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जीवन भर लॉकडाउन में तो नहीं रहा जा सकता

जिस प्रकार आज योग कोरोना से लड़ने वाला सर्वश्रेष्ठ शारीरिक व्यायाम और प्राणायाम हृदय एवं श्वसन तंत्र के लिए सर्वोत्तम व्यायाम स्वीकार किया जा चुका है, भारतीय संस्कृति के मूल्य और संस्कार भी विश्व कल्याण की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय आचरण के रूप में स्वीकार किए जाएंगे और यह आवश्यक भी है।

राम केवी
Published on: 17 April 2020 6:41 PM IST
जीवन भर लॉकडाउन में तो नहीं रहा जा सकता
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डा. नीलम महेंद्र

आज पूरा विश्व संकट के दौर से गुज़र रहा है। कोरोना नामक महामारी से दुनिया भर के विकसित कहे जाने वाले देशों तक में होने वाले त्राहिमाम को देखकर आशंका होती है कि कहीं ये एक युग के अंत की शुरुआत तो नहीं। क्योंकि जैसी वर्तमान स्थिति है, इसमें इस महामारी का अगर कोई एकमात्र इलाज है तो वो है स्वयं को इससे बचाना।

तो जब तक लॉक डाउन है तबतक हम घरों में सुरक्षित हैं लेकिन जीवन भर न तो आप लॉक डाउन में रह सकते हैं और ना हो कोई देश। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम पूरे विश्व पर आई इस विपत्ति से कुछ सबक सीखें।

नैतिक मूल्य पीछे छूटते गए

अगर मानव सभ्यता के इतिहास पर नज़र डालें तो मानव ने शुरुआत से ही अनेक चुनौतियों का सामना करके अपने बाहुबल और बौद्धिक क्षमता के सहारे ही वर्तमान मुकाम को हासिल किया है। इस पूरे सफर में अगर उसका कोई सबसे बड़ा मित्र था, तो वो था उसका आत्म विश्लेषणात्मक स्वभाव जो उसे अपनी गलतियों से सीखने के लिए प्रोत्साहित करता था।

भारत की सनातन संस्कृति के स्वाभानुसार यह विश्लेषणात्मक विवेचन आत्मकेंद्रित ना होकर इसमें सम्पूर्ण प्रकृति एवं मानवता का भी कुशलक्षेम शामिल होता था। और यह संभव होता था उन नैतिक मूल्यों से जो उसे सही और गलत का भेद कराते थे। किंतु समय के प्रवाह के साथ परिभाषाएं बदलीं तो नैतिक मूल्य कहीं पीछे छूटते गए।

यह सही है कि आज मानव सभ्यता ने जो मुकाम हासिल किया है वो उसकी अथक मेहनत का फल है, उसके निरंतर प्रयासों का परिणाम है तथा उसकी अनगिनत प्रयोगों की परिणीति है। अवश्य ही उसने कितनी बार हार का सामना किया होगा कितनी ही बार वो मायूस भी हुआ होगा लेकिन आगे बढ़ने की चाह ने उसे अपनी गलतियों से सीखकर एकबार फिर उठने के लिए प्रेरित किया होगा।

आत्मकेंद्रित विश्लेषण की पराजय

हाँ ऐसा ही हुआ होगा तभी तो हम स्वयं को कल तक इतिहास में विज्ञान के सर्वोत्तम विकास के दौर में होने का श्रेय देते थे जो आज हमारे लिए अभिशाप बन गया है। कारण कि जो सबसे बड़ी भूल मानव से इस यात्रा में हुई वो ये कि उसका विश्लेषण केवल आत्मकेंद्रित रहा, निज लाभ हानि तक सीमित रहा सर्व हिताए सर्व सुखाये का भाव इससे लुप्त रहा।

