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Republic Day 2024: मौन से मुखर होती स्त्री शक्ति

Republic Day 2024: पुरुष के मन में हमेशा से ही स्त्री देह के प्रति एक आकर्षण रहा है, यही उसके स्त्री के प्रति द्वेष का भी कारण है, उसकी लिप्सा का भी कारण है और उसके प्रति नजदीकी का भी कारण होता है।

Anshu Sarda Anvi
Written By Anshu Sarda Anvi
Published on: 27 Jan 2024 8:42 PM IST
Women Power on 75th Republic Day 2024
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Women Power on 75th Republic Day 2024

Republic Day 2024: हमारे देश ने अभी बीते शुक्रवार को अपना 75 वां गणतंत्र दिवस बड़े ही धूमधाम के साथ मनाया है। यह पहली बार था जब पूरी दुनिया ने कर्तव्य पथ पर देश की स्त्री शक्ति का शौर्य प्रदर्शन देखा। परेड की सलामी लेने वाली माननीय महिला राष्ट्रपति को सलामी भी महिलाएं हीं दे रहीं थीं। पहली बार तीनों सेनाओं और अन्य सुरक्षा बलों की सभी टुकड़ियों का नेतृत्व महिलाओं ने किया। ब्रिटिश काल में महिलाओं को सेना में सिर्फ नर्स की भूमिका का ही निर्वहन करने को मिलता था।पर अब समय में बदलाव के क्रम में महिलाएं आवश्यकता वश, कहीं मजबूरी वश, कहीं इच्छा वश कहें या जो भी समझें ,बंधन तोड़कर आगे बढ़ चुकी हैं। महिलाओं की रक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी अनुसंधान के क्षेत्र में सक्रियता के बदलाव का यह प्रतिशत भले ही कम हो पर अपनी उपस्थिति दर्ज करता है। लेकिन इतने भर से ही संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है। अभी यह सफर बहुत लंबा है और बहुत चलना बाकी है।

दरअसल वर्तमान समय में स्त्री की स्थिति एक त्रिशंकु की भांति है, जो अधर में परिवार, समाज, कर्तव्य, मातृत्व और इच्छाओं के बीच में लटकी हुई है। वह आज जितनी स्वतंत्र है उससे अधिक स्वतंत्र होने की कल्पना करना बेमानी है । क्योंकि क्योंकि अधिक स्वतंत्रता किसी को रास भी नहीं आएगी और स्वतंत्रता को भी निरंकुश होने से बचाना भी चाहिए। क्योंकि स्त्रियों ने यह स्थिति भी प्रतिकूल हवाओं के विपरीत संघर्ष करके अपने लिए बनाई है। इस समाज की सोच आज भी पारंपरिक है, भले ही कानून उसे चाहे जितना अधिकार दे। उसको नई परिस्थितियों में टकराव करना ही पड़ता है। अपनी पहचान का संघर्ष उसे कुछ जगह तो दिला देता है पर ऐसी नहीं कि उसकी चर्चा की जा सके। उसकी उपस्थिति स्वीकार्य तो है पर उसके गुणों के कारण नहीं बल्कि स्त्री होने के कारण। क्योंकि अगर स्त्री को ही आगे नहीं लाया जाएगा तो मानवीय गरिमा की, लिंग भेद समानता की बात कैसे की जाएगी।


पुरुष के मन में हमेशा से ही स्त्री देह के प्रति एक आकर्षण रहा है, यही उसके स्त्री के प्रति द्वेष का भी कारण है, उसकी लिप्सा का भी कारण है और उसके प्रति नजदीकी का भी कारण होता है। यही कारण है कि स्त्रियों को सिखाया जाता है कि उसके स्त्री होने की क्या शर्ते हैं और मातृत्व तो स्त्री का मौलिक गुण है, जो कि उसे पुरुषों से श्रेष्ठ करता है, सृजक बनता है। जबकि आंतरिक गुणवत्ता को देखें तो पुरुष और स्त्री दोनों एक ही पायदान पर खड़े पाए जाएंगे । लेकिन बाहरी परिस्थितियां उनके इतने प्रतिकूल गढ़ दी गई हैं, जिससे उनकी शक्ति और उनका विकास सब बाधित हो जाए। क्या सिर्फ शोषण या स्त्री दमन पर लिखने से या इसके बारे में बात करने से कुछ हासिल होगा? आज जितने भी कानून स्त्री के पक्ष में बने हैं, उन्हें समाज का पुरुष उदारवादी होने का मुखौटा पहनकर ऊपरी मन से स्वीकार भले ही कर ले। लेकिन उसके मन में उठा-पटक तो उसके विरुद्ध चलती ही रहती है। एक पुरुष ही अपनी पत्नी, बेटियों या घर की अन्य स्त्री सदस्यों को बाहर की दुनिया में जाने से रोकता है या एक लक्ष्मण रेखा खींचकर बाहर भेजता है।

