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हमारे देश को आजाद हुए 74 साल हो गए, लेकिन आज तक देश में एक भी कानून हिंदी या किसी भारतीय भाषा में नहीं बना। हमारी संसद हो या विधानसभाएं- सर्वत्र कानून अंग्रेजी में बनते हैं। अंग्रेजी में जो कानून बनते हैं, उन्हें हमारे सांसद और विधायक ही नहीं समझ पाते तो आम जनता उन्हें कैसे समझेगी?

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Ashiki
Published on: 21 Sept 2021 8:13 AM IST
indian judicial system
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कॉन्सेप्ट इमेज  

भारत के मुख्य न्यायाधीश नथालपति वेंकट रमन ने न केवल अदालती कामकाज से जुड़े लोगों बल्कि क़ानून व संविधान की दुहाई देने वालों को भी आईना दिखाने का काम किया है। रमन जी ने एक स्मारक भाषण में कहा,"भारत की न्याय व्यवस्था को औपनिवेशिक और विदेशी शिकंजे से मुक्त किया जाना चाहिए।" यह शिकंजा है- अंग्रेजी की गुलामी का। हमारे देश को आजाद हुए 74 साल हो गए, लेकिन आज तक देश में एक भी कानून हिंदी या किसी भारतीय भाषा में नहीं बना। हमारी संसद हो या विधानसभाएं- सर्वत्र कानून अंग्रेजी में बनते हैं। अंग्रेजी में जो कानून बनते हैं, उन्हें हमारे सांसद और विधायक ही नहीं समझ पाते तो आम जनता उन्हें कैसे समझेगी? हम यह मानकर चलते हैं कि हमारी संसद में बैठकर सांसद और मंत्री कानून बनाते हैं लेकिन असलियत क्या है ? इन कानूनों को तैयार करने वाले तो नौकरशाह होते हैं। लेकिन इन कानूनों को समझने और समझाने का काम हमारे वकील और जज करते हैं। इनके हाथ में जाकर कानून जादू-टोना बन जाता है। अदालत में वादी और प्रतिवादी बगलें झांकते हैं। वकीलों और जजों की गटर-पटर चलती रहती है। किसी मुजरिम को फांसी हो जाती है। उसे पता ही नहीं चलता है कि वकीलों ने उसके पक्ष या विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं ।न्यायाधीश के फैसले का आधार क्या है।इन्हीं बातों पर न्यायमूर्ति रमन ने जोर दिया है।


समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने भी एक बार हाईकोर्ट के एक आयोजन में कहा था कि वकील मुक़दमे की तारीख़ भी अंग्रेज़ी में माँगते हैं ताकि मुवक्किल यह समझे कि बहस हो रही है। उन्होंने अदालतों में हिंदी में कामकाज किये जाने की ज़रूरत पर बल दिया।इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस न्याय-प्रक्रिया में वादी और प्रतिवादी की जमकर ठगी होती है । न्याय के नाम पर अन्याय होता रहता है। इस दिमागी गुलामी का नशा इतना गहरा हो जाता है कि भारत के मामलों को तय करने के लिए वकील और जज लोग अमेरिका और इंग्लैंड के अदालती उदाहरण पेश करने लगते हैं। मुकदमे इतने लंबे खिंच जाते हैं कि चालीस पचास साल भी लग जाते हैं।

देश में इस समय लगभग चार करोड़ मुकदमे बरसों से अधर में लटके हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट में करीब 54,013 मुकदमे लंबित हैं। 2.85 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमे निचली अदालतों में जबकि उच्च न्यायालयों में 47.64 लाख से अधिक मामले पेंडिंग हैं।सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में लंबित हैं, जिनमें निचली अदालतों में 68,51,292 हैं और इलाहाबाद हाईकोर्ट में 7,20,440 मुकदमे लटके हैं।हाईकोर्ट में लंबित मामलों की फेरहिस्त में राजस्थान हाईकोर्ट टॉप पर है, जहां 7,28,030 मुकदमे लंबित हैं। विधि मंत्रालय के अनुसार देश के हर हाई कोर्ट के न्यायाधीश के सामने लगभग 4,419 लंबित मामले हैं। जबकि निचली अदालतों के प्रत्येक न्यायाधीश को लगभग 1,288 लंबित मामलों का निपटारा करना है।राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड के अनुसार, 2018 के अंत में, जिला और अधीनस्थ अदालतों में 2.91 करोड़ मामले लंबित थे । जबकि 24 उच्च न्यायालयों में 47.68 लाख मामले लंबित थे।


