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Changing Voting Patterns: ये इवॉल्व होता वोटर! क्या ये चुनावी लोकतंत्र के लिए है शुभ संकेत
कटेंगे - बटेंगे का जोरदार उद्घोष। मराठा और अन्य ओबीसी की जोरदार राजनीति। मामला कांटे का तो था ही। नतीजा लेकिन एकदम अलग आया। मतदाताओं ने हैरान करते हुए कई चीजें साफ कर दीं।
Changing Voting Patterns: महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनाव और यूपी के उपचुनाव के नतीजों का उन सभी को बहुत बेसब्री से इंतज़ार था जो भारत की वर्तमान पॉलिटिक्स में रुचि रखते हैं। इंतज़ार खत्म हुआ और एक तरह से एन्टीक्लाइमेक्स सरीखे नतीजे आ गए। तमाम राजनीतिक पंडितों, विश्लेषकों और विचारकों के गुणा गणित फिर एक बार कुछ और ही साबित हुए।
दरअसल, बीते लोकसभा चुनाव और फिर हरियाणा चुनाव से ही एक ट्रेंड दिखाई देता है जो बताता है कि मतदाताओं का निर्णय अब पहले से भांप पाना आसान नहीं रहा है क्योंकि मतदाता के निर्णय पहले से कहीं ज्यादा समझबूझ वाले हो चले हैं जिसे राजनीतिक दल और नेता भी समझ रहे हैं।
अब झारखंड के ही चुनाव को लेते हैं। इस राज्य में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन न सिर्फ सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रहे थे, बल्कि भ्रष्टाचार के आरोपों का भी सामना कर रहे थे। यही नहीं, इस साल की शुरुआत में ईडी ने मुख्यमंत्री को गिरफ्तार भी किया था। भाजपा ने चुनाव में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मसला खूब जोर शोर से उठाया था। कटेंगे- बटेंगे का नया नारा यहां भी घुमाया गया। लगता था कि हेमंत सोरेन की नैया पार लगना बहुत मुश्किल है। लेकिन नतीजे कुछ और ही आये। वोटरों पर न भ्रष्टाचार और न बांग्लादेशी मुद्दा चला। चले तो सिर्फ सोरेन।
यूपी के उपचुनाव को भाजपा, खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और समाजवादी पार्टी यानी अखिलेश यादव के बीच मुकाबला माना गया था। जिस तरह लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन रहा था, उस आलोक में उपचुनाव ज्यादा महत्वपूर्ण हो चले थे। प्रचार और प्रत्याशी चयन काफी चर्चा का विषय रहा। खूब चुन कर प्रत्याशी उतारे गए। कटेंगे बटेंगे, साथ रहेंगे का नारा जम कर चलाया गया। कांटे की टक्कर बताई जाती थी। लेकिन नतीजों ने हैरान किया। मतदाताओं ने अपना संदेश दे दिया कि पार्टियां जो समझती हैं जमीनी स्तर पर वैसा होता नहीं है।
अब कुंदरकी सीट को देखिए। मुस्लिमों की भारी संख्या यहां है। लगता था एक मुश्त मुस्लिम वोटिंग से नतीजा तय होगा । लेकिन जीत कर निकले भाजपा के रामवीर सिंह और सपा के मोहम्मद रिजवान को एक खिसयानी हार का सामना करना पड़ा। लेकिन ऐसा हुआ क्यों? रामवीर सिंह की पार्टी भले ही कटेंगे- बटेंगे का नारा बुलंद करके हिन्दू लामबन्दी करने की कोशिश में थी । लेकिन खुद रामवीर सिंह इस नारे के विपरीत बोल रहे थे। कह रहे थे कि न कटेंगे, न बटेंगे बल्कि साथ रहेंगे। वो मुस्लिम टोपी लगा रहे थे और अपने को हिन्दू मुस्लिम सभी का नेता कह रहे थे। नतीजा सामने है।
एक और नतीजा सीसामऊ सीट का है। यहां समाजवादी पार्टी की नसीम सोलंकी ने जीत दर्ज की। नसीम के पति इरफान तमाम मामलों में जेल में बंद हैं। इसके अलावा, क्षेत्र में ध्रुवीकरण की तमाम अटकलों के बावजूद उस नसीम के पक्ष में जनता ने वोट डाले जिन्होंने अयोध्या के राम मंदिर में रुद्राभिषेक किया हुआ था। जीत के बाद भी नसीम ने कहा कि वो फिर मन्दिर जाएंगी, मस्जिद और गुरुद्वारे भी जाएंगी।