नैतिक मूल्यों के पतन के साथ ही मानवता और प्रकृति सरंक्षण जैसे भाव इस विवेचना से लुप्त होते गए। परिणामस्वरूप तरक्की की कभी ना खत्म होने वाली मानव की लालसा और विकास की अंधी दौड़ उसे इस वैज्ञानिक युग के उस मोड़ पर ले आई जहाँ वो सुपर कंप्यूटर, रोबोट, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, क्लोनिंग जैसे वैज्ञानिक चमत्कारों से उत्साहित हो प्रकृति तक को ललकारने लगा।

जैविक हथियार ने दिया एक अवसर

परिणाम,आज अमरीका और चीन एक दूसरे को इस वैश्विक महामारी के लिए जिम्मेदार बताने वाले ऐसे बयान दे रहे हैं जिन्हें शायद ही कभी पुष्ट किया जा सके।लेकिन ये बयान इतना इशारा तो कर ही देते हैं कि कोरोना वायरस मानव निर्मित एक जैविक हथियार है। अतः यह समय सम्पूर्ण मानव सभ्यता के लिए आत्मावलोकन के ऐसे अवसर में बदल जाता है जिसमें अनेक प्रश्नों के उत्तर खोजना हम सभी का दायित्व बन जाता है।

दरअसल मौजूदा परिस्थितियों में प्रश्न तो अनेक और अनेकों पर खड़े हो गए हैं। उन संगठनों पर भी खड़े हो गए हैं जो विश्व के देशों ने एक दूसरे के सहयोग से आपसी सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने अपने आर्थिक पक्षों को ध्यान में रखकर बनाए थे लेकिन संकट की इस घड़ी में इन संगठनों का हर देश अकेला और बेबस खड़ा है।

इटली की निराशा का कारण

इन संगठनों के औचित्यहीन होने का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि जब इटली जैसा देश जो यूरोपीय संघ जैसे शक्तिशाली संगठन का सदस्य है,अपने देश में कोरोना से संक्रमित लोगों के जीवन की रक्षा तो छोड़िए मृत्यु उपरांत उनके शवों को सम्मान जनक अंतिम संस्कार का एक सामान्य अधिकार भी नहीं दे पा रहा था, मदद के लिए यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की तरफ आशाभरी नज़रों से देख रहा था लेकिन उसके हाथ निराशा लगी क्योंकि इन संगठनों ने आर्थिक लाभ हानि से ऊपर उठकर कभी सोचा ही नहीं।

इस घटना ने जितना इटली को झकझोर के रख दिया उससे ज्यादा उसने यूरोपीय संघ को बेनकाब कर दिया। ब्रिटेन पहले ही इस संघ से बाहर आ चुका है अब इटली के भीतर भी यूरोपीय संघ के विरोध में स्वर उठने लगे हैं।

आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ाएगा कोरोना संकट

इसी प्रकार पुनर्विचार का संकट तो विभिन्न देशों की उस वैश्विक अर्थव्यवस्था की सोच पर भी मंडराने लगा हैं जिसमें चीन के एक शहर से शुरू होने वाली एक बीमारी समूचे विश्व की ही अर्थव्यवस्था को ले डूबती है। निश्चित ही कोरोना का यह संकट देशों को अर्थव्यवस्था और आवश्यक वस्तुओं के मामले में एक दूसरे पर अत्यधिक निर्भरता की अपनी अपनी नीति का पुनर्निर्माण कर हर देश को आत्मनिर्भरता के लिए कदम उठाने के लिए प्रेरित करेगा।

लेकिन वो संगठन जो सम्पूर्ण विश्व में मानव के स्वास्थ्य के स्तर को बढ़ाने के लिए उपयुक्त दिशा निर्देश जारी करता है, कोविड 19 वैश्विक महामारी के दौरान उस विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका ने तो उसकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका खतरे में

एकतरफ अमेरिका खुलकर इसकी आलोचना ही नहीं कर रहा बल्कि विश्व भर में इस महामारी को फैलने से रोकने की दिशा में लापरवाही के चलते उसने तो विश्व स्वास्थ्य संगठन को अमेरिका द्वारा दी जाने वाली फंडिंग ही रोक दी है।

लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका ने कोरोना के संक्रमण फैलने के खतरनाक तरीके और उसकी तीव्र गति से फैलने के बावजूद लॉक डाउन के कारण अर्थव्यवस्था को पहुंचने वाले नुकसान के चलते इसका फैसला लेने में देर कर दी।

परिणाम आज कोरोना से होने वाले संक्रमण और मौतें दोनों में अमेरिका विश्व में पहले क्रम में है। जाहिर है ऐसे फैसले लेते समय आर्थिक पहलू महत्त्वपूर्ण होता है और मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होता।

अवसरवादी संस्कृति की पराजय

यही समझने वाली बात है कि उपर्युक्त सभी संदर्भ भले ही अलग अलग हैं और भिन्न भिन्न वैश्विक संगठनों के हैं जो सामान्य व्यापारिक गतिविधियों में एक दूसरे के पूरक थे परंतु ऐसे समय जब इनके सदस्य देशों को इनकी सहायता की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी, ये कर्ण की विद्या के समान निष्प्रभावी हो गए, आखिर क्यों? उत्तर हम सभी जानते है।

दरअसल इन सभी संगठनों की उत्पत्ति का एकमात्र उद्देश्य समस्त सदस्य देशों के व्यापारिक हित,उनकी अर्थव्यवस्था और नए अवसरों की तलाश तक सीमित था। उपभोग्तावादी और अवसरवादी संस्कृति की यही विडंबना है। उपयोगिता और अवसर समाप्त होते ही व्यक्ति हो संगठन हो या देश निरुपयोगी हो जाता है। इसमें भावनाओं और मानवता की कोई जगह नहीं होती।

सब बौने भारत लड़ रहा है

शायद इसलिए सक्षम से सक्षम सरकारें और बड़े से बड़े साम्राज्य आज इस आपदा के समय बौने हो गए हैं लेकिन भारत जैसा अपार जनसंख्या और सीमित संसाधनों वाला देश इस संकट से सफलता पूर्वक लड़ ही नहीं रहा बल्कि हाइड्रोक्लोरोक्विन और पेरासिटामोल जैसी आवश्यक दवाइयों की आपूर्ति विश्व के विभिन्न देशों को कर रहा है।

क्योंकि यहाँ संवेदनाएँ भी हैं और मानवता भी है। यहाँ की सनातन संस्कृति में निःस्वार्थ सेवा, दया भाव, दान की महिमा, परोपकार का भाव और सभी के हित की मंगलकामना के संस्कार पूरे देश को एक ऐसे सूत्र में बांधकर रखते हैं जो विपत्ति के समय टूटने के बजाए और मजबूत हो जाते हैं।

भारत की विजय का मूलमंत्र शायद ही कोई समझ पाए

कल जब विश्व के मानचित्र पर विशाल जनसंख्या के साथ इस विकासशील देश की कोरोना पर विजय का विश्लेषण किया जाएगा तो शायद विश्व के बुद्धिजीवी भारत के विजय के उस गूढ़ मूलमंत्र को समझ पाएँ जो इसकी सनातन संस्कृति में छिपे हैं।

जिस प्रकार आज योग कोरोना से लड़ने वाला सर्वश्रेष्ठ शारीरिक व्यायाम और प्राणायाम हृदय एवं श्वसन तंत्र के लिए सर्वोत्तम व्यायाम स्वीकार किया जा चुका है, भारतीय संस्कृति के मूल्य और संस्कार भी विश्व कल्याण की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय आचरण के रूप में स्वीकार किए जाएंगे और यह आवश्यक भी है।

क्योंकि अगर विकास की इस चाह में लोककल्याण के भाव रहे होते तो कोरोना महामारी से जूझ रहे देशों को चीन द्वारा मदद के नाम पर घटिया सामान की आपूर्ति की खबरें नहीं आतीं। इसी प्रकार विज्ञान के सहारे विकास की यात्रा में यदि सर्वहित की मंगलकामना भी शामिल रही होती तो कोई भी देश इतना विनाशकारी जैविक हथियार बनाना तो दूर उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार है)

राम केवी

राम केवी

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