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कोरोना काल में भारत में 2 करोड़ बच्चों का जन्म बेहद चिंता का विषय

कुल मिलाकर इस पूरी बात का इतना सा फसाना है कि संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार 2020 के मध्य वर्ष तक भारत की अनुमानित आबादी 1,380,004,385 का ये डराने वाले फीगर कैसे भी हो नियंत्रित करने के उपायों में ताकत झोंकनी होगी।

राम केवी
Published on: 16 May 2020 9:25 AM GMT
कोरोना काल में भारत में 2 करोड़ बच्चों का जन्म बेहद चिंता का विषय
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रेखा पंकज

कोरोना वायरस के बाद दुनिया वैसी नहीं नहीं रहने वाली जैसी पहले थी. जरूरी है कि अब हम वे गलतियां न करें जो हमने पूरी 20वीं शताब्दी के दौरान और 21वीं सदी में अब तक की हैं. इसका मतलब है कि हमें कुछ बुनियादी सुधार करने होंगे. तभी यह सुनिश्चित हो सकेगा कि हमें फिर कभी ऐसी महामारियों का बड़ी तादाद में प्राणों की बलि देकर मूल्य न चुकाना पड़े...

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष यूनीसेफ का अनुमान है कि मार्च में कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किए जाने के बाद से नौ महीने के भीतर (दिसंबर) तक भारत में रिेकॉर्ड स्तर पर दो करोड़ से ज्यादा बच्चों का जन्म होने की संभावना है।

यूनीसेफ ने आगाह किया है कि दुनिया भर में वैश्विक महामारी के दौरान गर्भवती महिलाएं और इस दौरान पैदा हुए बच्चे प्रभावित स्वास्थ्य सेवाओं के संकटों का सामना कर रहे हैं।

कोरोना संकट में 11.6 करोड़ बच्चों का जन्म होगा

मदर्स डे से पहले यूनीसेफ ने एक आंकलन में कहा है कि दुनिया भर में कोविड-19 महामारी के साए में 11.6 करोड़ बच्चों का जन्म होगा। चीन में 1.35 करोड़, नाइजीरिया में 64 लाख, पाकिस्तान में 50 लाख और इंडोनेशिया में 40 लाख बच्चों के जन्म की संभावना है।

कोरोना वायरस को 11 मार्च को वैश्विक महामारी घोषित किया गया था और बच्चों के जन्म का यह आंकलन 40 सप्ताह तक का है। भारत में 11 मार्च से 16 दिसंबर के बीच 20.1 मिलियन यानी दो करोड़ से ज्यादा बच्चों के जन्म की संभावना है।

यूनीसेफ ने इस बात की ओर भी आगाह किया है कि ऐसी स्थिति में कोविड-19 पर नियंत्रण के लिए लागू कदमों की वजह से जीवन-रक्षक स्वास्थ्य सेवाएं, जैसे बच्चे के जन्म के दौरान मिलने वाली चिकित्सा सेवा प्रभावित होगी।

जाहिर है इसकी वजह से लाखों गर्भवती महिलाएं और बच्चे गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैं। यूनीसेफ ने यह विश्लेषण संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या संभाग के विश्व जनसंख्या अनुमान 2019 के आंकड़े के आधार पर किया है।

बढ़ती आबादी की प्रमुख चुनौतियाँ

कोरोना संक्रमण के समय जब केन्द्र सरकार नागरिकों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए गुणा-भाग कर आर्थिक पैकेज देकर अपनी दरियादिली पर पीठ थपथपवाना चाह रही तब भविष्स में होने वाले इस जनसंख्या विस्फोट की आहट को नहीं सुन पा रही।

इसके लिये भारत को सभी संभावित माध्यमों से अपने संसाधन को और अधिक बढ़ाने की जरूरत होगी। लेकिन क्या जरूरी नहीं कि हर साल बेलगाम सी बढ़ने वाली इस बेल का भी सरकार कुछ सुनोयोजित उपाय करें।

बच्चों की बढ़ती संख्या बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए है। अंधविश्वास, अज्ञानता और अषिक्षा के अलावा एक प्रमुख कारण परिवार नियोजन के बारे में लोगों के बीच जागरूकता का अभाव है।

यदि नियोजन द्वारा बच्चों को जन्म दिया जाए तो यह जनसंख्या नियंत्रण का सबसे कारगर साधन हो सकता।

जनसंख्या और शिक्षा में क्या है रिश्ता

दरअसल इस बढ़ती जनसंख्या का सीधा गणित माता-पिता, विशेषकर माता के स्वास्थ्य और शिक्षा के स्तर पर गहराई से संबधित हैं। कोई दंपति जितना निर्धन होगा, उसमें उतने अधिक बच्चों को जन्म देने की प्रवृत्ति होगी।

इस प्रवृत्ति का संबंध लोगों को उपलब्ध अवसरों, विकल्पों और सेवाओं से है। गरीब लोगों में अधिक बच्चों को जन्म देने की प्रवृत्ति पुत्र प्राप्ति के अतिरिक्त आर्थिक गतिविधियों में उनसे सहयोग की अधिक होती हैं।

एक तरह से कहा जाए तो भारत में गरीब परिवारों में अधिक बच्चों का पैदा करने के पीछे मूल कारण परिवार की आर्थिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करना अधिक हैं।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री माल्थस ने ‘प्रिंसपल ऑफ पॉपुलेशन’ में जनसंख्या वृद्धि और इसके प्रभावों की व्याख्या की है। माल्थस के अनुसार, ‘जनसंख्या दोगुनी रफ्तार (1, 2, 4, 8, 16, 32) से बढ़ती है, जबकि संसाधनों में सामान्य गति (1, 2, 3, 4, 5) से ही वृद्धि होती है।

