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Vision of PM Modi: सबका साथ, सबका विकास से बहक रही भाजपा !
Vision of PM Modi: मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनना नेता होने से पूरी तरह अलहदा होता है। नरेंद्र मोदी में दोनों हुनर हैं। दोनों उपलब्धियाँ हैं।
Vision of PM Modi: साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी दिल्ली की गद्दी के लिए अपना अभियान शुरू कर रहे थे तो उनके सामने सबसे बड़ी चिंता यह थी कि कैसे केवल बहुसंख्यकों के बल बूते मैदान में उतरा जाये। उनकी दिक़्क़त यह थी कि वह अगर मुसलमानों को 'एड्रेस' करते हैं, तो उनकी बनी बनाई छवि भी तुष्टिकरण के खाँचें में फ़िट कर दी जायेगी। पर यदि नहीं 'एड्रेस' करते हैं तो क्या अल्पसंख्यक वोटों की भरपाई में बहुसंख्यक एकजुट हो पायेंगे? नरेंद्र मोदी की उस समय की चिंता का जवाब जनता ने उनकी प्रचंड बहुमत की सरकार बना कर दिया। हालाँकि उन्होंने भी 'सबका साथ- सबका विकास' बोल कर मुसलमानों को भी अप्रत्यक्ष रूप से संबोधित किया। आगे उनके इस नारे में और शब्द जुड़ते चले गये।
नरेंद्र मोदी गोधरा- अहमदाबाद की क्रिया व प्रतिक्रिया से उपजे हुए नेता हैं। हालाँकि वह मुख्यमंत्री पहले बन गये थे। मेरी नज़र में विधायक, सांसद, मंत्री , मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनना नेता होने से पूरी तरह अलहदा होता है। नरेंद्र मोदी में दोनों हुनर हैं। दोनों उपलब्धियाँ हैं। गुजरात विधानसभा की 182 सीटों के लिए एक भी मुसलमान को टिकट न देने के बाद भी बहुमत की सरकार बना लेने, दुपल्ली टोपी पहनने से इंकार करने आदि फ़ैसलों से वह बहुसंख्यकों के दिलों में जगह पाते चले गये।
वह भी तब गुजरात में मुस्लिम आबादी लगभग 10 प्रतिशत है । लेकिन 1998 के बाद से ही अभी तक मंत्री पद का प्रतिनिधत्व कोई मुसलमान नहीं कर पाया हैं । गुजरात की 25 विधानसभा की सीटों पर मुस्लिम समुदाय की अच्छी खासी पकड़ है।आज से 24 वर्ष पहले बीजेपी ने चुनाव लड़ने के लिए एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार को चुनावी मैदान में उतारा था। जबकि दूसरी ओर कांग्रेस ने पिछले विधानसभा के चुनावों में 10 मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव के लिए टिकट दिया था।
बहुसंख्यकों को दिलों में उतरते चले गये प्रधानमंत्री
अहमदाबाद की क्रिया- प्रतिक्रिया के बाद तमाम जाँचों की जद में डाल कर केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा परेशान किये जाने के चलते वह बहुसंख्यकों को दिलों में उतरते चले गये। एक ऐसा नेता जो हिंदुत्व वादी भगवा पार्टी के एजेंडे- अयोध्या, मथुरा, काशी किसी का हिस्सा न रहा हो फिर भी बहुसंख्यक उन पर जान छिड़कता हो, यह एक अद्भुत व विस्मयकारी संयोग मोदी में देखने को मिलता है। उन्होंने हिंदुत्व के साथ विकास का अभिनव व सफल प्रयोग कर दिखाया।
प्रधानमंत्री के तौर पर तो मोदी इतिहास में जगह बनाने में कामयाब हुए ही हैं, पर इससे बड़ी और ऐतिहासिक सफलता व कामयाबी उनकी जातियों में बंटे बहुसंख्यक समाज को एक जुट करने में दिखी। राष्ट्रवाद के उभार में दिखी। लंबे समय से चली आ रही इतिहास की ग़लत व्याख्याओं को ठीक करने में दिखी। बिना किसी जंग के अल्पसंख्यकों की पराजय में दिखी। बहुसंख्यकों की विजय में दिखी। हिंदू स्वाभिमान के अहसास में दिखी। राम मंदिर के निर्माण में दिखी। देश के महत्वपूर्ण शक्तिपीठों व देवस्थानों के पुनर्निर्माण में दिखी। देश के सभी नेताओं के मंदिर मंदिर घूमने में दिखी। चंडीपाठ करते, हनुमान चालीसा पढ़ते नेताओं में दिखी। सपनों में भगवान के आने के दावों में दिखी।
