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दूध से पानी निकालने का अवसर
Caste Based Census: देश में ओबीसी की कितनी तादाद है, यह अधिकारिक रूप से सही सही बताया नहीं गया है। हर जाति व जमात के नेता से उसके जाति की संख्या पूछ कर जोड़ लिया जाये तो भारत की आबादी आज की तीन गुना निकल आयेगी।
Caste Based Census: कभी समाजवादी नेता व चिंतक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया (Dr. Ram Manohar Lohia) ने नारा दिया था- "समाजवादियों ने बांधी गाँठ, पिछड़े पावैं सौ में साठ।" इस नारे के बाद से ही जातियों की राजनीति परवान चढ़ने लगी। लेकिन जब मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद पिछड़ों ने यह दावा करना शुरू कर दिया कि उनकी तादाद साठ फ़ीसदी है। मंडल कमीशन ने भी तब पिछड़ों की तादाद बावन फ़ीसदी बतायी थी। इसलिए सत्ताइस फ़ीसदी का आरक्षण बेमानी है।
पर यह दावा करने वाले यह भूल गये कि डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के पिछड़ों में सभी समाज- अगडों , पिछड़ों, दलित व मुस्लिम महिलायें भी शामिल रहा करती थी। आज पिछड़ी जमात के नेता, नुमांइदे व खैरख्वाह इन्हें अलग करके भी साठ की बात कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि जातीय जनगणना की माँग ज़ोर पकड़ रही है।
कहा गया है कि देश में ओबीसी की कितनी तादाद है, यह अधिकारिक रूप से सही सही बताया नहीं गया है। हर जाति व जमात के नेता से उसके जाति की संख्या पूछ कर जोड़ लिया जाये तो भारत की आबादी आज की तीन गुना निकल आयेगी। क्योंकि जो जिस जाति का नेता है, उसकी संख्या इतनी बढ़ी कर बताता है कि गणतंत्र में उसके जाति व जमात के गणों की तादाद ज़्यादा निकल आये। क्योंकि लोकतंत्र संख्या बल का खेल है। यही बढ़त उनका चुनावी महत्व का आधार बनता व बनाया जाता है। यही संख्या हर राजनेता को बड़ी संख्या वाली जाति व जमात के आगे सजदे करने को विवश करती है।
आरक्षण का लाभ पाने के लिए किया जाता है दावा
मंडल काल से यही सियासत चल रही है। एक बार मुलायम सिंह यादव जी से बात हो रही थी। वह समाजवादी हैं। लिहाज़ा पिछड़ों को साठ से नीचे मानने को तैयार नहीं थे। हमने उनसे आग्रह किया कि यदि आपकी बात मान ली जाये तो उत्तर प्रदेश में अठारह फ़ीसदी मुसलमान, बाइस फ़ीसदी दलित पहले से स्वीकार्य हैं। इस तरह तो अगडों की तादाद शून्य हो जाती है। यह दावा महज़ आरक्षण का लाभ पाने के लिए किया जाता है। पर हमने उन्हें बताया कि उत्तर प्रदेश में कम से कम ग्यारह फ़ीसदी ब्राह्मण, छह फ़ीसदी क्षत्रिय, तीन फ़ीसदी वैश्य व चार पाँच फ़ीसदी बाक़ी स्वर्ण जातियाँ है। इस लिहाज़ से देखें तो पिछड़ों की तादाद पैंतीस छत्तीस फ़ीसद से ज़्यादा नहीं बैठती है।
कई राज्यों में ओबीसी व मोस्ट ओबीसी में बाँट कर भी आरक्षण को परोसा जा रहा है। क्योंकि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आरक्षण का लाभ कुछ मुट्ठी भर परिवारों व जातियों तक सिमट कर रह गया है। ऐसे में इस नारे का प्रासंगिक हो उठना स्वाभाविक है- "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।" आरक्षण नौकरी के साथ साथ तमाम सरकारी संसाधनों के उपयोग की वरीयता का मौक़ा देता है।
लिहाज़ा कभी गुर्जर, कभी मराठा, कभी कोई और जाति आरक्षण के लिए सड़क पर उतर जाती है। जो आरक्षण के अधिकारी हैं और जो अधिकारी नहीं है दोनों में आरक्षण को लेकर ग़ुस्सा है। कारण दोनों के अलग अलग हो सकते हैं। लिहाज़ा बाहर व अंदर से क्रीमी लेयर की बात उठी व उठाई जाने लगीं।
इसी पर कान देते हुए तो सरकार ने भी कहा है कि ओबीसी वर्ग में क्रीमी लेयर के बारे में संशोधन करने पर विचार किया जा रहा है। ओबीसी संबंधी एक संसदीय समिति ने क्रीमी लेयर के लिए आय की सीमा 15 लाख रुपये प्रति वर्ष करने की सिफारिश की है।
सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थी महाराष्ट्र की याचिका