कहाँ गया इन सीटों पर हिन्दू मुस्लिम ध्रुवीकरण? कटेंगे बटेंगे तो यहां भी हवा हो गया।
महाराष्ट्र बहुत महत्वपूर्ण चुनाव था। यहां छह अलग अलग तरह की पार्टियां। कटेंगे- बटेंगे का जोरदार उद्घोष। मराठा और अन्य ओबीसी की जोरदार राजनीति। मामला कांटे का तो था ही। नतीजा लेकिन एकदम अलग आया। मतदाताओं ने हैरान करते हुए कई चीजें साफ कर दीं। यहां मतदाताओं ने साफ कर दिया कि बाल ठाकरे का ठोस हिंदुत्व ही चलेगा। उद्धव ठाकरे को बता दिया गया कि विचारधारा ही चलेगी, सिर्फ ठाकरे परिवार का होना काफी नहीं है।
हिंदुत्व के मामले में ये भी तय कर दिया गया कि भाजपा ही इसकी झंडाबरदार है और शिवसेना की सपोर्टिंग स्थिति रहेगी। शरद पवार का कद भी वोटरों ने तय करके बता दिया कि अब वो स्ट्रॉन्गमैन नहीं रहे। ये भी तय हो गया कि असली एनसीपी तो अजित पवार वाली ही है। जिस तरह तमाम मुस्लिम प्रत्याशियों की हार हुई उससे भी यूपी और झारखंड वाले संकेत मिल गए कि मुस्लिम गोलबंदी अब सिर्फ कहने भर की बात है, अब मतदाता मुद्दों और वास्तविकता को देख कर निर्णय करते हैं।
ये भी तय कर दिया गया कि ‘एन्टी इनकम्बेंसी’ यानी सत्ता विरोधी रुझान का कोई महत्व नहीं रह गया है। जो काम करेगा, हमें फायदा पहुंचाएगा वही शासन करेगा। एक महत्वपूर्ण फैक्टर झारखंड और महाराष्ट्र में महिला वोट बैंक का रहा जिसे मजबूती दी गई है ढेर सारी कैश स्कीमों के मार्फ़त । इन योजनाओं का असर इन राज्यों में महिलाओं के मतदान प्रतिशत में वृद्धि से साफ दिखाई देता है।
महाराष्ट्र में 2019 के चुनावों की तुलना में इस बार महिलाओं के मतदान प्रतिशत में लगभग 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इत्तेफाक की बात है कि इस साल हुए लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में एनडीए के खराब प्रदर्शन के बाद, एकनाथ शिंदे सरकार ने ‘लड़की बहन योजना’ शुरू की, जिसके तहत 2.5 लाख रुपये से कम सालाना पारिवारिक आय वाली महिलाओं को 1,500 रुपये दिए गए।
झारखंड को देखिए। हेमंत सोरेन सरकार ने इस साल अगस्त में ‘मुख्यमंत्री मैया सम्मान योजना’ शुरू की, जिसमें18 से 50 वर्ष की आयु वर्ग की सभी महिलाओं को 1,000 रुपये प्रति माह मिलते हैं। सोरेन ने दिसंबर 2024 से इसे बढ़ाकर 2,500 रुपये प्रति माह करने का वादा भी किया हुआ है। अब चुनावी रिजल्ट देखिए। मतदान के दौरान राज्य की 85 फीसदी सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से ज़्यादा रही। 81 में से 68 सीटों पर महिलाओं का मतदान पुरुषों से ज़्यादा रहा। 2019 में महिलाओं का मतदान प्रतिशत 67 फीसदी था, जो इस बार बढ़कर 70 फीसदी से ज़्यादा हो गया।
साल भर पीछे की ओर चलते हैं। मध्य प्रदेश में 15 साल के शासन के बाद शिवराज सिंह चौहान सरकार ने जनवरी 2023 में राज्य में ‘मुख्यमंत्री लाडली बहना योजना’ शुरू कर दी। जिसके तहत महिलाओं को हर महीने 1,000 रुपये दिए जाते थे। बाद में इसे बढ़ाकर 1,250 रुपये कर दिया गया। इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या में दो प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई और भाजपा ने चुनावों में बढ़िया जीत दर्ज की।
