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पत्रकारिता की आहट को तोड़ते पत्रकार, लेखक, संपादक
Breaking the Silence:आवश्यक नहीं है जो पत्रकार हो, वह बहुत अच्छा साहित्यकार या लेखक भी हो। हो सकता है उसकी रिपोर्टिंग ठीक हो पर उसे लेखन में कोई रुचि न हो। संपादक एक अच्छा पत्रकार रहा हो यह आवश्यक तो है लेकिन कितना ? कई लोग गाहे- बगाहे ऐसे मिल ही जाते हैं जो कहते हैं
Breaking the silence of journalism Journalists writers editors ( Pic- Social- Media)
Breaking the Silence: पत्रकार, लेखक, संपादक होने को तीनों अलग-अलग श्रेणियां है पर एक दूसरे से संबद्ध ।आवश्यक नहीं है जो पत्रकार हो, वह बहुत अच्छा साहित्यकार या लेखक भी हो। हो सकता है उसकी रिपोर्टिंग ठीक हो पर उसे लेखन में कोई रुचि न हो। संपादक एक अच्छा पत्रकार रहा हो यह आवश्यक तो है लेकिन कितना ? कई लोग गाहे- बगाहे ऐसे मिल ही जाते हैं जो कहते हैं कि वह पत्रकार हैं, लेखक है या संपादक होने का दंभ भी भर लेते हैं। पर क्या वे इससे वाकै खुद को जोड़ पाते हैं? क्या सिर्फ एक अखबार या चैनल से जुड़ने पर ही किसी को लेखक या संपादक होने का बिल्ला हासिल हो जाना चाहिए ।आजकल के बढ़ते यूट्यूब चैनलों के खबरिया चैनलों की भरमार में हर कोई रिपोर्टिंग कर रहा है, जर्नलिस्ट है। रिपोर्टर इसलिए नहीं कहा जा सकता कि यूट्यूब के लिए किसी भी कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग करने आए लोग रिपोर्ट ही ठीक से नहीं कर पाते हैं तो उनका जर्नलिस्ट कहलाना भी ठीक नहीं है। यहां पत्रकार इसलिए नहीं लिखा कि आजकल पत्रकार कह देने से कोई पुराने से अखबार का पुराना सा बस्ता लिए, चश्मा लगाए, जैकेट पहने एक व्यक्ति की छवि उभर कर आ जाती है, जिसे आधुनिक संदर्भ में जर्नलिस्ट कह देना ही ज्यादा बेहतर है। जर्नलिस्ट कहने से उसकी कुछ पहचान सी लगने लगती है।
अब यह पत्रकारिता पर एक संकट यह भी आ चुका है कि हम सब कुछ ईजी गोइंग या सरल तरीके से कर लेने के आदी हो चुके हैं। अब पहले वाले जैसे पत्रकार नहीं रहे, जो ग्राउंड रिपोर्टिंग करते थे, जो जनमानस की रग को पहचानते थे, जो समाज से सरोकार रखते थे, समाज में हो रहे बदलावों से सरोकार रखते थे, वे कितने उचित और अनुचित है उसकी परख कर पाते थे। और तो और एक पत्रकार ही था जो ऐसे विषयों को उठाकर आम जनमानस को उसके प्रति जागरूक भी करता था। अब पत्रकार का अर्थ सिर्फ रिपोर्टिंग करना हो गया है किसी भी खबर की सिर्फ सूचना तक देने तक ही सीमित रह गया है। पहले संपादक एक संस्था के समान होता था। अब ज्यादातर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में संपादक एक संग्रहाक के जैसे या प्रबंधक के जैसे हो गया है, जिसका अपना कोई विचार नहीं होता। संपादक वह होता है जिसके लिखने की अपनी एक विशेषता होती है और उसके लिखे की चर्चा भी होती है और उसके लिखे से जनमानस की सोच का भी पता चलता है। उसकी कलम, उसकी बातें और उसका व्यवहार, आचरण एक संपादक का आचार- व्यवहार जैसा लगना चाहिए। आज की पीढ़ी के पत्रकार कहें, लेखक कहें या यह झूठ-मूठ वाले संपादक कहें, वे अब अपनी कलम को उतनी मजबूती से न तो लिख पाते हैं ,न हीं उनके व्यवहार और आचरण में भी वह संपादकत्व दिखाई देता है। अब संपादक भी अखबार को एक प्रोडक्ट के सामान लेने लगे हैं, उसका अपना मार्केट बनाने में लगे हैं।
अब कंटेंट राइटिंग के लिए लेखक मिलते हैं, जिनका विषय सिर्फ एक कंटेंट पर लिखना होता है। वे अब समाज में क्या बदल रहा है, क्या बदलाव चाहिए वैसा कुछ भी नहीं लिख पाते। बल्कि ऐसा लगता है मानो वह अपनी एक डायरी जैसा लिख रहे हों। अब संपादक संपादक नहीं बल्कि संग्रहाक जैसे हो गए हैं, जिनका काम रचनाओं को इकट्ठा करना होता है और उसे सजाकर देना होता है। उसमें अब संपादकीय गरिमा जैसा कुछ भी नहीं होता है। अब न तो पत्रकारों में , न लेखक में, न संपादक में वह भूख रह गई है कि वे खबरों को किस तरह से प्रस्तुत करें। दरअसल अब न तो पत्रकार मेहनत करना चाहते हैं, न हीं संपादक। अगर एक कार्यक्रम की खबर कई सारे अखबारों में दी गई है तो वह उसके शीर्षक तक बदलना उचित नहीं समझते हैं। अब खबरें ज्यादा से ज्यादा प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों में दी जाती हैं, दिखाई जाती हैं लेकिन उसके द्वारा सच का इंवेंशन कितना हो रहा है वह अब खत्म हो गया है। अब सिर्फ त्वरित पत्रकारिता का दौर है, अपने आप को तेज दिखाने का दौर है।