महाराष्ट्र में जातिगत आरक्षण के एक मामले पर पुनर्विचार करने संबंधी एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई थी। जिसे ख़ारिज करते हुए कोर्ट ने मई, 2021 में कहा था कि 102वें संविधान संशोधन के बाद ओबीसी की सूची बनाने का अधिकार राज्यों के पास नहीं, बल्कि केंद्र के पास है। इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में मराठों को ओबीसी में शामिल कर आरक्षण देने के फैसले पर भी रोक लगा दी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का काट निकालने के लिए केंद्र सरकार ने ओबीसी सूची तय करने का अधिकार राज्यों को देने के लिए 127वां संविधान संशोधन विधेयक लाने की पहल की। अब संविधान संशोधन के जरिये राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ओबीसी की सूची बनाने का अधिकार लौटा दिया गया है।
केवल एससी और एसटी की होती है अलग से गिनती
भारत की जनगणना में एससी और एसटी वर्गों की अलग से गिनती होती है। लेकिन बाकी जातियों की गिनती नहीं की जाती है। 2011 की जनगणना के साथ साथ देश में सामाजिक-आर्थिक जनगणना भी हुई थी। जिसके तहत जातिगत आंकड़े भी एकत्र किये गए थे। अलग अलग जातियों का आंकड़ा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया। जबकि विभिन्न राजनीतिक दल इसकी मांग कई बार कर चुके हैं।
जातीय आंकड़े भले ही सार्वजानिक न किये गए हों। लेकिन कुछ अलग जरियों से जातियों की स्थिति पता चलती है, मिसाल के तौर पर जिला स्तर पर देश के सभी स्कूलों का डेटा इकट्ठा करने वाली प्रणाली यूडीआईएसई प्लस के तहत एक दशक से भी ज्यादा समय से प्राथमिक स्कूलों में भर्ती होने वाले बच्चों की जाति की जानकारी की गयी। 2019 में प्राथमिक स्तर पर भर्ती होने वाले बच्चों में 45 प्रतिशत ओबीसी, 19 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) और 11 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति (एसटी) के थे।
रिपोर्ट के अनुसार बाकी लगभग 25 प्रतिशत हिन्दू सवर्ण और बौद्ध धर्म को छोड़ कर बाकी सभी धर्मों के अधिकतर बच्चे आते हैं। चूंकि पहली कक्षा से लेकर पांचवी कक्षा तक नामांकन दर 100 प्रतिशत है सो इस जातिगत तस्वीर को देश की आबादी में अलग अलग जातियों के हिस्सों का संकेत माना जा सकता है।
तमिलनाडु में हैं सबसे ज्यादा ओबीसी
अब स्कूल नामांकन की रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा 71 प्रतिशत ओबीसी तमिलनाडु में हैं। इसी राज्य में एससी 23 प्रतिशत, एसटी दो प्रतिशत और सामान्य श्रेणी चार प्रतिशत हैं। केरल में ओबीसी 69 प्रतिशत, कर्नाटक में 62 प्रतिशत और बिहार में 61 प्रतिशत हैं। सबसे कम ओबीसी पश्चिम बंगाल में 13 प्रतिशत और पंजाब में 15 प्रतिशत हैं। पंजाब में एससी सबसे ज्यादा 37 प्रतिशत हैं। एसटी सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ में 32 प्रतिशत हैं।
भारत में जनसंख्या की आखिरी गिनती 2011 में हुई थे। जिसमें कुल जनसंख्या 121 करोड़ पाई गयी थी जो आज लगभग 135 करोड़ हो गयी होगी। भारत की कुल जनसंख्या में 16.6 फीसदी अनुसूचित जाति के यानी करीब 26 करोड़ लोग हैं। अनुसूचित जाति को सरकार ने 15 फीसदी आरक्षण दे रखा है। जनसंख्या का 9 फीसदी हिस्सा अनुसूचित जनजाति का है यानी करीब 11.7 करोड़। इन्हें 7.5 फीसदी आरक्षण का लाभ मिला हुआ है।
अब ओबीसी के बारे में तर्क यह दिया जाता है कि उन्हें चूँकि सर्वाधिक आरक्षण 27 फीसदी मिला हुआ है सो उनकी हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। इस तर्क को भारत सरकार के नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों से मजबूती मिलती है। 2007 के आंकड़ों के अनुसार ओबीसी जनसंख्या 40.9 फीसदी, अनुसूचित जाति 19.59 फीसदी और अनुसूचित जाति की संख्या 8.63 फीसदी है। बाकी सभी लोग 30.80 फीसदी में शामिल हैं। वैसे इस सैंपल सर्वे का उद्देश्य घरेलू खर्चों के स्तर को नापना था।
आखिरी बार 1931 में हुई थी जातिगत आधार पर जनगणना
भारत में आखिरी बार 1931 में जातिगत आधार पर जनगणना की गई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण 1941 में आंकड़ों को संकलित नहीं किया जा सका था। आजादी के बाद 1951 में इस आशय का प्रस्ताव तत्कालीन केंद्र सरकार के पास आया था। लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह कहते हुए प्रस्ताव खारिज कर दिया था कि इससे समाज का ताना-बाना बिगड़ सकता है।
1951 के बाद से लेकर 2011 तक की जनगणना में केवल अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के आंकड़े प्रकाशित किए जाते रहे। 2011 में इसी आधार पर जनगणना हुई, किंतु अपरिहार्य कारणों का हवाला देकर इसकी रिपोर्ट जारी नहीं की गई। कहा जाता है कि करीब 34 करोड़ लोगों के बारे में जानकारी गलत थी।
