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ब्रिक्स की बासी कढ़ी और भारत

13 वीं बैठक का अध्यक्ष इस बार भारत है । लेकिन ब्रिक्स की इस बैठक में अफगानिस्तान पर वैसी ही लीपा-पोती हुई, जैसी कि सुरक्षा परिषद में हुई थी।

Dr. Ved Pratap Vaidik
Written By Dr. Ved Pratap VaidikPublished By Monika
Published on: 11 Sept 2021 8:23 AM IST
brics summit
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ब्रिक्स 13 वीं बैठक (फोटो : सोशल मीडिया )

'ब्रिक्स' नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था में पांच देश हैं। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका। इसकी 13 वीं बैठक का अध्यक्ष इस बार भारत है । लेकिन ब्रिक्स की इस बैठक में अफगानिस्तान पर वैसी ही लीपा-पोती हुई, जैसी कि सुरक्षा परिषद में हुई थी। सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भी भारत ने ही की है। भारत सरकार के पास अपनी मौलिक बुद्धि और दृष्टि होती तो इन दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण संगठनों में वह ऐसी भूमिका अदा कर सकती थी कि दुनिया के सारे देश मान जाते कि भारत दक्षिण एशिया ही नहीं, एशिया की महाशक्ति है। लेकिन हुआ क्या ? इस बैठक में रूसी नेता व्लादिमीर पुतिन ने भाग लिया तो चीन के नेता शी चिन फिंग ने भी भाग लिया। द. अफ्रीका और ब्राजील के नेता भी शामिल हुए। लेकिन रूस और चीन के राष्ट्रहित अफगानिस्तान से सीधे जुड़े हुए हैं।

गलवान घाटी की मुठभेड़ के बाद मोदी और शी की यह सीधी मुलाकात थी । लेकिन इस संवाद में से न तो भारत-चीन तनाव को घटाने की कोई तदबीर निकली और न ही अफगान-संकट को हल करने का कोई पक्का रास्ता निकला। पांचों नेताओं के संवाद के बाद जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ, उसमें वही घिसी-पिटी बात कही गई, जो सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों में कही गई थी। यानी अफगानिस्तान के लोग 'मिला-जुला संवाद करें' । अपनी जमीन का इस्तेमाल सीमापार के देशों में आतंकवाद फैलाने के लिए न करें।

यह सब तो तालिबान नेता पिछले दो तीन महिनों में खुद ही कई बार कह चुके हैं। क्या यही बासी कढ़ी परोसने के लिए ये पांच बड़े राष्ट्रों के नेता ब्रिक्स सम्मेलन में जुटे थे? जहां तक चीन और रूस का सवाल है, वे तालिबान से गहन संपर्क में हैं। चीन ने तो करोड़ों रुपये की मदद तुरंत काबुल भी भेज दी है।

भारत ने दूसरी बार अवसर खो दिया

पाकिस्तान और चीन अब अफगान सरकार से अपनी स्वार्थ-सिद्धि करवाएंगे। भारत ब्रिक्स का अध्यक्ष था तो उसने यह प्रस्ताव क्यों नहीं रखा कि अगले एक साल तक अफगानिस्तान की अर्थ-व्यवस्था की जिम्मेदारी वह लेता है। उसकी शांति-सेना काबुल में रहकर साल भर बाद निष्पक्ष चुनाव के द्वारा लोकप्रिय सरकार बनवा देगी? भारत ने दूसरी बार यह अवसर खो दिया। वह दोहा-वार्ता में भी शामिल हुआ । लेकिन किसी बगलेंझांकू की तरह। अमेरिका के अनुचर की तरह। अभी भी दक्षिण एशिया का शेर गीदड़ की खाल ओढ़े हुए हैं। वह तालिबान से सीधी बात करने से क्यों डरता है?

यदि ये तालिबान पथभ्रष्ट हो गए । अलकायदा और खुरासान-गिरोह के मार्ग पर चल पड़े तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होगा। अफगानिस्तान की हालत वही हो जाएगी, जो पिछले 40 साल से है। वहां हिंसा का ताडंव तो होगा ही, परदेसियों की दोहरी गुलामी भी शुरु हो जाएगी।

Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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