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आंध्र में खेल राजधानी का

2014 में आंध्र प्रदेश को दो हिस्सों में बांटा गया था। एक नया राज्य ‘तेलंगाना’ बना। दूसरा राज्य आंध्र प्रदेश रहा। अविभाजित आंध्र की राजधानी हैदराबाद थी और नए राज्य तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद ही बनी रही। आंध्र प्रदेश नई राजधानी की तलाश करने लगा।

Shivakant Shukla
Published on: 6 Jan 2020 5:31 PM IST
आंध्र में खेल राजधानी का
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लखनऊ: देश के बाकी हिस्सों में जहां इन दिनों सीएए का मसला छाया हुआ है वहीं आंध्र प्रदेश ऐसा राज्य है जहां सीएए की बजाए राज्य की राजधानी का सवाल गर्माया हुआ है। जबसे मुख्यमंत्री जगन रेड्डी की सरकार ने राज्य की राजधानी को फिर एक बार नई जगह बसाने की जिद पकड़ी है तबसे चर्चा का केंद्र बस यही बना हुआ है।

नया राज्य

2014 में आंध्र प्रदेश को दो हिस्सों में बांटा गया था। एक नया राज्य ‘तेलंगाना’ बना। दूसरा राज्य आंध्र प्रदेश रहा। अविभाजित आंध्र की राजधानी हैदराबाद थी और नए राज्य तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद ही बनी रही। आंध्र प्रदेश नई राजधानी की तलाश करने लगा।

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2014 के चुनावों के बाद चंद्रबाबू नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। चंद्रबाबू नायडू आधुनिक हैदराबाद के निर्माता के रूप में पहचाने जाते हैं। नायडू ने नई राजधानी के लिए कृष्णा नदी के तट पर एक हरे भरे इलाके को चुना। उन्होंने एक पुराने बौद्ध स्थल के नाम पर उस जगह का नाम ‘अमरावती’ रखा जो इस स्थल केवल 60 किमी दूर स्थित था। नायडू एक खास कारण के लिए राजधानी का एक बौद्ध नाम चाहते थे। नया राज्य भारत के पूर्वी तट में था। और ये दक्षिण-पूर्व में सिंगापुर और जापान के मार्ग पर था। नायडू का मानना था कि अमरावती नाम बौद्धों, खासकर जापान के निवेशकों, को आकर्षित करेगा।

गलती कर गए नायडू

लेकिन चालाक नायडू एक गलती कर गए। उन्होंने राजधानी के लिए नदी का तट चुना और जहां से मात्र साठ किलोमीटर दूर कृष्णा नदी अरब की खाड़ी में जा कर मिलती है। इस इलाके की जमीन बेहद उर्वर हैं। राजधानी के लिए किसानों से ये बेशकीमती जमीनें साम-दाम-दंड-भेद अपना कर ले ली गईं। नायडू को इस तथ्य से मदद मिली कि अधिकांश भूमि अनुपस्थित जमींदारों की थी - जिनमें से अधिकांश अमेरिका चले गए थे। भूमि पर किरायेदार किसानों द्वारा खेती की गई थी और यही लोग भूमि के वास्तविक मालिक बन गए थे। इस वजह से अनुपस्थित मालिक अपनी जमीन से छुटकारा पाने के लिए बहुत खुश थे।

समस्या यह थी कि अनुपस्थित जमींदार कथित रूप से ज्यादातर कम्मा जाति के थे। नायडू भी इसी जाति के हैं। इसलिए आरोप लगे कि अपनी जातिवालों को फायदा पहुंचाने के लिए इस इलाके को चुना गया था। यह भी आरोप लगाए गए थे कि नायडू के सहयोगियों को अमरावती की लोकेशन के बारे में पहले से पता था और आधिकारिक घोषणा से पहले बहुत सारी जमीनें सस्ते दामों में खरीदी गईं थीं।

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अमरावती का फैसला पलटने के पीछे मुख्यमंत्री जगन रेड्डी इन सभी बातों का जिक्र कर रहे हैं। नायडू के सभी फैसलों को पलटने के लिए जगन अड़े हुए हैं। जगन को इस बारे में समर्थन भी मिल रहा है। आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव, आई.वाईआर. कृष्णा राव का कहना है कि ‘अमरावती की राजधानी के रूप में स्वीकृति विधान सभा में रणनीतिक रूप से जोड़-तोड़ करके ली गई थी। ये निर्णय एकतरफा था और इसमें एक छिपा हुआ एजेंडा था।’