लेकिन अपवाद हर जगह होते हैं। इस रुपया योजना में राजस्थान अपवाद साबित हुआ। यहां की अशोक गहलोत सरकार ने भी महिलाओं के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं, जिनमें स्मार्टफोन, मुफ्त सैनिटरी नैपकिन और सस्ते गैस सिलेंडर बांटना शामिल था। लेकिन इनमें नकद रकम नहीं दी जाती थी। गहलोत की योजनाएं लोकप्रिय तो हुईं । लेकिन फिर भी कांग्रेस चुनाव हार गई।
महिलाओं के लिए योजनाओं के जरिये कैश बांटने की शुरुआत का श्रेय आंध्र प्रदेश में वाई एस जगन मोहन रेड्डी सरकार को जाता है। 2020 में जगन की सरकार ने ‘ जगन्ना अम्मा वोडी योजना’ शुरू की थी जिसके तहत माताओं को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रति वर्ष 15,000 रुपये दिए गए। अब चंद्रबाबू नायडू की सरकार ने नाम बदल कर यह स्कीम चालू रखी है।
2021 में पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने ‘लक्ष्मी भंडार योजना’ शुरू की थी जिसमें निर्धन महिलाओं को हर महीने 1,000 रुपये दिए जाते हैं। कर्नाटक में कांग्रेस ने पिछले साल अगस्त में सत्ता में आने के बाद ‘गृह लक्ष्मी योजना’ शुरू की। उधर तमिलनाडु में स्टालिन की द्रमुक सरकार ने पिछले साल सितंबर में महिलाओं के लिए ‘कलैगनार मगलीर उरीमाई थित्तम’ योजना शुरू की थी, जिसके तहत एक करोड़ महिलाओं को हर महीने 1,000 रुपये दिए जाते हैं। उसी साल दिसंबर में तेलंगाना में कांग्रेस सरकार ने ‘महालक्ष्मी योजना’ शुरू की, जिसके तहत महिलाओं को बस में मुफ्त यात्रा और हर महीने 2,500 रुपये नकद दिए गए।
छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार ने इस साल मार्च में ‘महतारी वंदन योजना’ की घोषणा की, जिसमें शादीशुदा महिलाओं को 1000 रुपये दिए जाते हैं। ओडिशा में भाजपा सरकार ने सत्ता में आने के तुरंत बाद महिलाओं के लिए ‘सुभद्रा योजना’ की घोषणा की। इसमें गरीब महिलाओं को पांच साल में 50,000 रुपये दिए जाएंगे।
दिल्ली में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। यहां आम आदमी पार्टी की सरकार ने पहले ही ‘मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना’ की घोषणा कर दी है, जिसके तहत 18 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये दिए जाएंगे।
तो क्या है मतदाताओं का मिजाज? कोई कुछ नहीं कह सकता। लेकिन ये जरूर है कि मिजाज पहले के तय ढर्रे से अलग हटता जा रहा है। इसे पीढ़ीगत बदलाव भी कह सकते हैं। इसमें लगातार परिवर्तन यानी एवोल्यूशन भी होता जाएगा। चुनावी लोकतंत्र के लिए ये एक अच्छा संकेत है। ये इवॉल्व होता वोटर है, जिसमें आप भी हैं और हम भी। यही हमारी ताकत है। हमारी यह ताक़त आख़िर में क्या शक्ल अख़्तियार करेगी। यह देखा जाना ज़रूरी है। क्योंकि अब तक लोकतंत्र में जो भी प्रयोग हुए वे टिके नहीं। वे चाहे विकास हो। चाहे तुष्टिकरण हो। चाहे सनातन हो। चाहे रेवड़ियाँ हो। चाहे धुर राष्ट्रवाद हो। चाहे जातियों की लामबंदी हो। देश के किसी न किसी कोने व किसी न किसी चुनाव में ये चले तो इनकी हवा भी निकली। लेकिन अब जब आज़ादी के पचहत्तर साल से हम आगे निकल आये हैं। तब तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए कि लोकतंत्र जो कल तक मुद्दों , नेताओं, रेवड़ियों, जातिवाद, तंत्र और तुष्टिकरण आदि से संचालित होता चला आ रहा है, वह लोक से संचालित होगा।
(लेखक पत्रकार हैं ।)