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समय के आलेख: समय के चिंतक बन कर उभरते हैं योगेश मिश्र

Samay Ke Aalekh: समय के आलेख के जरिये जिस तरह से 38 लेखों की अलग अलग विषयवस्तु को पिरो कर एक समग्र माला तैयार की गयी है वह सच में बहुत ही सुन्दर बन गयी है।

Sanjay Tiwari
Written By Sanjay TiwariPublished By Shreya
Published on: 20 Jun 2021 9:27 AM GMT (Updated on: 20 Jun 2021 11:25 AM GMT)
समय के आलेख: समय के चिंतक बन कर उभरते हैं योगेश मिश्र
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समय के आलेख पुस्तक (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

योगेश मिश्र की सद्यः प्रकाशित पुस्तक समय के आलेख वास्तव में समय के दस्तावेज ही है। लगभग एक ऐतिहासिक युग की काल गाथा। इसमें से भी उन मुद्दों और चिंताओं को मील के पत्थर की भाँति शब्दाकार चित्रित कर सकने की क्षमता निश्चय ही योगेश मिश्र की संवेदना और रचनाधर्मिता को विशेष दर्जा प्रदान करती है। समय के आलेख का प्रथम लेख विदाई की संवेदना से शुरू हुई चिंतातुर प्रश्न यात्रा पुस्तक के आखिरी सोपान गीतकार की उपेक्षा तक जिस अविरलता से चल रही है वह अपने आप में अद्भुत है।

किसी भी लेखक की यह सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है कि उस समय को वह कितना और की तरह से चित्रित कर पाता है। यहां मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि योगेश जी ने अपने इन निबंधों में समय को ही गढ़ा है। उनको समय के आगे चले जाने का उतना दर नहीं है जितना की समय की जटिलताएं और विकृतियां उनको परेशान करती है।

एक समग्र माला

समय के आलेख के जरिये जिस तरह से 38 लेखों की अलग अलग विषयवस्तु को पिरो कर एक समग्र माला तैयार की गयी है वह सच में बहुत ही सुन्दर बन गयी है। विदाई की संवेदना से शुरू होकर गीतकार की उपेक्षा तक के सफर में योगेश ने जिन जिन विन्दुओं को टटोलने की कोशिश की है वह कोई मामूली फलक नहीं बनाता। इतने विषयों को लेकर एक लेखक की चिंतन शैली और प्रक्रिया इतने सहज स्वर में उद्घाटित हो पाना अपनेआप में विलक्षण है, और इस प्रक्रिया को योगेश ने बहुत ही संजीदगी से पूरा किया है।

इस चिंतन में वन, नदी, जल, जन, गन, मन, राजनीति, समाज, साहित्य, सिनेमा, संस्कृति और संवेदना की सीधी दर सीढ़ी चिंताओं की प्रस्तुतियों से लेखक की संवेदनशीलता का पता चलता है। शॉर्टकट का अर्थशास्त्र शीर्षक के लेख में लेखक कहता भी है - आम आदमी आज इसलिए परेशान नहीं है की देश का राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, प्रशासनिक अधिकारी, परकार, डॉक्टर, वकील, आदि- इत्यादि क्या कर रहे है? ऐसा क्यों कर रहे है ? वरन उसकी परेशानी का सबब यह है कि वह क्यों नहीं वह सब कर पा रहा है, जो इन तबको के लोग कर रहे है या फि वह अपने छोटे पाप, छोटी गलती या फिर छोटी बेईमानी सरीखी बड़ी गलती से ढक रहा है। जुमला यहाँ तक जा पहुंचा है किईमानदार वह है, जिसके पास बेईमानी के अवसर नहीं है।

इसी प्रकार निरन्तर निरीह होती नदी नामक निबंध में वह कहते हैं- नदी तो प्रतीक रही है भारतीय संस्कृति की। संस्कृति जो सजल है। निरन्तर है। तरंगित है। अबाध है। जीवन भी एक नदी। है। यह नदी मीनार उठाती, मीनार होती, अथक प्रवाहित होती है। धुप में झिलमिलाती है, छाव में गुनगुनाती है। यह नदी हर शताब्दी के कान में गूढ़ रहस्यों के अर्थ उद्घाटित करती है। जहां यह मुड़ती है वहां संस्कृतियों के टर्निंग पॉइंट प्रारूपित होते है।

हर शब्द करते हैं संवाद

लेखक के रूप में योगेश की ये चिताएं ही उनको समय के चिंतक के रूप में स्थापित कर देती है। आंबेडकर को हथियार मत बनाइये, आँगन का सिमटता लोकतंत्र, जन गण मन, भारतीय भाष , बाजार में खड़ी सुंदरता, विश्व में वीरता की कहानी रह जायेगी, हिन्दू होने का निहितार्थ, हमारे गणतंत्र के धब्बे, कबीर का मगहर शीर्षक के उनके निबंधों की चोट और पीड़ा हर सामान्य भारतीय की पीड़ा बन लार उभरती है। यद्यपि ये निबंध किसी खास समय पर लिखे गए है लेकिन इनकी अतिशय सम्प्रेषणीयता और प्रासंगिकता लेखक के फलक से रूबरू कराने में बेहद संजीदा जान पड़ते हैं। योगेश की लेखन शैली की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह हर शब्द संवाद करते चलते हैं। इससे इनके निबंध और भी प्रासंगिक बन जाते है।

पुस्तक की भूमिका में अच्युतानंद मिश्र की यह टिप्पड़ी बिलकुल सटीक है कि योगेश ने इस पुस्तक के माध्यम से सकारात्मक हस्तक्षेप की साहसिक पहल की है। ललित निबंधों की शैली और बुनावट, गहरी पीड़ा, आवेग के साथ विसंगतियों पर चोट और काव्यात्मक गद्य का आकर्षण इन लेखों की पठनीयता को और भी रुचिकर बना देता है । योगेश का वैचारिक फलक बहुत व्यापक है। सामयिक प्रकाशन नयी दिल्ली से प्रकाशित योगेश मिश्र की यह पुस्तक वास्तव में समय का ही आलेख है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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