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इस चौसड़ पर गठबंधन bjp को मात नहीं, केवल शह से कर सकता है परेशान
भाजपा के खिलाफ सियासत करने वाली सपा और बसपा में एका हो गया। 2 जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस कांड के चलते एक दूसरे के धुर शत्रु हुए सपा और बसपा ने गलबहियां कर लीं। बीते लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने इन दोनो दलों को हाशिये पर पहुंचा दिया था।
योगेश मिश्र
दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। राजनीति में स्थाई शत्रु और स्थाई मित्र नहीं होते हैं। 12 जनवरी 2019 को 12 बजकर चार मिनट पर लखनऊ के पांच सितारा होटल में इन दोनो कहावतों को सच होते देखा गया।
सपा बसपा गलबहियां
भाजपा के खिलाफ सियासत करने वाली सपा और बसपा में एका हो गया। 2 जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस कांड के चलते एक दूसरे के धुर शत्रु हुए सपा और बसपा ने गलबहियां कर लीं। बीते लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने इन दोनो दलों को हाशिये पर पहुंचा दिया था।
आल टाइम लो परफार्मेंस
दोनो दलों ने इन दोनो चुनाव में आल टाइम लो परफार्म किया। दोनो के सामने अस्तित्व का संकट था। सपा में अखिलेश यादव ने कमान सम्हाल ली थी। यानी गेस्ट हाउस कांड के एक पात्र का पटाक्षेप हो गया था।
भाजपा की तैयारी थी खतरा
भारतीय जनता पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में जिस तरह की तैयारी से उतरने के लिए कमर कस रही थी उससे यह संदेश आसानी से पढ़ा जा रहा था कि इस बार फिर सपा और बसपा आल टाइम लो के अपने रिकार्ड से ऊपर नहीं आ पाएंगे।
संजीवनी की तलाश
कोई भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल दस साल सत्ता से बाहर हो तो समझिए कि वह नेपथ्य में चला गया क्योंकि उसके समर्थकों, नेताओं को सत्ता संजीवनी देती है। 2003 में मुलायम सिंह यादव ने बसपा को तोड़कर सरकार सिर्फ इसीलिए बनाई क्योंकि उन्हें सत्ता से बाहर रहते लंबा काल खंड हो गया था। इस सरकार ने सपा को नई उम्र दी। संजीवनी दी।
भाजपाई दावे पर सवाल
गठबंधन को लेकर दावे चाहे जो किये जाएं पर यह सच है कि पिछले बार के रिकार्ड कीर्तिमान से आगे का रिकार्ड बनाने का भाजपाई दावा बेवजह लगने लगा है। अपने बूते पर 282 यानी स्पष्ट बहुमत के आंकड़े को इस गठबंधन ने पलीता लगा दिया है। सवर्ण आरक्षण की हवा निकाल कर रख दी है।
हिट रही थी सोशल इंजीनियरिंग
बीते साल हुए दो उपचुनाव में सपा और बसपा की जोड़ी ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के गढ़ में जीत का परचम फहरा कर यह बता दिया था कि सोशल इंजीनियरिंग का उनका फार्मूला फिट ही नहीं हिट भी है।
मुलायम की रणनीतिक साझेदारी का नतीजा
1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी ने बनाई 1993 में भाजपा का रास्ता रोकने के लिए बसपा के साथ रणनीतिक साझेदारी की। सपा 256 और बसपा 164 सीटों पर लड़ी। इस चुनाव में सपा बसपा गठबंधन को 29.06 प्रतिशत वोट और 176 सीटें मिली थीं। जिसमें सपा को 17.94 प्रतिशत व 109 सीटें तथा बसपा को 11.12 प्रतिशत वोट तथा 67 सीटें मिली थीं। जबकि भारतीय जनत पार्टी को 33.30 फीसद वोट और 177 सीटों पर कामयाबी मिली थी।
कल्याण जैसा नेता
हालांकि उस समय कल्याण सिंह जैसा नेता भाजपा के पास था जो मंडल और कमंडल दोनो ताकतों का एकसाथ प्रतिनिधित्व करता था। यह एक ईमानदार, पारदर्शी और समयबद्ध नतीजे देने वाले नेता थे।
