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भाई देश कहां जा रहा है, क्या हमारे भविष्य का विकास हो रहा है
रामकृष्ण वाजपेयी
आज कल के युवा गाहे बगाहे ये सवाल पूछते दिख रहे हैं ...और भाई देश कहां जा रहा है, क्या हमारे भविष्य का विकास हो रहा है। इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है। कभी मजाक में तो कभी संजीदगी से ये जुमला अक्सर हवा में तैरता मिल रहा है। खुद बोलेंगे फिर खुद पे खिसियानी हंसी हंसेंगे। जवाब किसी के पास नहीं। सोचने समझने की शक्ति कुंद हो चुकी है। सबको तेजी से चढ़ता उम्र का ग्राफ दिख रहा है। मंजिल अभी भी मृगमरीचिका बनी हुई है।
बेरोजगार हताश निराश युवा हर तरफ उम्मीद की नजर से देख रहा है। यह जानते हुए भी कि नारों से उसका क्या, किसी का पेट नहीं भरेगा। वो नारों प्रति नारों में उलझ रहा है। कभी उसे शाहीनबाग सही लगता है तो कभी मोदी का विकास का पैमाना। सही रास्ते को लेकर भ्रम बरकरार है। हालांकि सरकार युवाओं को भ्रम से निकालने का पूरा प्रयास करती दिख रही है।
हम कहां खड़े हैं
असली सवाल बरकरार है। विकास के लंबे चौड़े दावों प्रतिदावों के बीच आज हम कहां खड़े हैं। एक सवाल आम जनमानस को उद्वेलित कर रहा है कि क्या ये विकास हमारा जीवन स्तर सुधारेगा या और नीचे ले जाएगा। हर क्षेत्र में ग्राफ नीचे आ रहा है। रोटी, कपड़ा और मकान आदमी की बेसिक जरूरत हैं।
आजादी के 73 साल बीतने के बाद भी आज हम देशवासियों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया नहीं करा पाए हैं। गरीबों की थाली आज भी पोषण की बेसिक नीड को पूरा नहीं करती है। एक से पांच साल के बच्चों को आज भी पोषक आहार नहीं मिल पा रहा। किशोरियां आज भी कुपोषण और खून की कमी की शिकार हैं।
कैसे करें गुजारा
आज भी तमाम गरीब एक जोड़ी कपड़ों में गुजारा कर रहे हैं। तीन से पांच हजार या पांच से दस हजार की आमदनी में एक व्यक्ति कैसे और कितना बेहतर तरीके से अपने परिवार को पाल सकता है। यह एक यक्ष प्रश्न है। इस सब के बाद परिवार में एक सदस्य के भी बीमार पड़ने का मतलब है हजारों का खर्च जिसके चलते वह झोलाछाप डाक्टरों के यहां किस्तों में पैसा लुटाकर गंभीर बीमारियों का शिकार बन रहा है।
सरकारी स्तर पर रहने को घर मुहैया कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन गरीब आदमी किस तरह से छह से 15 लाख की कीमत का मकान लेगा, यह सवाल अनुत्तरित है। किसान आज भी बदहाल और कर्ज में डूबा हुआ है। किसान को आज भी सस्ता कर्ज मुहैया नहीं कराया जा पा रहा है।
युवाओं का सवाल
देश का युवा शिक्षाग्रहण करने के बाद दो जून की रोटी कमाने की स्थिति में नहीं आया है। देश की आबादी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है। विश्व में सबसे अधिक युवा आबादी होने के बावजूद युवाओं की फौज एक ही सवाल करती नजर आ रही है कि देश कहां जा रहा है।
इस सुर में नेता लोग अपने ढंग से सुर मिलाकर चिल्ला रहे हैं कि देश कहां से कहां जा रहा है। उनके हिसाब से देश आगे बढ़ रहा है। लेकिन बढ़ती जा रही घोटालों की परतें। बढ़ते अपराध। कहीं कहीं विकास की पोल खोल रहे हैं। हमारा नेतृत्व भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद दूर करने की कोशिश में शिद्दत से लगा है, लेकिन जनता की समझ में नहीं आ रहा है। बढ़ती अराजकता में देश कहां जा रहा है इससे उन्हें फर्क पड़ता नहीं दिख रहा है।
शिक्षा का सवाल चाहे मेडिकल क्षेत्र की बात करें या इंजीनियरिंग के क्षेत्र की, लगता है अगर ये दो डिग्रियां हाथ में नहीं आयीं तो बीए, बीएससी, बीकाम करना बेकार हैं। एमबीबीएस की पढाई में एक करोड़ का खर्च आम आदमी के बूते का नहीं हैं। लाखों खर्चने के बावजूद इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी बेकार हो चुकी है। हम बेरोजगारों की बढ़ती फौज को आज तक काम पर नहीं लगा सके हैं।
विश्वास बहाली के उपाय
समय आ गया है कि सरकार को बेरोजगारों के लिए वैकल्पिक रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर बेरोजगारी भत्ते के विकल्प के रूप में न्यूनतम 30 से चालीस हजार मानदेय पर नियोजित करना चाहिए। पचास साल से ऊपर उम्र के रोजगार विहीन लोगों के लिए सम्मानजनक जीवन जीने के लिए पेंशन की व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी को 75 हजार एक लाख पेंशन मिले और दूसरी ओर हजार रुपये पेंशन में गुजारा करने को गिना जाए। शिक्षा की व्यवस्था समान होनी चाहिए जिसमें अमीर गरीब संतरी मंतरी सबके बच्चे एक साथ पढ़ने जाएं। शिक्षा में भेदभाव खत्म होना चाहिए।