मोदी सरकार का बड़ा दांव
संविधान संशोधन बिल को मोदी सरकार का बड़ा सियासी दांव माना जा रहा है। माना जा रहा है कि मोदी सरकार ने एक तीर से कई निशाने साधने में कामयाबी हासिल की है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से मेडिकल परीक्षाओं में ओबीसी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का एलान किया गया था। भारतीय जनता पार्टी को अगले साल उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में बड़ी सियासी जंग लड़नी है। इन चुनावों के दौरान ओबीसी वर्ग की भूमिका निर्णायक होगी।
खासतौर पर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा नेतृत्व अभी से ही पूरी ताकत लगाए हुए हैं। माना जा रहा है कि इस बिल के पास होने के बाद भाजपा 2022 के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव में इसके जरिए बड़ा सियासी लाभ पाने की कोशिश करेगी। भाजपा नेतृत्व इस तथ्य से वाकिफ है कि अगर ओबीसी समुदाय का समर्थन इसी तरह आगे भी जारी रहा तो सियासी रूप से पार्टी काफी मजबूत हो जाएगी।
जाति आधारित जनगणना न करने के पीछे क्या है तर्क?
क्षेत्रीय दल हमेशा से जातीय जनगणना की मांग करते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर केंद्र में रही कोई भी सरकार अपने हाथ नहीं जलाना चाहती। 2010 में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी। तब भी लालू, शरद यादव व मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने इसी आधार पर जनगणना की मांग की थी। उस समय पी. चिदंबरम सरीखे नेताओं ने इसका जोरदार विरोध किया था। सरकार का तर्क है कि जाति आधारित जनगणना के बाद तमाम ऐसे मुद्दे उठेंगे, जिससे देश में आपसी भाईचारा व सौहार्द बिगड़ेगा तथा शांति व्यवस्था भंग होगी। इससे समाज में विषम स्थिति पैदा होगी। यह विडंबना ही है कि सत्ता और विपक्ष मैं बैठे जातियों की राजनीति करते वक्त ऐसा कुछ नहीं सोचते हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जातीय गिनती पर बहुत जोर दे रहे हैं। बिहार राज्य विधानसभा में पहली बार 18 फरवरी , 2019 तथा फिर 27 फरवरी , 2020 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर मांग की गई कि 2021 में होने वाली जनगणना जाति आधारित हो। अब फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र से इस पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है।
उधर, राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने कहा है कि अगर 2021 में जातीय जनगणना नहीं होगी तो बिहार ही नहीं, देश के सभी पिछड़ों-अति पिछड़ों के अलावा दलित व अल्पसंख्यक समाज के लोग जनगणना का बहिष्कार कर सकते हैं। बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव कहते हैं कि 90 साल से विभिन्न जातियों की आबादी के बारे में सटीक जानकारी नहीं है। कमजोर वर्गों की उन्नति संबंधी सारी नीतियां पुराने आंकड़ों के आधार पर बनाई जा रही हैं, जो कतई उचित नहीं है।
अभी सरकार का कोई इरादा नहीं
भाजपा का रुख जातीय जनगणना पर साफ है फिलहाल जाति जनगणना कराने का कोई इरादा नहीं है। न ही 2011 के जाति जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक किया जाएगा। आरएसएस भी जातिगत जनगणना का विरोध करता रहा है। भारतीय जनता पार्टी जो कभी सवर्णों तथा बनियों की पार्टी समझी जाती थी, अन्य जातियों में अपना जनाधार बढ़ा चुकी है। इसलिए वह अब अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के साथ ओबीसी को लामबंद करना चाहती है।
साथ ही भाजपा गरीब सवर्णों को आरक्षण व जनसंख्या नियंत्रण जैसे कानून के सहारे हिंदुओं को एकजुट करने की कोशिश भी कर रही है।ऐसे में जातीय जनगणना की माँग ख़ारिज नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इससे न केवल राजनीतिक दलों के हित सधते हैं। बल्कि दूध का दूध पानी का पानी भी होता है। हाँ, जातीय जनगणना होने के चलते जितनी आशंकाओं को जगह मिलने की संभावना पढ़ी जा सकती है। उससे अधिक समस्याएँ हमारे नेताओं के जातीय आँकड़ों के चलते हम अभी भी जी रहे हैं।
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