अब हर छोटे से छोटा यूट्यूब चैनल वाला भी मोबाइल लेकर एक कैमरामैन बन चुका है और न तो उसमें पढ़ने की ललक है और न ही लिखने का कोई आदत है। बस उसे तो सिर्फ कुछ कहना है जबकि उसके पास में कहने को भी कुछ नहीं है। सिर्फ बताना है और वह भी नई तकनीक के प्रयोग से वह बता तो देता है पर क्या वह उसको ठीक तरीके से बता पाता है? क्या वह उसमें मानवीय संवेदनाओं को लेकर आता है?अब खबरें हैं , खबरों की भीड़ है, हर कोई खबरों का एक्सपर्ट भी हो चुका है लेकिन उन खबरों की भीड़ में असली खबर ही नहीं मिलती है। अब सच सिमटता जा रहा है। अब बौद्धिक निवेश जैसी चीज खत्म हो गई हैं और एक सस्ती और हल्की पत्रकारिता का और लेखन का दौर चालू हो चुका है जो कि एक बार हमारे अंदर उबाल लेकर आता है और अगले ही पल में बासी हो जाता है। अब हमारे लिए क्या चीज कितनी उपयोगी सिद्ध हो रही है, उसकी जगह क्या चीज दूसरों को अपनी ओर अट्रैक्ट करती है उस पर हमारा ध्यान होता है ।
अब संपादक सिर्फ 'संपादक को धन्यवाद' वाली पोस्ट से ही खुश हो जाते हैं, लिखने- पढ़ने से मुंह मोड़ चुके हैं।अब संपादक भी बाजार की मांग के अनुसार आते हैं , जिसको कॉरपोरेट कल्चर के भी गुर आने चाहिए , उसे संपादकीय टीम का नेतृत्व करने के साथ-साथ मार्केटिंग सरकुलेशन की बारीकी भी आनी चाहिए। अब अखबारों में उस तरह के संपादक ही नहीं बचे हैं जिनमें गंभीर और रचनात्मक विषयों की और लेखन की समझ भी हो और वह उसकी पहचान कर पाए ।लेकिन फिर भी हम पाएंगे कि आजकल लोगों के लिए लिखना एक झटके का खेल हो गया है और हर लेखक हर विधा में निपुण होता जा रहा है। आज वह कविताएं लिख रहा है, कल वह समीक्षाएं लिखने लगेगा, उसके अगले दिन वह निबंध लिखने लगेगा और उसके अगले दिन वह किसी और विधा पर अपना हाथ आजमा रहा होगा।
आखिर वह क्यों लिख रहा है, किस लिए लिख रहा है? इस लिखने में अपना मतलब निकालने के लिए या वाकई वह जो लिख रहा है वह अपने भीतर में, अंदर से महसूस करके लिख पाता है। लेखन में संवेदनात्मक गहराई न तो रही है और न हीं उनमें किसी भी तरह की कोई बौद्धिक दृष्टि या विचार रहे हैं। और तो और उनमें किसी भी तरह का कोई लेखकीय शिल्प भी नहीं रहा है। अब कोई भी खुद ही अपना लिखा दोबारा नहीं पढ़ पाता है। अब जो लेखन है वह हमारी आत्मा से निकलता हुआ सत्य नहीं है बल्कि वह ऊपरी तौर पर मात्र शब्दों का लेख रहता है। अब लेखक वर्तमान के सवालों से मुंह चुराता है और उन्हें टाल भी देता है। यह यूट्यूब लेखक को और पत्रकारों को किसी हद तक अपनी बात कहने का मौका भी देता है लेकिन यह भी अधिक दिनों तक नहीं चल पाता क्योंकि अब किसी के पास भी शोध और श्रम करने का समय ही नहीं बचा है। लेखक भी अब जुमलेबाजी वाले विचारों से अपना लेख लिखते हैं। अब लेखक कितना पढ़ा जा रहा है उससे अधिक होना चाहिए कि वह कितना याद रखा जा रहा है। संपादक न तो संग्रहाक बने न हीं अपने मौलिक विचारों को खत्म करें। क्योंकि वह किसी भी इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया का मुख होता है जो कि समाज के हित में अपनी बात कहता है , न कि उसे अपनी डायरी के समान मानकर लिख देता है। लेखक को भी कल्पनाशीलता से अधिक यथार्थवादी लेखन पर निर्भर होना चाहिए। यथार्थवादी लेखन को आप अपनी कल्पनाशीलता से किस तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं यह आपका अपना कौशल है। लेकिन कहीं पर भी अगर आपकी काल्पनिकता यथार्थ पर हावी हो रही है तो वह यथार्थ बेमानी हो जाता है।
अंशु सारडा 'अन्वि'