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Caste Discrimination In India: जाति का जंजाल
Caste Discrimination In India: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 जाति के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। पर जिस भी नेता को देखिये केवल जाति की बात करता नज़र आता है।
Caste Discrimination In India: जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। कबीर दास ने कभी आदमी की पहचान के लिए उसके ज्ञान यानी गुण को महत्व दिया था। उन्होंने इस बात पर नाराज़गी जताई थी कि आदमी की पहचान जातियों से की जा रही है। जातियों से हो रही है। आज देखें तो कबीर दास के कहे पर अमल करने की जगह उलटे रास्ते पर हम चल निकले हैं। यह रास्ता हमें कहाँ ले जायेगा? यह हमें पता नहीं है, पर हम है कि चलते चले जा रहे हैं। रूकने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
केवल जाति की बात करता नजर आ रहा नेता
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 जाति के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। पर जिस भी नेता को देखिये केवल जाति की बात करता नज़र आता है। बिहार में नीतीश कुमार जातीय जनगणना करा रहे हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा में जातीय जनगणना का सवाल आता है तो सत्तारूढ़ भाजपा इससे पल्ला झाड़ लेती है। पर उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सपा के जातीय जनगणना कराने के एजेंडे के साथ खड़े दिखते हैं। तक़रीबन पचास साल के राहुल गांधी को दो तीन साल पहले समझ मैं आता है कि वह ब्राह्मण हैं। नरेंद्र मोदी को जब देश सर माथे बैठा कर घूम रहा है। तब भी उन्हें सदन के अंदर और बाहर दोनों जगह अपनी जाति बतानी पड़ रही है! हिंदू नेता की छवि वाले योगी आदित्यनाथ को उनके लोग जातीय नेता बनाने के करतब करते देखे जा रहे हों। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ओबीसी व दलित प्रचारक बनाने के कोटे तय किये जा रहे हों। खुद को राष्ट्रीय पार्टी बताने वाली भाजपा हो या कांग्रेस सत्ता के लिए जाति व परिवार की पार्टियों से समझौता करने में कोई परहेज़ न कर रही हों। गांधी जी को तेली, सरदार पटेल को कुर्मी, चंद्रशेखर आज़ाद को ब्राह्मण, अंबेडकर को दलित, कर्पूरी ठाकुर को नाई, मनु को ब्राह्मण बनाकर जातियों के हित साधे जा रहे हैं।
हद तो यह हो गयी कि जहां जहां भारतवंशी गये, वहाँ वहाँ जाति का यह जंजाल फैलता गया। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश इस संक्रामक बीमारी से ग्रसित हैं। अमेरिका में जैसे जैसे दक्षिण एशियाई प्रवासी बढ़े हैं, जातिगत पूर्वाग्रह का पालन किया जाने लगा है। हालाँकि इसके ख़िलाफ़ ‘इक्वैलिटी लैब्स’ (Equality labs) ने राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया। इस मुद्दे पर अपने प्रयासों के समर्थन में करीब 200 संगठनों का एक गठबंधन बनाया है। इस गठबंधन में 30 से अधिक जाति-विरोधी अम्बेडकरवादी संगठनों का नेटवर्क भी शामिल है।
इक्वैलिटी लैब्स के निदेशक थेनमोझी सौन्दराजन का कहना है कि उनके संगठन को सैकड़ों कर्मचारियों की शिकायतें मिली हैं, जिनमें "कार्यस्थलों में जाति का अपमान, डराना-धमकाना और उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न, बदले की भावना से पदावनति और यहां तक कि गोलीबारी करने" का आरोप लगाया गया है। 2020 में गूगल और एप्पल सहित सिलिकॉन वैली टेक कंपनियों में कार्यरत 30 दलित महिलाओं ने एक बयान प्रकाशित किया जिसमें काम पर जातिगत भेदभाव और उदाहरणों की रिपोर्ट करने में असमर्थता का आरोप लगाया गया था। अल्फाबेट वर्कर्स यूनियन, जो गूगल की मूल कंपनी अल्फाबेट इंक कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करती है, ने कंपनी से जातिगत भेदभाव पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया है।