पर इन दिनों मोदी की इस यूएसपी को उनके रणनीतिकार नये ढंग से गढ़ते हुए दिख रहे है। मोदी के लिए अल्पसंख्यक वोट जुटाने की जुगत देखी जा रही है। हैदराबाद में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने का संकेत देते दिखे। पसमंदा के मार्फ़त इसे अंजाम देने की उम्मीद जगाई जा रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा पसमंदा मुसलमानों को साधने के लिए सम्मेलन आयोजित कर रही है। उत्तर प्रदेश, जहां अठारह फ़ीसदी मुसलमान हैं, 24 जिले ऐसे हैं, जहां मुस्लिमों की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा है। संभल, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, बहराइच, मुजफ्फरनगर, बलरामपुर, मेरठ, अमरोहा, रामपुर, बरेली, श्रावस्ती में मुस्लिम आबादी 35 फ़ीसदी से 52 फ़ीसदी तक है। यूपी की 403 सीटों वाली विधानसभा के लिए एक भी मुस्लिम उम्मीदवार न उतारने वाली भाजपा, निकाय चुनाव में मुसलमानों को टिकट देने के फ़ार्मूले पर काम कर रही है! चालीस - पैंतालीस फ़ीसदी मुस्लिम आबादी वाली विधानसभा व लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा यह कहती सुनी जा रही है कि करीब सौ से अधिक नगर पंचायतें और नगर पालिकाएं मुस्लिम बहुल हैं, इनमें मजबूती से चुनाव लड़ने के लिए पार्टी को मुस्लिम प्रत्याशी ही मैदान में उतराना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश के संगठन महामंत्री रहे सुनील बंसल ने मुस्लिमों की धोबी, नाई, कसाई और लुहार जैसी बिरादरियों तक पहुंचने का प्लान तैयार किया हो। भाजपा ने जिन 8 जातियों को साधने की रणनीति तैयार की है, उनमें मलिक (तेली), मोमिन अंसार (जुलाहा), कुरैश (कसाई), मंसूरी (धुनिया), इदरीसी (दर्जी), सैफी (लुहार), सलमानी (नाई), हवारी (धोबी) शामिल हैं।
जिस भी शख़्सियत की 'स्ट्रेंथ' उसकी 'वीकनेस' हो जाती है तो उसके लिए लक्ष्य से फिसलने का भय दूसरों की तुलना में तेज होता है। जब तीन तलाक़ के खिलाफ खड़े हो कर के अठारह से चालीस साल तक की महिलाओं को मोदी सरकार राहत पहुँचा चुकी हो। लाभार्थी वर्ग का बड़ा हिस्सा मुसलमान भी रहे हों, तब भी यदि अल्पसंख्यक जमात का वोट नरेंद्र मोदी के पक्ष में नहीं आया है, तो किसी नई रणनीति से, नई जुगत करना "आधी तज सारी.." की कहावत में फँसने जैसा है।
लंबे समय तक अस्पृश्य रहे
मोदी सियासी जगत में लंबे समय तक अस्पृश्य रहे हैं। अपनी तब की पार्टी में और दूसरों की पार्टी में भी। खुद को बुद्धिजीवी बताने और धर्मनिरपेक्ष साबित करने वालों के बीच भी। उनकी यह अस्पृश्यता जातीय नहीं, धार्मिक है। इसके पीछे मनुस्मृति नहीं है। इसके पीछे है कट्टरता। इसके पीछे है उन्माद। इसके पीछे है आतंकवाद। जो केवल भारत के भीतर से खाद पानी नहीं पा रहा है, बल्कि उसे दुनिया के तमाम देशों से पानी, मिट्टी और उर्वरक मिल रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का वह अंतरराष्ट्रीय चेहरा हों। समान नागरिक संहिता की ओर वह तेज़ी से बढ़ रहे हों। इन सबके मद्देनज़र मोदी और उनके रणनीतिकारों को 'सबका साथ, सबका विकास…, सबका विश्वास… सबका प्रयास ' से ज़्यादा आगे बढ़ने या इस लीक को छोड़ने की ज़रूरत महसूस नहीं होनी चाहिए।
लेकिन अब ऐसा नज़र आ रहा है। कुछ मजबूरी या रणनीति तो जरूर इसके पीछे होगी। कहीं, ऐसा तो नहीं कि मात्र एक मुद्दे पर बहुसंख्यकों को साधने के फेर में जिंदगी के अन्य जीवंत मुद्दे नज़रंदाज़ हो गए जिसका असर वोट छिटकने के रूप में आने का कोई खतरा है? अगर ऐसा है तो वह गम्भीर बात है और उसे 'एड्रेस' करना सबसे महत्वपूर्ण होगा क्योंकि डेढ़ साल से भी कम समय बाद एक बड़ा इम्तिहान सामने आना वाला है।
(साभार दैनिक पूर्वोदय ।)