समिति की सिफारिश

नई राजधानी की सिफारिश करने के लिए भारत सरकार द्वारा गठित के.सी. शिवरामकृष्णन समिति ने कहा था कि पर्यावरणीय चिंताओं के कारण गुंटूर-विजयवाड़ा क्षेत्र में नई राजधानी नहीं बनाई जानी चाहिए। नायडू की ‘अमरावती’ ठीक इसी क्षेत्र में स्थित है। वैसे, के.सी. शिवरामकृष्णन समिति ने मई 2014 की अपनी रिपोर्ट में राजधानी के लिए किसी भी विशिष्ट स्थान की सिफारिश नहीं की थी जहां पूंजी स्थित होनी चाहिए। इसके बजाय, इसने कई स्थानों की सिफारिश की जहां राजधानी का कुछ हिस्सा स्थापित किया जा सकता था।

डोमाकोंडा थी जगन की पसंद

2014 के चुनावों के दौरान जगन ने आंध्र प्रदेश की नई राजधानी के बारे में अपनी राय बना ली थी। उनकी पसंद डोमाकोंडा नामक जगह थी, जो अमरावती के दक्षिण-पूर्व में लगभग 70 किमी दूर तट पर रेतीली भूमि का एक हिस्सा था। चूंकि जगन २०१४ का चुनाव हार गए सो डोमाकोंडा का कुछ हो नहीं सका।

गिर गईं जमीन की कीमतें

जब जगन 2019 में नायडू को पूरी तरह से पछाड़ कर सत्ता में आए तो जल्द ही अमरावती के भविष्य के बारे में संदेह व्यक्त किया जाने लगा। जगन के कई मंत्रियों द्वारा अमरावती के बारे में संदेह जताने से वहां रियल स्टेट की कीमतों में तेज गिरावट आ गई। अब जगन रेड्डी सरकार पिछली सरकार के तमाम करारों को रद्द करने की होड़ में है। सौर ऊर्जा अनुबंधों से लेकर पोलावरम में नायडू की खास सिंचाई परियोजना तक के काम रोक दिए गए हैं।

अब तीन राजधानियां

नई राजधानी के लिए नायडू के ख्वाब बहुत ऊंचे थे। वे अमरावती को हैदराबाद से भी बेहतर बनाना चाहते थे। इससे काम की प्रगति काफी धीमी थी। इसका जगन ने पूरा फायदा उठाया क्योंकि पहले से ही पूरी तरह से निर्मित राजधानी शहर की उपेक्षा करना असंभव हो जाता। दिसंबर 2019 के आखिरी पखवाड़े में जगन ने घोषणा की कि आंध्र प्रदेश की तीन राजधानियां होंगी- राज्य विधानसभा के साथ अमरावती, रायलसीमा में कुरनूल उच्च न्यायालय के साथ न्यायिक राजधानी और उत्तर में विशाखापत्तनम को प्रशासनिक राजधानी बनाया जाएगा। जगन ने इस काम के लिए कैबिनेट स्तर की कमेटी भी बना दी।

भ्रम की स्थिति

जगन के फैसले ने हर किसी को भ्रम में डाल दिया है, जिसमें विदेशी निवेशक भी शामिल हैं। जिन्होंने अमरावती के तेजी से विकास पर अपना दांव लगाया था। व्यापार समुदाय के कुछ लोग ये मान कर बैठ गए हैं कि चाहे जो हो जगन अपनी योजना पर आगे बढ़ते जाएंगे। वैसे, लोग ये भी पूछ रहे हैं कि सरकार द्वारा २९ गांवों में २० हजार ग्रामीणों से ली गई ३३ हजार एकड़ जमीन का क्या होगा? लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि विशाखापत्तनम को राजधानी का हिस्सा बनाना एक अच्छा फैसला है। यहां भारतीय नौसेना के ठिकाने से लेकर कई बड़े उपक्रम स्थित हैं। इसकी लोकेशन ऐसी है कि ये पर्यटकों का डेस्टीनेशन भी है। पूरी तरह विकसित इस शहर में यहां अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट और महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन है।

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इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विशाखापत्तनम में किसी भी जाति का वर्चस्व नहीं है। अधिकांश विश्लेषकों का कहना है कि चूंकि कुछ निवेश अमरावती में हो चुका है इसलिए विधान सभा अब भी वहां बन सकती है। लेकिन कुरनूल में हाईकोर्ट को लेकर संदेह है क्योंकि ये राज्य का एक अपेक्षाकृत अविकसित क्षेत्र है।

