु रहेगी? और फिर क्यों? अभी तो वे चौथी बार मुख्यमंत्री बनेंगे भाजपा की उदारता से और मोदी, अमित शाह तथा जेपी नड्डा की वचनपूर्ति के कारण।

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Published on: 11 Nov 2020 9:25 PM IST
बिहार बच गयाः मोदी का दम न होता, नीतीश ने डाल दिये थे हथियार
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के. विक्रम राव

बिहार बच गया। चुनावी अभियान जबरदस्त था कि लालू वंश सत्तारूढ़ हो जाय। पन्द्रह वर्ष का अन्तराल जो हो गया था। राबडी देवी तो मुख्यमंत्री बन चुकी थीं तीन दशक पूर्व। वे पांचवी तक पढ़ीं हैं। तेजस्वी, उनके 31—वर्षीय पुत्र, नामित उत्तराधिकारी है। वे नौंवीं पास हैं। अगर नरेन्द्र मोदी चुनाव प्रचार कार्य में ओवरटाइम न करते तो नीतीश ने तो हथियार डाल दिये थे। वाक ओवर था। चुनाव परिणाम से यह साबित भी हो गया।

कोई कसर नहीं छोड़ी थी

विधानसभा के 243 सीटों में बमुश्किल 43 सीटें जदयू ने पायीं हैं। अब वे चौथी बार मुख्यमंत्री बनेंगे तो भाजपा की उदारता से और मोदी, अमित शाह तथा जेपी नड्डा की वचनपूर्ति के कारण। राजनीति में ऐसा वादा निभाना ही अदभुत है। क्योंकि नीतीश ने हार जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

महागठबंधन कल रात (10 नवम्बर) मतगणना में कुलाचे भर रहा था, भाजपा भी गति तेज कर रही थी और 74 सीट जीतकर अकेले सबसे बड़ी पार्टी बन गयी थी। मगर जनता दल (यू) 43 सीट ही जीत पाई। तभी वह नीचे खिसकती जा रही थी। खूंटी भी नहीं गाड़ पा रही थी।

स्पष्ट हुआ कि यदि नरेन्द्र दामोदरदास मोदी दम न लगाते तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन मुख्य विपक्ष ही बन सकता था। सनसनी टीवी बहस में शुरु हो गई थी कि कौन साझा नेतृत्व का दावेदार होगा।

फुटबाल की तरह सीएम पद

विगत राजनीतिक स्थिति पर दृष्टि डालें तो दिखेगा कि बिहार का मुख्यमंत्री पद फुटबाल की तरह रहा है। शाट हर खिलाड़ी लगाना चाहता रहा, पर छू नहीं पाता है। मसलन आज जैसे लालू के ज्येष्ठ पुत्र तेजस्वी यादव महागठबंधन में शिल्पी बनकर मुख्यमंत्री बनते—बनते रह गये।

उनकी मां राबडी देवी बिना नोटिस के मुख्यमंत्री नामित हो गईं थीं। उनकी सगी बहने जलेबी देवी, रसगुल्ला देवी और इमरती देवी तब चर्चित हो चुकी थीं। वे समझी थीं कि यह मुख्यमंत्री का पद वंशानुगत होता है।

तेजस्वी के जन्म के दो वर्ष पूर्व की घटना है। तब चारा घोटाला में पहली बार लालू यादव को पटना के बेऊर जेल जाना पड़ा। जद के प्रधानमंत्री इन्दर गुजराल ने उन्हें समझाया कि अपने किसी विश्वसनीय व्यक्ति को गद्दी सौंपे। पत्नी से विश्वसनीय कौन होगा ? सोचा होगा लालू ने।

साला साधू यादव कुर्सी न छोड़ता। तेजस्वी तब अवतरित नहीं हुये थे। अत: प्रधानमंत्री की राय से राबडी देवी मुख्यमंत्री बनी। पहला काम था उनका कि कम से कम पांच अक्षर तो सीख लें (राबडी देवी), हस्ताक्षर के लिए। बाकी तो सरकारी अमला संभाल लेगा।

तो नौवीं फेल मुख्यमंत्री होता

अर्थात ऐसा ही होता यदि कल के चुनाव परिणाम में महागठबंधन को बहुमत मिल जाता। वायदे के मुताबिक बिहार के एक नौंवी फेल मुख्यमंत्री को अनपढ़ होने के बावजूद दस लाख नौकरियों का सृजन करना पड़ता।

राबडी देवी भी तब तेजस्वी को अपने मुख्यमंत्री काल के अनुभवों से प्रशिक्षित कर रही थीं। क्या जोड़ी बनती! उनकी एक ही अधूरी हसरत थी कि बिहार विकसित राज्य बने। पुत्र पूरा कर देता।

