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Chhath Puja 2024: शारदा सिन्हा का पान भी सुरीला था!
Sharda Sinha Chhath Geet: भारतीय संस्कार मय महिला का रूप, मां का स्वरूप शारदा ने छठ मइ्या की आस्था को भावनात्मक परम्पराओं की उन ऊंचाइयों तक पंहुचा दिया जहां आस्था के आगे कोई टिक ही नहीं सकता।
Sharda Sinha Chhath Geet: छठ मइ्या की आवाज़, लोकसंगीत की लता मंगेशकर, स्वरकोकिला, बिहारी माटी की सुगंध,भोजपुरी-मैथिली गीतों की पवित्रता.. मां शारदा की शक्ति...जैसी पहचान बनाने वाली शारदा सिन्हा का जिक्र और गीत गूंज रहे हैं। ये छठ महापर्व का शोक काल है। उनके कई गीत भावुक कर देते हैं, छठ की संगीतमय फिज़ाओं में शारदा जी की विदाई बेहद भावुक करने वाली है। आस्था को चरम पर पहुंचाने वाले उनके गीतों की स्वरलहरियां जब फिजाओं में तैर रहीं हैं ऐसे में उनकी रुखसती ने कईयों को रुला दिया। त्योहारों के अलावा मांगलिक आयोजनों में भी बिहार की इस स्वरकोकिला के गीत गूंजे बिना यहां सबकुछ अधूरा सा लगता है।सुपर हिट फिल्म -"मैंने प्यार किया" के अलावा दर्जनों फिल्मों में भी उनके लोकगीतों ने धमाल मचा दिया था।
साड़ी, बिंदी, सिन्दूर। भारतीय संस्कार मय महिला का रूप, मां का स्वरूप शारदा ने छठ मइ्या की आस्था को भावनात्मक परम्पराओं की उन ऊंचाइयों तक पंहुचा दिया जहां आस्था के आगे कोई टिक ही नहीं सकता। पाश्चात्य संस्कृति की गोद में रहने वाले बिहार, यूपी, झारखंड इत्यादि सूबों के एन आर आई भी छठ पर्व पर शारदा जी के गीत सुनने की तलब में बेचैन हो जाता है, उनकी एक धुन से तड़प उठते हैं, धर्म,आस्था, सनातन धर्म और अपनी जड़ों की तरफ खिंचे चले आते हैं। जैसे उनकी मिट्टी की सुगंध उन्हें आवाज दे रही हो।
ये बेचेनी साबित करती है कि किसी भी धर्म की आस्था तलवार की रक्षा से नहीं, सत्ता के स्वार्थ वाली धर्म-जाति की राजनीति से नहीं बल्कि संगीत की ताकत से सुरक्षित होती है, आगे बढ़ती है और फलती-फूलती है। धर्म कोई भी हो पारंपरिक धुन, लय, गीत और संगीत की परंपराओं से धार्मिक आस्था परवान चढ़ती है। सनातन, सिक्ख, क्रिश्चियनिटी तो छोड़िए इस्लाम धर्म तक में धुनों के बिना मजहबी अरकान अधूरे हैं। हांलांकि इस्लाम के बहत्तर फिरकों में कुछ संगीत को गैर इस्लामी मानते है। जबकि अज़ान तक रिदम और लय के बिना अधूरी समझी जाती है। कुरआन की तिलावत भी लयबद्ध होती है। मिलाद, नात, कव्वाली,सलाम, पेशखानी, मातम, नौहा ख्वानी सबमें संगीत है, लय, रिदम और धुन के साथ ही ये आस्था में धार पैदा करते हैं। परंपराएं शुरू करते हैं, जो अटूट बन जाती हैं। ये रवायतें लोगों को खींचती है, जोड़ती हैं और आकर्षित करती हैं।
शारदा सिन्हा ने अपने गीत-संगीत और मधुर आवाज़ की जादूगरी से सनातन धर्म की सेवा की, रक्षा की और पाश्चात्य युग में भी नई पीढ़ी को संगीत के माध्यम से धार्मिक परंपराओं से जोड़ा। क्योंकि संगीत में जोड़ने की जो शक्ति है वो तलवार से डराकर,सियासत से रिझाकर भी नहीं पैदा की जा सकती। संगीत फैवीकॉल से कहीं अधिक जोड़ने की ताकत रखता है।
चौबीस बरस पहले भी शारदा सिन्हा की तूती बोलती थी, उस जमाने में लखनऊ महोत्सव में देश के नामी गिरामी कलाकार महोत्सव की रौनक बनते थे। यहां उनकी परफार्मेंस थी। गोमती होटल में वो ठहरी थीं। महोत्सव के दौरान लखनऊ के सांस्कृतिक संवाददाता बहुत व्यस्त रहते थे। मैं भी व्यस्त था। उन दिनों पान की लत थी। ये लत लगाई थी जागरण चौराहे पर दीवान पान वाले ने। आजकल जिस चौराहे पर पुलिस बूथ है यहां दीवान की बड़ी सी पान की गुमटी हुआ करती थी। दीवान के पान की दीवानगी ये थी कि उसके हाथ के लगे पान के अलावा कहीं का पान अच्छा नहीं लगता था। उस दिन व्यस्तता के कारण उसके हाथ का लगा पान नहीं खा सका था। तलब लगी थी। गोमती होटल में शारदा सिन्हा का इंटरव्यू लेने गया। बात करते-करते उन्होंने अपना पानदान निकाला और पान निकालकर खाया। बताया कि वो ये छोटा सा पानदान हमेशा अपने पास रखती हैं। बात करते करते मैं रुक गया और मेरी लालच भरी निगाहों को उन्होंने ताड़ लिया। बोलीं- पान खाना है ?
झिझक से बोला जी खिला दीजिए। उनका पान खाकर दीवान का पान का स्वाद फीका पड़ गया। उनके पान में ऐसी मुलायमियत, ताज़गी और अपनी मट्टी के सौंधे पन जैसा संगीत था। इतना स्वादिष्ट और सुरीले पान का स्वाद आज भी महसूस करता हूं। चौबीस बरस हो गए इसके बाद पान नहीं खाया। अभी भी मुंह में उनके पान का स्वाद है। छठ महापर्व पर जब-जब शारदा सिन्हा के गीत कानों तक पहुंचे मुंह में उनके पान का स्वाद ताजा हो गया। पांच नवंबर, 2024 की रात उनके ना रहने की खबर झूठी लगी। सच तो ये है कि मां शारदा की भक्तन शारदा सशरीर नहीं रहीं । लेकिन उनकी आवाज़,लोकगीत, धुने, भक्ति हमेशा जीवित रहेगी। छठ हो, मांगलिक कार्य या जीवन का संघर्ष.. हर मौके पर शारदा सिन्हा का लोकसंगीत मिट्टी की सुगंध के साथ महकता रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)