परिणामतः प्रत्येक 25 वर्ष बाद जनसंख्या दोगुनी हो जाती है। हालाँकि माल्थस के विचारों से शब्दशः सहमत नहीं हुआ जा सकता किंतु यह सत्य है कि जनसंख्या की वृद्धि दर संसाधनों की वृद्धि दर से अधिक होती है।

कुपोषित बच्चों की संख्या में हो रही बढ़ोत्तरी

यूनिसेफ द्वारा जारी नई रिपोर्ट द स्टेट ऑफ द वल्र्डस चिल्ड्रन 2019 के अनुसार, दुनिया में पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा या दूसरे शब्दों में कहें तो 70 करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार है ।

बीस साल पहले जब कुपोषण की बात की जाती थी तो सबसे पहले एक दुबले पतले कमजोर बच्चे की छवि दिमाग में आती थी, जिसे खाने के लिए भरपेट भोजन नहीं मिलता था, पर आज कुपोषित होने के मायने बदल रहे हैं।

आज भी करोडो बच्चे कुपोषित हैं पर तस्वीर कुछ और ही है, यदि अफ्रीका को छोड़ दें तो आज सारी दुनिया में ऐसे बच्चों की संख्या कम हो रही है जिनकी वृद्धि अपनी आयु के मुकाबले कम है, जबकि आज ऐसे कुपोषित बच्चों की संख्या बढ़ रही है जिनका वजन बढ़ गया है और जो मोटापे की समस्या से ग्रस्त हैं।

दुनिया भर में करोड़ों बच्चे ऐसा भोजन करने को मजबूर हैं जो उनका पेट तो भर सकता है, पर उन्हें पोषण नहीं दे सकता।

बच्चों को नहीं मिल रहा जरूरी स्तनपान

आंकड़ों के अनुसार 6 से 23 महीने की उम्र के 44 फीसदी बच्चों को भोजन में फल या सब्जियां नहीं मिलती जबकि 59 फीसदी बच्चों दूध, दही, अंडे, मछली और मांस आदि नहीं मिल रहा। छह महीने से कम उम्र के 5 में से केवल 2 शिशुओं को अपनी मां का दूध मिल रहा है।

जबकि वैश्विक स्तर पर डिब्बा बंद दूध की बिक्री 41 फीसदी बढ़ गयी है। जो साफ संकेत है की बच्चों को जरुरी स्तनपान नहीं कराया जा रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीब परिवारों के 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 5 में से 1 बच्चे को पोषित आहार नसीब हो सका ।

वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) 2019 में भारत के लिए सबसे चिंताजनक स्थिति बच्चों की कमजोरी को लेकर जताई गई है। सूचकांक में कहा गया है कि भारत के बच्चों में कमजोरी की दर बड़ी तेजी से बढ़ रही है और यह सभी देशों से ऊपर है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, भारत में 2010 के बाद से लगातार बच्चों में कमजोरी (वेस्टिंग) बढ़ रही है। 2010 में पांच सल तक के बच्चों में कमजोरी की दर 16.5 प्रतिशत थी, लेकिन अब 2019 में यह बढ़ कर 20.8 फीसदी हो गई है।

बच्चों के कमजोर होने का मुख्य कारण भोजन की कमी व बीमारियां

यूनिसेफ के मुताबिक, बच्चों का कम वजन के साथ कद में भी कमी आने को वेस्टिंग की श्रेणी में रखा गया है। यूनिसेफ का कहना है कि ऐसे बच्चों की मृत्यु होने की आशंका अधिक होती है। बच्चों के कमजोर होने का मुख्य कारण भोजन की कमी और बीमारियां है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन देशों में वेस्टिंग रेट 10 प्रतिशत से अधिक है, वे बेहद गंभीर स्थिति है और उस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार, 6 से 23 माह के 90.4 फीसदी बच्चों को जितने खाने की जरूरत है, उतना नहीं मिल पा रहा है

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान 102 पर है, जबकि इसमें केवल 117 देशों को ही शामिल किया गया है। इस रिपोर्ट में भारत में भूख का स्तर 30.3 अंक है, जो काफी गंभीर है।

यहां तक कि उत्तर कोरिया, नाइजीरिया, कैमरून जैसे देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं। पड़ोसी देश जैसे श्रीलंका (66 वां), नेपाल (73 वां), पाकिस्तान (94 वां), बांग्लादेश (88 वां) स्थान पर हैं और भारत से आगे हैं।

बच्चों का विकास रुकना चिंता का विषय

इंडेक्स में भारत में उच्च स्टंटिंग (बच्चों का विकास रुकना) दर के बारे में भी चिंता जताई गई है। हालांकि पिछले सालों के मुकाबले इसमें सुधार हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक 2010 में, भारत में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में स्टंटिंग की दर 42 प्रतिशत थी, जो 2019 में 37.9 प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य महत्व के मामले में दर भी बहुत अधिक है।

कुल मिलाकर इस पूरी बात का इतना सा फसाना है कि संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार 2020 के मध्य वर्ष तक भारत की अनुमानित आबादी 1,380,004,385 का ये डराने वाले फीगर कैसे भी हो नियंत्रित करने के उपायों में ताकत झोंकनी होगी। और ये किया जा सकता है बस कुछ सख्त कानून और जागरूकता अभियानों के कार्यान्वयन में तीव्रता लानी होगी।

Rekha Pankaj

9415501133

राम केवी

राम केवी

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