जाति-आधारित भेदभाव
इक्वैलिटी लैब्स के एक सर्वे में अमेरिका में रहने वाले 67 फीसदी दलितों ने कहा कि उन्होंने कार्यस्थल में अनुचित व्यवहार का अनुभव किया है।जाति-आधारित भेदभाव को गैरकानूनी घोषित करने के संवेदनशील मुद्दे पर वर्ष 2010 से 2018 तक संसद के अंदर और बाहर परामर्श, अनुसंधान और बहस के बाद, अंततः 2018 में यूके की थेरेसा में सरकार ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून बनाने के बजाय अदालतों के फैसलों के अनुरूप चलने का फैसला किया था।
दरअसल यूके में 15 लाख भारतीय समुदाय जातिगत मुद्दे पर गहराई से विभाजित बताये जाते हैं। हालांकि, प्रभावशाली हिंदू, सिख और जैन लॉबी ने इस बात से इनकार किया है कि ब्रिटेन में जाति-आधारित भेदभाव मौजूद है। इनका कहना है कि इस तरह के कानून को लागू करने से वहां भी जाति की भावना पैदा हो जाएगी, जहां अभी भी मौजूद नहीं है। इसके विपरीत दलित और अन्य समूह भेदभाव के अस्तित्व पर जोर देते हैं।
सिएटल ने जातिगत भेदभाव को घोषित किया अवैध
ब्रिटेन में भले कोई रास्ता न निकला हो पर अमेरिकी में लड़ी जा रही। लड़ाई ने गुल भी खिलाया। अमेरिका के सिएटल शहर ने जातिगत भेदभाव को अवैध घोषित करके एक इतिहास रच दिया। ऐसे में ये भी जान लेने की जरूरत है कि सिएटल शहर में जातिगत भेदभाव खत्म करने का अभियान एक उच्च जाति की हिन्दू नेता क्षमा सावंत ने शुरू किया था। जिसे सिएटल सिटी काउंसिल ने बहुमत से मंजूरी दे दी। सिटी काउंसिल की सदस्य क्षमा सावंत ने प्रस्ताव पारित होने के बाद कहा - हमारे आंदोलन ने सिएटल में जातिगत भेदभाव पर एक ऐतिहासिक और पूरे देश में पहला प्रतिबंध जीता है। अब हमें इस जीत को पूरे देश में फैलाने के लिए एक आंदोलन बनाने की जरूरत है।
भारतीय-अमेरिकी सीनेटर प्रमिला जयपाल ने इस कदम को अपना समर्थन दिया। उन्होंने कहा - जातिगत भेदभाव का अमेरिका सहित दुनिया में कहीं भी समाज में कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि कुछ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने इसे परिसरों में प्रतिबंधित कर दिया है और श्रमिक जातिगत भेदभाव से जुड़े मामलों में अपने अधिकारों और अपनी गरिमा के लिए लड़ रहे हैं।
अमेरिका में जाति-विरोधी भेदभाव आंदोलन ने हाल के वर्षों में गति प्राप्त की है। ब्रैंडिस यूनिवर्सिटी 2019 में अपनी भेदभाव-विरोधी नीति के तहत जाति को एक संरक्षित वर्ग बनाने वाला पहला अमेरिकी कॉलेज था। उसके बाद अन्य लोगों ने इसका अनुसरण किया है, जिसमें कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी सिस्टम, ब्राउन यूनिवर्सिटी और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, डेविस शामिल हैं।
2021 में कैलिफ़ोर्निया डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपनी आचार संहिता में जाति को एक संरक्षित श्रेणी के रूप में जोड़ा। इसमें कहा गया था: "कैलिफ़ोर्निया को जातिगत समानता के लिए ऐतिहासिक लड़ाई में नेतृत्व करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम जाति-उत्पीड़ित अमेरिकियों के लिए स्पष्ट कानूनी सुरक्षा की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।"
ऐसे में सिएटल के बारे में भी जानना ज़रूरी हो जाता है। वाशिंगटन राज्य का सिएटल शहर अमेरिका के सबसे तेजी से बढ़ते शहरों में शामिल है। सिएटल औद्योगिक तथा टेक्नोलॉजी कंपनियों का एक बड़ा केंद्र है। यहां भारतीय मूल के लोगों की अच्छी खासी संख्या है। इनमें ज्यादातर लोग टेक कंपनियों में काम करते हैं। सिएटल और सिलिकॉन वैली में जातिगत भेदभाव की बहुत शिकायतें होती हैं। कुछ ऐसे निवासी हैं जिन्होंने टेक उद्योग में जातिगत भेदभाव का आरोप लगाया है। बता दें कि वाशिंगटन राज्य में 1,50,000 से अधिक दक्षिण एशियाई निवासी हैं, जिनमें से कई सिएटल क्षेत्र में स्थित हैं।
