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शहरों को मुंह चिढ़ाते स्लम्स, सरकार की योजनाओं पर भी सवाल

raghvendra
Published on: 2 Aug 2019 10:13 AM GMT
शहरों को मुंह चिढ़ाते स्लम्स, सरकार की योजनाओं पर भी सवाल
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प्रदीप श्रीवास्तव

नई दिल्ली में यमुना नदी के किनारे बसे गीता कालोनी का इलाका नई दिल्ली के मध्यवर्ग की रिहाइशी जगह है। यहां हजारों बड़े-बड़े फ्लैट्स, अपार्टमेंट और बंगले हैं। इन्हीं के बीच एक छोटे पार्क नुमा जगह पर कई दशकों से बसा है सफेदा बस्ती स्लम एरिया। एक दशक पहले सफेदा बस्ती को बीच से चीरते हुए एक सडक़ बनाई गई, जिससे एक बड़ा और एक छोटा इलाका विकसित हुआ। बड़े एरिया का नाम सफेदा बस्ती और छोटे का नाम नर्सरी बस्ती रखा गया। बस्तीवासियों ने अलग होना पसंद नहीं किया और दोनों नाम मिलाकर सफेदा और नर्सरी बस्ती नाम रख लिया। एमसीडी ने फाइलों में सफेदा और नर्सरी बस्ती स्लम एरिया लिख दिया।

बस्ती की करीब 70 फीसदी आबादी रिक्शा चलाती है। 30 प्रतिशत लोग पल्लेदारी यानी माल उठाने और पहुंचाने का काम करते हैं। करीब दो सौ मीटर लंबे और 50 मीटर चौड़े इस स्लम में करीब 500 परिवार रहते हैं। यहां की कुल आबादी पांच हजार से ज्यादा है। इसमें अधिकतर अस्थायी निवासी हैं, जो आते जाते रहते हैं। जितने लोग यहां से चले जाते हैं, उतने ही आ भी जाते हैं।

इस बस्ती में आबादी को जीने के लिए सभी जरूरी चीजें गायब हैं। न साफ हवा, न पानी और न मलमूत्र त्यागने की जगह। बस्ती में सडक़ नहीं बनी है। बस खुली नाली और उसके बीच में चलने की छोटी जगह है। बस्ती के पास एक सरकारी स्कूल है, जहां बच्चे पढऩे जाते हैं, लेकिन गरीबों में भी अत्यधिक गरीब होने के कारण स्कूल में भी उनके साथ भेदभाव होता है। गंदगी और अत्यधिक प्रदूषण में जिंदगी जीने वाले एक भारी आबादी के लिए नजदीक में कोई स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। पहले बस्ती में कोई सीवर लाइन नहीं थी इसलिए, शौचालय भी नहीं थे। खाली मैदान सिमटने के कारण घरों में शौचालय बनाए गए, जिसका मल - मूत्र व गंदा पानी खुली नालियों में बहाया जाने लगा। दिल्ली प्रशासन और दिल्ली जल बोर्ड के साथ क्योर एनजीओ ने 2014 में बस्ती में सामूहिक पहल पर 110 मीटर लंबी एक सीवर लाइन बिछाई। इस निजी सीवर लाइन की देखभाल बस्ती के ही लोग करते हैं। इसके लिए एक कमेटी बनाई गई है, जो सीवर लाइन के मेंटेनेंस को देखती हैं। अगर कोई अपने घर में शौचालय बनाता है, तो वह सीवर लाइन से शौचालय के पाइप को जोड़ सकता है, लेकिन इसके लिए उसे एक मुश्त राशि बतौर मेंटेनेंस देनी पड़ती है। अत्यधिक गंदगी व जल निकासी के अभाव के कारण यहां रोगों का बोलबाला रहता है। स्लमवासियों की आय का एक बड़ा हिस्सा दवा इलाज पर ही खर्च हो जाता है। दुर्भाग्य यह है कि स्लम एरिया को साफ रखने और एक बेहतर जिंदगी की तलाश में आए लोगों को सचमुच की बेहतर जिंदगी देने की कोई व्यवस्था सरकारी सिस्टम के पास नहीं है।

सेंटर फॉर अर्बन एंड रीजनल एक्सीलेंस की मानें तो दिल्ली में 880 से ज्यादा छोटे-बड़े स्लम एरिया हैं, जिनकी कुल आबादी करीब बीस लाख है। यहां उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, आसाम, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों से लोग आकर बसे हैं। अधिकतर बस्तियों में साफ सफाई, शौचालय, सीवर लाइन और कूड़े के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं है। सीवर व्यवस्था न होने के कारण घरों में शौचालय नहीं बनाए जा सकते हैं। प्राथमिक शिक्षा के लिए स्लम्स के आसपास स्कूल तो खोले गए हैं, लेकिन यह भी सामाजिक भेदभाव, सरकारी उपेक्षा और अव्यवस्था के शिकार हैं।

सरकार ने गरीबों के लिए खासतौर से शहरी गरीबों के लिए आवास योजना समेत दर्जनों योजनाएं शुरू की हैं। स्थानीय जिला प्रशासन की इकाईयां भी पानी, साफ-सफाई, स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी कई योजनाएं चलाती हैं लेकिन, सरकारी योजनाओं की चाल झुग्गी झोपडिय़ों के विकास के मामले में कुछ ज्यादा ही सुस्त है। वैश्विक स्तर पर सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) को हासिल करने के लिए शहरी गरीबों के हालात को बदलने के एजेंडे पर हस्ताक्षर के बाद भी देश में स्लम्स एरिया में रहने वालों के लिए कोई ठोस नियम कानून तक नहीं हैं।

