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व्यंग्य: बजट और होली, गरीबों से शिकायत की कोई उम्मीद भी नहीं रखता

raghvendra
Published on: 28 Feb 2018 10:41 AM GMT
व्यंग्य: बजट और होली, गरीबों से शिकायत की कोई उम्मीद भी नहीं रखता
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गोपाल चतुर्वेदी

हम बहुत दिनों से सोच रहे हैं कि होली बजट के बाद ही क्यों आती है। जब नया वर्ष जनवरी से प्रारंभ होता है तो बजट को फरवरी में रखने का क्या नया तुक है? अगर सरकार को बजट का विध्वंसक कार्य करना है तो वह बजट को होली की पूर्व संध्या पर क्यों नहीं पेश कर सकती? कम से कम गरीबों से तो यह कहने को रहेगा कि हम तुम्हारे पेट के साथ छेड़छाड़ तो कर रहे हैं, पर ‘बुरा न मानो होली है।’

हर प्रधानमंत्री अपनी समझ से मुल्क के सबसे काबिल और समझदार व्यक्ति को वित्तमंत्री बनाते हैं। उस की समझदारी का आलम यह है कि वह संसद में शेर सुना कर पूरे देश की जेब काट लेता है और कोई माई का लाल चूं तक नहीं करता है। गरीबों से शिकायत की कोई उम्मीद भी नहीं रखता। उन बेचारों के पास सिर्फ पेट है, उनकी जबान तो जाने कब की कट चुकी है।

समृद्धों को क्या फर्क पड़ता है, महंगाई घटे या बढ़े। सरकारी नौकरों के मजे ही मजे हैं। रियायती दर पर घर, गाड़ी, मनोरंजन और भोजन बजट के पहले भी ‘फ्री’ था, उसके बाद भी ‘फ्री’ है। अगर कुछ ‘एडजस्ट’ करना पड़ा तो सुविधा शुल्क का लचीला ‘सिस्टम’ उपलब्ध है। जरूरत पड़ी तो महंगाई के अनुपात में उसे बढ़ा लेंगे। घर की आमदनी ही बढ़ेगी।

सांसद सदाबहार कैक्टस हैं। महंगाई की बारिश से जनता के घर सूखा पड़े या उन्हें बर्बाद करे, कैक्टस को तो हर हाल में हराभरा रहना है।

अगर कर अधिक बढ़े तो विरोधी सांसदों के पौबारा हैं। उन्हें जनता को खुशहाली के सस्ते सपने दिखाने की ज्यादा छूट होगी। सत्ता पक्ष के सांसद को वर्तमान का सोचने से वास्ता नहीं है। वह राष्ट्रीय विकास की सौसाला योजना बनाने में इतना व्यस्त है कि उसे और किसी काम के लिए फुर्सत नहीं है।

हम सरकार और उसके सांसदों की दाद देते हैं। जब विरोध में थे तब भले उन्होंने जनता को सपने दिखाए, जब से सत्ता में आए हैं, देश का भविष्य लगन और निष्ठा से बना रहे हैं। वह आज या कल की बात नहीं करते हैं, सिर्फ अगले 50-१०० साल की योजनाएं बनाते हैं। कोई पूछता है कि सडक़ के भ्रष्टाचारी गड्ढे कब तक भरेंगे, तो वह बताते हैं कि बस, थोड़ा इंतजार करो, हम ने इस सडक़ को अगली पांचसाला योजना में ले लिया है।

कोई गरीब उनके आगे पेट बजाता है तो वह उसे दिलासा देते हैं, ‘‘पेट बजाना छोड़ो, हम तुम्हारे खाने का इंतजाम कर रहे हैं। हमने उसूलन तुम्हें ‘फ्री’ का राशन देने का निर्णय लिया है, १० वर्ष में वितरण व्यवस्था का भी प्रबंधन हो जाएगा।’’

कई वर्षों से मुरारी होलिका दहन में बजट की प्रति भक्तिभाव से जलाते हैं। उनका कहना है कि इंसान तो इंसान को मिटाने से बाज नहीं आ रहा है, शायद भगवान ही सुन ले। अब तो आशावादी मुरारी भी निराश हो गए हैं। वह मानने लगे हैं कि ‘इनफ्लेशन’ (मुद्रास्फीति) जरूर आत्मा के समकक्ष है। बजट के करों को आग में झोंकने से उसका बाल भी बांका नहीं होता है। जब बाढ़ में सब डूबते हैं तो वह सुरसा सा विशालकाय होता है। जब भूकंप में कच्छ का सबकुछ जमींदोज होता है तो ‘इनफ्लेशन’ सरकार की निष्क्रियता की तरह खूब फलता-फूलता है।