तनातनी का इतिहास

आंध्र प्रदेश के लिए एक नई राजधानी के बारे में संघर्ष, सिर्फ नायडू-जगन के बीच का नहीं है। इसका क्षेत्र के इतिहास से बहुत कुछ लेना-देना है। जब तेलंगाना बना तो ये नए आंध्र प्रदेश राज्य के लिए यह 1953 में वापस जाने जैसा था। उस समय भी राज्य के पास कोई उचित राजधानी नहीं थी। ब्रिटिश राज के तहत, देश को उन क्षेत्रों में समामेलित कर दिया गया था, जिन्हें अंग्रेजों द्वारा जीतने के क्रम के आधार पर एक साथ जोड़ा गया था। इस प्रकार दक्षिण में एक विशाल भूभाग को मद्रास प्रेसीडेंसी में एक साथ रखा गया था - इसमें वर्तमान तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और वर्तमान कर्नाटक के कुछ हिस्से शामिल थे। आजादी के बाद, मद्रास प्रेसीडेंसी के तेलुगु भाषी क्षेत्र अलग होना चाहते थे। इसके लिए एक आंदोलन शुरू हुआ जो एक तेलुगु सामाजिक कार्यकर्ता पोती श्रीरामुलु के आमरण अनशन के साथ समाप्त हुआ।

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1953 में बना था आंध्र

मद्रास प्रेसीडेंसी में बवाल बढ़ा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1953 में आंध्र राज्य के गठन की घोषणा की। तेलुगू लोग चाहते थे कि मद्रास शहर नए बनाए गए आंध्र राज्य का हिस्सा हो। इसके पीछे तर्क दिया गया कि तेलुगु भाषी उद्यमियों द्वारा बड़े पैमाने पर मद्रास शहर का विकास किया गया था। लेकिन तमिल इस पर राजी नहीं हुए और इसलिए आंध्र राज्य की राजधानी कुरनूल में बनाई गई जबकि गुंटूर में उच्च न्यायालय की योजना बनाई गई। लेकिन ये प्लान चल नहीं पाया क्योंकि राज्य की राजधानी के तौर पर कुरनूल बहुत महत्वहीन था। 1956 में भारत को भाषाई आधार पर पुनर्गठित किया गया।

हैदराबाद के निजाम के पूर्ववर्ती क्षेत्रों में तेलुगु, उर्दू, कन्नड़ और मराठी भाषी क्षेत्र थे। इसमें तेलुगु और उर्दू भाषी क्षेत्रों को अलग कर आंध्र प्रदेश (जहां तेलुगु बोली गई) में विलय कर दिया गया। इस प्रस्ताव का सबसे बड़ा आकर्षण ये था कि पहले से विकसित शहर हैदराबाद को आंध्र प्रदेश की राजधानी बनाया जा सकता था। देखने में ये उम्दा आइडिया था लेकिन समस्या ये रही कि जो इलाके मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा रहे थे वो निजाम के क्षेत्र वाले इलाकों से ज्यादा विकसित थे।

निजाम के बाशिंदे रहे घाटे में

निजाम के इलाकों में शिक्षा का माध्यम उर्दू हुआ करता था जबकि मद्रास प्रेसीडेंसी में ये अंग्रेजी था। इस कारण, निजाम के बाशिंदे नुकसान में थे क्योंकि शेष भारत में अंग्रेजी को ही प्रशासन की भाषा के रूप में चुना गया था। इसके अलावा मद्रास शहर और आंध्र से आए तेलुगु भाषी लोग हैदराबाद में उपलब्ध सरकारी नौकरियों पर काबिज हो गए। तीसरी बात ये रही कि निजाम के क्षेत्र के कुलीन वर्ग का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम थे, जिनमें से कई पाकिस्तान चले गए।

इनकी जमीन-जायदाद को आंध्र के लोगों ने ले लिया। यानी निजाम के इलाके के मूल निवासियों को कई तरफ से मार झेलनी पड़ी। उनकी संस्कृति पर आंध्र वाले हावी हो गए, संपत्तियों पर इन्हीं का कब्जा हो गया। सबसे बड़ी बात ये कि आंध्र के लोग निजाम के बाशिंदों को नीची निगाह से देखने लगे। इन हालातों से आजिज आ कर स्थानीय लोगों ने आंदोलन छेड़ा जिसने 1969 में पृथक तेलंगाना राज्य के लिए वृहद रूप अख्तियार कर लिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आंदोलन को दबाने के लिए छिटपुट कदम उठाए जिसमें तेलंगाना के पीवी नरसिम्हा राव को आंध्र का सीएम बनाया जाना शामिल था।



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