विगत दशकों में शहरीकरण की गति बहुत तेज हुई है। यूएन की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक विश्व की जनसंख्या करीब दो अरब के आसपास हो जाएगी। इसका सबसे अधिक असर एशिया और अफ्रीका के देशों पर पड़ेगा। दोनों महाद्वीपों की बुनियादी व्यवस्था 90 प्रतिशत शहरीकरण के कारण प्रभावित होंगी। 2030 तक भारत में 40 करोड़ से अधिक लोग शहरों में बसे होंगे। मौजूदा समय में शहरों में बसे प्रत्येक छह परिवारों में से एक परिवार गंदी बस्तियों यानी स्लम्स में रहता है और आने वाले वर्षों में यह संख्या बढ़ेगी। ‘क्योर’ से जुड़े सिद्धार्थ पांडेय कहते हैं कि स्लम बस्तियों में रहने वाले दूसरे प्रदेशों के निवासी हैं, जो खेती किसानी छोडक़र या बेहतर जिंदगी की तलाश में बड़े शहर की ओर रुख करते हैं। कम शैक्षणिक स्थिति या अनपढ़ या स्पेशल स्किल की कमी के कारण उन्हें मजदूरी या छोटे मोटे कामों पर निर्भर रहना पड़ता है। जानकारी के अभाव में कार्यकुशलता बढ़ाने की सरकारी योजनाएं भी यहां काम नहीं आती हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता वर्षा कहती हैं कि शहरी क्षेत्रों में रोजगार की संभावनाएं अधिक होती हैं, इसलिये रोजगार की तलाश में गांवों या छोटे शहरों से पलायन करके लोग आते हैं। यहां वे ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक धन कमाते हैं और राष्ट्रीय आय में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं लेकिन, असमान विकास के कारण उन्हें उपेक्षित होना पड़ता है। वह नारकीय जिंदगी जीने को मजबूर रहते हैं।

आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1983 में शहरी क्षेत्रों में प्रवासियों का अनुपात 31.6 प्रतिशत था। 2007-08 में यह बढक़र 35.4 प्रतिशत हो गया। वहीं, 2001 की जनगणना में शहर - कस्बों की कुल संख्या 5,161 थी, जो 2011 में बढ़ कर 7,936 हो गई। यानी शहरों का विस्तार तेजी से हो रहा है और मलिन बस्ती या स्लम एरिया में रहने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। भारत का छोटा-बड़ा शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहां मलिन बस्ती न हो। आज हर तीन भारतीयों में से एक शहरों और कस्बों में रहने लगा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में विश्व की आधी आबादी शहरों में रहने लगी है और 2050 तक भारत की आधी आबादी महानगरों और शहरों में रहने लगेगी। यूएन का अनुमान है कि 1990 और 2025 के बीच विकासशील देशों में शहरी आबादी में तीन गुना वृद्धि हो चुकी होगी और यह कुल जनसंख्या के 61 प्रतिशत के बराबर हो जाएगी।

आज देश में लगभग 7 करोड़ लोग शहरी झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं। बड़ी संख्या में लोग पुलों के नीचे, सडक़ों पर और जहां-तहां रहते हैं। यही लोग उच्च एवं मध्य वर्ग की अनेक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, परंतु स्वयं वे न केवल गरीबी के शिकार हैं, बल्कि बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। सडक़ों पर गड्ढ़े, सीवर प्रणाली का अभाव एवं जल-जमाव से होने वाली परेशानियां और बीमारियां, बिजली, पानी एवं संचार सुविधाओं का अस्त-व्यस्त व असमान रूप, मलिन बस्तियों को इतना अधिक समस्यामूलक बना देता है कि सरकारी अधिकारी भी यहां जाने से हिचकिचाते हैं।

विगत सालों में एक अन्य नयी समस्या जो गरीबों के सामने आने लगी है। वह है तकनीक पर शहरों की बढ़ती निर्भरता। शहर या स्मार्ट-सिटी में पैर पसारती उन्नत तकनीक के सामने गांव से भारी मात्रा में आये निम्न-कौशल वाले कारीगरों के लिए औपचारिक उद्योगों या आधुनिक सेवाओं में कोई जगह नहीं है। सुदूर गांव के बेहतरीन हस्तशिल्प के कारीगर शहरों में रिक्शा चलाने को बाध्य हो जाते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमान है कि भविष्य में अधिकांश जनसंख्या वृद्धि शहरी क्षेत्रों में ही होगी। 2030 तक, 16.5 करोड़ अतिरिक्त लोग शहरी क्षेत्रों की ओर रुख करेंगे। आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के नेशनल रिपोर्ट (इंडिया हैबिटेट) के अनुसार, 2011 तक शहरी आबादी का 17 प्रतिशत झुग्गी झोपडिय़ों और स्लम्स में रहता था, जो बढ़ रहा है। झुग्गी-झोपडिय़ों में रहने वाले परिवारों की संख्या 2001 में 1 करोड़ से बढ़ कर 2011 में 1.5 करोड़ हो गई। अधिकांश शहरी गरीब मेगा शहरों में रहते हैं। इसमें ग्रेटर मुंबई, दिल्ली - एनसीआर और कोलकाता की झुग्गी - झोपडिय़ां शामिल हैं। विगत दशकों से अपेक्षाकृत छोटे शहरों में भी स्लम्स की संख्या बढ़ती जा रही है, जिसने विकास को लेकर सरकार के पास कोई ठोस उपाय नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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