मुक़दमों के निपटान के समय पर नज़र दौड़ायें तो हम पाते हैं कि कई मामले तो चालीस पचास साल तक लटके रहे हैं। देश भर के उच्च न्यायालयों में 10 साल से ज्यादा पुराने 21.61 फीसदी मामले हैं ।जबकि पांच साल से ज्यादा समय से 22.31 फीसदी मुकदमे लटके हुए हैं।निचली अदालतों में 10 साल से पुराने मामले 8.30 फीसदी हैं । 5 साल से ज्यादा समय के 16.12 फीसदी मामले हैं।निचली अदालतों के कुल मामलों में 46.89 फीसदी दो साल से कम समय के हैं। दो से 5 साल के 28.69 फीसदी मुकदमे लंबित हैं। पांच साल से अधिक पुराने 16.12 फीसदी मामले हैं ।जबकि दस साल से ज्यादा समय से 8.30 फीसदी मामले हैं। दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में मुक़दमों को लेकर यह स्थिति नहीं हैं।

भारत में किसी से पूछिये कि लंबित मुक़दमों की वजह क्या है तो वह बतायेगा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में 1 अगस्त, 2021 को जजों की 66 रिक्तियां थीं। यहां जजों की अधिकृत संख्या 160 है। कलकत्ता हाई कोर्ट में 72 जज होने चाहिए पर 41 रिक्तियां हैं।पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में जजों के 39 पद खाली हैं। पटना हाईकोर्ट में 34, दिल्ली हाईकोर्ट में 30, मुंबई हाईकोर्ट में 31 और राजस्थान हाईकोर्ट में जजों की 25 रिक्तियां हैं। झारखंड हाईकोर्ट में 10 और उत्तराखंड हाईकोर्ट में भी न्यायाधीशों के 4 पद खाली हैं। तेलंगाना उच्च न्यायालय में 42 जज होने चाहिए । लेकिन 30 पद खाली हैं।सिक्किम, मेघालय और मणिपुर हाईकोर्ट में कोई रिक्ति नहीं है। इन उच्च न्यायालयों जजों की संख्या ही 3 से 4 की है, इसलिए यहां रिक्तियां नहीं हैं। आजादी के बाद से ही अदालतों और जजों की संख्या आबादी के बढ़ते अनुपात के मुताबिक कभी भी संतुलन नहीं बना पाई। डिमांड और सप्लाई का असंतुलन बढ़ता ही गया है।


विधि आयोग ने 1987 में कहा था कि दस लाख लोगों पर कम से कम पचास न्यायाधीश होने चाहिए । लेकिन आज भी दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों की संख्या पंद्रह से बीस के आस-पास है। जबकि देश में कुल निचली अदालतों की संख्या 22,644 तथा कुल न्यायिक अधिकारियों की तादाद 17,509 है। कुल हाई कोर्ट 25 हैं।हाई कोर्ट में जजों की स्वीकृत संख्या 1,079 है, जबकि कुल मौजूदा जज 695 ही है। यही नहीं, एक ही क़ानून की किताब के अपने अपने अर्थ निकाले जाते हैं। तभी तो निचली अदालतें कुछ और कहती हैं। हाईकोर्ट उसको पूरा उलट फ़ैसला देता है। इस तरह की कई नज़रें हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों में भी देखने को मिल सकती हैं। हद तो यह हो जाती है कि सिंगिल बेंच कुछ फ़ैसला देती है, डबल या उससे बड़ी बेंच उस फ़ैसले को उलटकर रख देती है।समझ में नहीं आता कि इस उलटबाँसी का आधार क़ानून की एक ही किताब में अपने अपने हिसाब कैसे पढ़ा जाता है?

न्याय के नाम पर चल रही इस अन्यायी व्यवस्था को आखिर कौन बदलेगा? यह काम वकीलों और जजों के बस का नहीं है। यह तो नेताओं को करना पड़ेगा । लेकिन हमारे नेताओं की हालत हमारे जजों और वकीलों से भी बदतर है। हमारे नेता, सभी पार्टियों के या तो अधपढ़ हैं या हीनता ग्रंथि से ग्रस्त हैं। उनके पास न तो मौलिक दृष्टि है और न ही साहस कि वे गुलामी की इस व्यवस्था में कोई मौलिक परिवर्तन कर सकें। इसलिए अब जनता को आगे आना पड़ेगा , जो इस तरह के अन्यायों की शिकार होती रहती है। बाकी जितने पक्ष हैं सबके इस अन्याय से ही हित सधते हैं।इसलिए इनसे उम्मीद करना बेमानी होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।)

Ashiki

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