इस बार मुरारी ने नई तरकीब आजमाई है। उन्होंने बजट की बिल्ली देखकर कबूतर की तरह आंखें मूद ली हैं। उनका कहना है कि वित्तमंत्री को देखो या न देखो, बजट का भाषण सुनो या न सुनो, अखबार में करों की कीमतों पर न्यूनतम असर के सरकारी आश्वासन पढ़ो या न पढ़ो, इस सब से कोई अंतर नहीं पडऩा है। बाजार का नियम है कि हर बजट के बाद कीमतों को बढऩा ही बढऩा है। वह बढ़ कर रहेंगी।

मुरारी एक साहसी इंसान हैं। कबूतर की तरह कायर नहीं हैं। उन्होंने आंख इसलिए मूंदी हैं कि बजट में उनकी कोई रुचि नहीं बची है। बजट उनका क्या बिगाड़ लेगा। जो छोडऩा था वह पहले छोड़ चुके हैं। एक बजट ने उनका पान छुड़ाया, दूसरे ने पानमसाला, तीसरे ने बीड़ी, चौथे ने सब्जी, अब उनके पास छोडऩे के सिर्फ दाल-रोटी और प्राण हैं।

मुरारी की चुनौती है कि वित्तमंत्री दाल पर भले ही घात लगा लें, नमक-रोटी पर उसका जोर नहीं चल सकता है। अगर उसने ऐसी हरकत की तो वह चुनाव में उसे देख लेंगे। यों उन्हें मौत से डर नहीं है। जीवन का भरोसा हो न हो, मौत पर विश्वास किया ही जा सकता है। चाहे मंत्री हो या मानव, अमरौती खाकर कौन आया है?

हमें एक बात का पता है। इस देश में भूकंप आए या बजट, उसका होली की मस्ती पर कुछ प्रभाव नहीं पडऩा है। होली कभी रंगों का त्योहार था, अब नंगों का उत्सव है। इस मुबारक अवसर पर दीवाने कीचड़ उछालने की राष्ट्रीय प्रतिभा और शौक का खुलकर, बिना किसी रोकथाम, मनोयोग से प्रदर्शन करते हैं।

कुछ तो कीचड़ के ऐसे शौकीन हैं कि पूरे वर्ष वह दूसरों पर कीचड़ ही उछालते हैं, इसीलिए हमारे राजनेताओं को होली हो न हो, कोई अंतर नहीं नजर आता है। उनके लिए हर दिन होली है। बिना एक-दूसरे पर कीचड़ उछाले न उन्हें दिन का खाना हजम होता है, न रात को नींद आती है। होली के दिन वह उत्साह के अतिरेक में एक-दूसरे की धोती खोलने लगते हैं। कुछ नेताओं का कहना है कि वह ऐसा जानबूझकर करते हैं।

जनता के पास करने के लिए और बहुत से काम हैं। उसे बजट के बाद पेट काटने की प्रैक्टिस करनी है। बच्चों को दूध पीने के नुकसान से परिचित कराना है। सब्जी सेहत के लिए कितनी हानिकारक है, इस बारे में गंभीर चिंतन करना है। इतनी व्यस्तताओं के चलते अगर उसे नेताओं की धोती खोलने की हसरत पूरी करने की जहमत भी उठानी पड़े तो वह उसके साथ नाइंसाफी होगी। जनता की तमन्ना को पूरा करने के लिए नेता खुद-ब-खुद एक-दूसरे की धोती खोलकर देश की नि:स्वार्थ सेवा करते हैं।

सरकार का बयान है कि होली के पहले बजट का प्रावधान बहुत सोच समझकर किया गया है। इसके द्वारा वह जनता से जनकल्याण का मजाक करती है। हर साल हर नया कर राष्ट्र निर्माण के पावन इरादे से लगाया जाता है। बजट का इकलौता लक्ष्य गरीबी और गरीबों का उन्मूलन है। अगर दोनों सरकारी कर के घातक प्रहार से बच भी जाते हैं तो सरकार को कोई ऐतराज नहीं है। इससे संसार के सामने भारत के निर्धन की जिजीविषा जाहिर होती है।

सरकार शान से दुनिया को सुनाती है, ‘‘देखो, हमारे देश में चाहे भूकंप आए या बाढ़, सूखे का प्रकोप हो या बजट का, हिंदुस्तानी एक सख्त जान इंसान है।’’

वित्तमंत्री फाग गाते खुश होकर अपने सहयोगियों को बताते हैं, ‘‘देखो, यह बजट के बाद भी कितनी खुशी से होली खेल रहा है। इसका एक ही मतलब है। अभी हमें इस पर टैक्स लगाने और इसमें और कर झेलने की बड़ी गुंजाइश शेष है। इस बार तो बजट ‘साफ्ट’ है, अगली बार देख लेंगे।’’

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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