उन्होंने संवाददाताओं से कहा भी था (26 दिसम्बर 2003 : हिन्दुस्तान टाइम्स) कि यदि उनके पति प्रधानमंत्री हो जाये तो बिहार का विकास त्वरित होगा क्योंकि वे ही बिहार की तरक्की काफी कर चुकें हैं।

आशंकित विपदा

इस विधानसभा के निर्वाचन से आशंकित विपदा को आम भारतीय को चिन्हित करना जरुरी है। लद्दाख पर चीन का खतरा हो और माओवादी कम्युनिष्ट खुले आम बिहार विधानसभा में जीतें! वे चीन के माओ को अपना प्रेरक तथा अध्यक्ष मानते हैं। कोई कैसे निपटेगा उनसे?

इस चुनाव में एक परिणाम अच्छा हुआ कि पैराशूट के सहारे अवरोहित हुये सभी नेता पराजित हो गये। एक एक्टर थे शत्रुघ्न सिन्हा। अटलजी की कैबिनेट में मंत्री थे। उनके युवा पुत्र लव सिन्हा सोनिया—कांग्रेस के प्रत्याशी बनकर पटना में बांकीपुर से लड़ गये। बुरी तरह हार गये।

इनकी मां पूनम सिन्हा लखनऊ से गत लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार थी। जमानत ही जब्त हो गई थी। अर्थात् सब खानदानी लोगों को बिहार के मतदाता ने धिक्कार दिया।

अभिनय में लौट सकते हैं

कुछ बातें देश के नये, नौसिखिये नेता चिराग पासवान के लिए भी। वही पैराशूटी प्रवृत्ति। राजीव—पुत्र राहुल गांधी टाइप। अपनी मां श्रीमती रीना शर्मा, जो पूर्व में एअर होस्टेस रहीं, का आशीर्वाद लेकर चिराग (लोकजनशक्ति पार्टी) की मार्फत मैदान में आ गये।

सीमित मकसद था कि पिता के शत्रु नीतीश कुमार को हानि पहुंचाना। अत्यन्त सफल रहे। हालांकि उनका केवल एक ही विधायक चुना गया। अब प्रधानमंत्री को सोचना पड़ेगा कि भीतरी शत्रु को कब तक बर्दाश्त करें? चिराग पासवान फिर फिल्मी अभिनय में लौट सकते हैं। जहां वे थे।

इस चुनाव में एक दिलचस्प बात हुयी। मुस्लिम मतदाताओं का वोट एकजुटता से पड़ता था। मिल्लत के फतवे पर। इस बार सीमांत अंचल से लालू यादव के पारम्परिक (मुस्लिम—यादव) वोट बैंक की तरफ से लोग लड़े।

ओवैसी ने दी कट्टर मजहबियों को शिकस्त

मगर हैदराबाद के इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सलाउद्दीन औवैसी ने इन कट्टर मजहबियों के विरूद्ध किशानगंज क्षेत्र से अपने प्रत्याशी खड़े कर दिये। उनके पांच लोग जीत गये। हानि हुयी सोनिया—कांग्रेस के प्रत्याशियों को। अब्दुल बारी सिद्दीकी कांग्रेसी पराजितों में खास रहे।

इस बार सत्ता न पाने का बड़ा मलाल इस लालू—राबडी यादव कुटुम्ब को अवश्य रहेगा। पांच वर्ष बाद सोचा होगा कि इस दफा राजकोष पायेंगे। सारे अभाव दूर हो जायेंगे। यूं चारा घोटाले में सम्पत्ति तो काफी लम्बी थी। दो दशक हो गये थे। दस लाख नौकरियों इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है। बात बनी नहीं।

एक त्रासदी और। चुनावी अभियान में तेजस्वी चीखते थे कि नौ नवम्बर के दिन दो शुभवार्तायें आयेंगी। उनके 31वें जन्मदिन के जलसे पर मुख्यमंत्री पद का शपथ ग्रहण, और लालू यादव की जमानत पर रांची जेल से रिहाई भी इसी दिन होनी थी।

चुनाव में जीतते तो शपथ होता। लालू यादव की जमानत याचिका पर सुनवाई रांच हाईकोर्ट ने टाल दी। जन्मदिन किरकिरा हो गया था। कहावत भी है कि विपत्तियां झुण्ड में आती हैं।

नीतीश की ग्रहदशा कैसी रहेगी? भाग्यवान होंगे तो छींका फूटेगा। कितने माह मुख्यमंत्री वे रह पायेंगे? भाजपा कब तक कृपालु रहेगी? और फिर क्यों?

K Vikram Rao

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