आज़ादी के तुरंत बाद जवाहर लाल नेहरू और चरण सिंह के बीच जातिवादी कौन? इसे लेकर पत्राचारों की एक श्रृंखला चली। बाद में दोनों लोगों के पत्रों को चरण सिंह ने एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित भी किया। पर इस ज्वलंत प्रश्न का उत्तर उस समय के दोनों नेताओं के पत्राचार में कहीं नहीं मिला। यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया। विडंबना है कि जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए सरकारी प्रयास भेदभाव को व्यापक और सदृश्य बनाने पर आधारित हैं। जातियों के लिए आयोग, जातिगत आरक्षण, जातिगत वित्त पोषण और सबसे ऊपर जातिगत राजनीति - इन सबने जातिगत भेदभाव को और भी व्यापकता दे दी है।
भारत में पिछले सौ वर्षों में जाति एकजुटता की भावना में वृद्धि हुई है। समाजशास्त्री जीएस घुरे ने 1932 की शुरुआत में यह तर्क दिया था कि जाति के पदानुक्रम पर हमला भारत में जाति का अंत नहीं है, बदले में, 'जाति एकजुटता' की एक नई भावना उत्पन्न हुई है, जिसे ‘जाति भक्ति’ के रूप में वर्णित किया जा सकता है। ब्रिटिश सरकार ने अपने शासन के तहत भारत में पिछड़े वर्गों के लोगों को काफी रियायत दी। इन अवसरों का लाभ उठाने के लिए, पारंपरिक जाति समूहों ने एक -दूसरे के साथ गठजोड़ किया और इस प्रकार बड़ी संस्थाएं बनाईं। इसने जाति समूहों और गठबंधनों की नींव रखी, जो आज भी एक ही जाति के लोगों को साथ जुटाना जारी रखे हैं।
यूं तो भारत में जाति व्यवस्था की उत्पत्ति प्राचीनकालीन भारत में हुई है।मध्यकालीन, प्रारंभिक आधुनिक और आधुनिक भारत, विशेष रूप से मुगल साम्राज्य और ब्रिटिश राज में विभिन्न शासक अभिजात वर्ग द्वारा इसे आगे ही बढ़ाया गया। ब्रिटिश राज में 1860 और 1920 के बीच, अंग्रेजों ने भारतीय जाति व्यवस्था को अपनी शासन प्रणाली में शामिल किया था। 1920 के दशक के दौरान सामाजिक अशांति के कारण इस नीति में बदलाव आया। तब औपनिवेशिक प्रशासन ने निचली जातियों के लिए सरकारी नौकरियों का एक निश्चित प्रतिशत आरक्षित करने की नीति शुरू की। आगे चलकर 1948 में जाति के आधार पर नकारात्मक भेदभाव को कानून द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया और 1950 में भारतीय संविधान में इसे और भी स्थापित कर दिया गया।
जातिगत आधार की राजनीति
भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल जातिगत भेदभाव की खिलाफत और समान समाज की वकालत करता है। लेकिन सभी दल जातिगत भेदभाव को समर्थन, आधार और वोट में भुनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। लगभग सभी क्षेत्रीय राजनीतिक दल जातिगत आधार की राजनीति करते हैं। स्वतंत्रता के बाद से भारतीय राजनीति भाषा, धर्म, जाति और जनजाति की चार प्रमुख पहचानों में उलझी हुई है। जबकि भारतीय राजनीति के शुरुआती दिनों में भाषा ने राज्यों का निर्माण किया, बाद के वर्षों में जाति की पहचान भारत की वोट बैंक की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाने लगी।
भारतीय लोकतंत्र के शुरुआती दिनों में राजनीतिक रूप से जातिगत पहचान इतनी अधिक कभी विकसित नहीं हुई थी। यह राजनीतिकरण ज्यादातर भारत के दक्षिणी हिस्से में शुरू हुआ, जहां ब्राह्मणों और पारंपरिक ‘उच्च जातियों’ का प्रभुत्व 1960 और 1970 के दशक तक समाप्त हो गया था। 1980 और 1990 के दशक तक, जाति कथा का राजनीतिक संस्करण उत्तरी भारत में पहुंच गया, जहां से यह भारतीय राजनीति में अपने महत्व के चरम पर पहुंच गया। यह सफर न सिर्फ जारी है बल्कि गहरी जड़ें जमा चुका है। लेकिन आज जब सिएटल से जातिवाद के ख़ात्मे की शुरुआत हुई है तो हमें उम्मीद यह करनी चाहिए कि पश्चिम की चीजें स्वीकारने, पश्चिम की नक़ल करने के आदी हम सब शायद इस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ायें। आमीन ।
( लेखक पत्रकार हैं । दैनिक पूर्वोदय से साभार।)