क्योंकि वह जानता है कि बाहर का पुरुष समाज स्त्रियों को कैसे अपने लिए प्रयोग करता है, क्योंकि वह स्वयं भी तो इस दरख़्त का एक हिस्सा है। इन कानूनों के विरुद्ध जितना पुरुष वर्ग है उतना ही इनका कानून का प्रयोग भी पुरुषों ने स्त्रियों को ढाल बनाकर अपने लिए किया है। यह उनका ही बना जाल भी हो सकता है जहां वे अधिकांशतः खुद के स्वार्थ के लिए, स्त्रियों की रक्षा के लिए बनाए गए कानून का अपने लिए प्रयोग करते हैं। क्या बोल्ड होना, बोल्ड लिखना या बोल्ड होने का बिल्ला लगाकर घूमने से हम पुरुषों के बराबर हो पाएंगे या वे हमें अपने बराबर रख पाएंगे? किसी मंच पर पुरुषों के साथ इक्की-दुक्की महिलाओं को जगह मिल भी जाए तो भी क्या उनके योगदान की चर्चा हम अलग से कर पाएंगे?


स्त्रियों के लिए आज भी पुरुष वह स्टांप है जिसके ठप्पे की मोहर के बिना उन्हें अपने किए हुए काम को स्वीकृति मिलती दिखाई नहीं देती है। गॉड मदर का जमाना तो कभी आया ही नहीं था। लेकिन गॉडफादर का हाथ साथ होना आवश्यक है स्त्रियों के लिए। लेकिन स्त्रियां यह भूल जाती हैं कि एक गॉडफादर भी तो एक पुरुष है जिसके अंदर पहले अपनी विशिष्टता और श्रेष्ठता का गुण है। स्त्री को आज भी या तो भोग्य माना जाता है या महान दैवीय गुणों वाला बताकर पूजा की जाती है। स्त्री स्वयं एक मानव है , उसको दैन्य भाव से ही क्यों देखा जाना चाहिए हमेशा? क्यों हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह आपकी वह आपकी हर बात पर हां ही बोले। कुछ कहे भी तो समानता की बात करें, पुरुष और स्त्रियों के आपस में अच्छे, समान संबंधों और निष्पक्षता की बात करें पर भीतर खाते वह उसके लिए एक दोयम स्त्री हो जाती है, जहां एक भूमध्यीय दैहिक रेखा की बाध्यता हो। ऐसी बहुत सी बातों को स्त्री बोल नहीं सकती या लिख नहीं सकती जो कि पुरुष वर्ग आसानी से कर लेते हैं या अपनी चर्चा का विषय बना लेते हैं क्योंकि यह कहना या लिखना या तो कोई स्वीकार ही नहीं कर पाएगा या कर लेगा तो अपने पूर्वाग्रहों को कहां ले जाएगा?


राजनीतिज्ञों के लिए भी तो स्त्रियां इस समय एक बड़ा वोट बैंक है क्योंकि उनका झुकाव जिस तरफ होगा उसका सत्ता में रहना अधिक निश्चित हो जाएगा, ताजा उदाहरण मध्य प्रदेश का है हमारे सामने। महिलाओं के लिए भले ही सरकारें कितनी भी योजनाएं चला लें, आज भी महिलाओं की सुरक्षा बहुत उत्साहजनक नहीं है। बलात्कार या छेड़छाड़ के आरोपी या तो जेल जा ही नहीं पाते हैं या ऊँचे -रसूख वाले होने से जेल की हवा सरकारी मेहमान के जैसे खाकर चले जाते हैं । जरूरी है कि आत्मविश्वास पैदा करें स्वयं में। उसके लिए पुरुष वर्ग ही आपकी कार्यक्षमता पर अपना स्टैंप लगाकर स्वीकृति दे, उसकी इच्छा न करें। स्त्री जीवन का अपना अनुभव होता है, अपनी स्वाभाविक प्रकृति होती है उसके लिए उसे किसी अन्य के बने आदेशों या अपेक्षाओं को ढोने की आवश्यकता क्यों होती है? स्त्री की अपनी चेतना का, अपनी विचारधारा का पोषक होना होगा, उसे अपनी गरिमा पर ,अपनी पहचान पर गर्व करना आना होगा। ऐसी भी स्त्रियों को देखा है जो पुरुषों के स्टांप के बिना अपने ही दम पर आगे बढ़ी हैं। उन्होंने अपने दुखों, अपने संघर्षों से अकेले मुकाबला किया है। इसी बात पर मन्नू भंडारी की यह पंक्तियां याद आ गईं-

' मैंने अपनी पीड़ा किसी को नहीं बताई क्योंकि मेरा मानना है कि व्यक्ति में इतनी ताकत हमेशा होनी चाहिए कि अपने दुखों, अपने संघर्षों से अकेले जूझ सके ।'

अंत में प्यार के महीने फरवरी का दिल खोलकर स्वागत करने के लिए सभी तैयार हो जाइए। अस्तु।

( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं ।)

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