तब भाजपा की हवा निकाल दी थी
बावजूद उसके मुलायम और कांशी राम की जोड़ी ने बाबरी विध्वंस के बाद जो भाजपा की हवा चल रही थी उसकी हवा निकाल दी। उस समय नारा दिया गया मिले मुलायम कांशीराम हवा में हो गए जयश्री राम।
गेस्ट हाउस कांड की छाया
गेस्ट हाउस कांड के बाद सवर्ण जातियों से अधिक दलितों का यादवों से बैर हो गया। यह बैर मुखर भी हुआ जब भी सपा की सरकार होती थी तो दलित नौकरशाह हाशिये पर होते थे और जब भी बसपा की सरकार होती थी तो यादव नौकरशाह शंटिंग में डाल दिये जाते थे।
गहरी होती गई खाई
सपा और बसपा सरकार के इस रवैये के चलते ऊपर से नीचे तक यादव और जाटव के बीच गहरी खाई खुद गई थी। यही वजह है कि गठबंधन के दोनो दल अपना वोट ट्रांसफर करा पाएंगे इसको लेकर सवाल खड़ा किया जा रहा है।
धारणा जो जाटव यादव को करीब लाई
उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार आने के बाद यादव और दलित मुख्यधारा में नहीं आ पाए ऐसे में उनके मन में यह धारणा बैठ गई कि भाजपा उनके लिए ठीक नहीं है। यह धारणा जाटव और दलितों को करीब लाने कामयाब होगी। ऐसा दोनो दलों के नेताओं का मानना है। कल तक जो भाजपा पिछड़े वर्ग के अलग जातियों का सम्मेलन कर रही थी इस गठबंधन ने उसकी भी हवा निकाल कर रख दी। क्योंकि दोनो दलों के पास ओबीसी के बड़े इलाकाई नेता हैं।
माया अखिलेश ने गांठें खोलीं
सपा ने दलितों को गेस्ट हाउस कांड के बाद कभी रिझाने की कोशिश नहीं की लिहाजा उसने दलित नेताओं पर तवज्जो नहीं दी। अखिलेश की पहल पर तैयार हुई गठबंधन की नींव में मायावती और अखिलेश दोनो ने मन की गांठें खोलीं।
गेस्ट हाउस कांड का दो बार जिक्र
मायावती ने दो बार गेस्ट हाउस कांड का जिक्र किया, जिस शिवपाल सिंह यादव पर अखिलेश यादव को हमला करना चाहिए था उस पर मायावती ने हमला किया।
सीबीआई की तलवार
केंद्र सरकार द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग की बात भी मायावती ने उठायी हालांकि इन दिनों सीबीआई की तलवार अखिलेश यादव पर लटक रही है। उनके राज में हुए खनन के पट्टों में हुई अनियमितता के मामले मे हाई कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिये हैं। इसमें अखिलेश यादव के पसंदीदा एक दर्जन आईएएस अफसरों के फंसने की उम्मीद है।
मायावती भी झेल चुकी हैं
दो महिला आईएएस अफसरों के घरों में सीबीआई तलाशी ले चुकी है। मायावती को भी ताज कारिडोर मामले में आय से अधिक संपत्ति को लेकर सीबीआई की परेशानी झेलनी पड़ी है। हालांकि मायावती तीन बार भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना चुकी हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी का प्रचार करने भी जा चुकी हैं।
कांग्रेस सपा का रहा है साथ
इसे भी संयोग नहीं कहा जा सकता है कि मुलायम सिंह यादव ने पहली बार अपनी सरकार कांग्रेस की मदद से मिलकर बनाई थी। जब भी उन्हें जरूरत पड़ी तो कांग्रेस सपा के साथ खड़ी मिली।
आज उसी सपा ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है, वह भी तब जब 27 साल यूपी बेहाल के नारे से बीते विधानसभा चुनाव में अकेले अपनी चुनावी शुरुआत करने वाली कांग्रेस ने यू टर्न करते हुए सपा के साथ गठबंधन किया जिसके चलते अखिलेश यादव सरकार के सभी अपयश की वह सहभागी बनी। कांग्रेस को भी आलटाइम लो सिर्फ आठ सीटें मिलीं जबकि सपा को 47 और बसपा को 19 सीटें मिलीं। भाजपा के हाथ 39 फीसदी वोट लगे और उसके 312 एमएलए जीतने में कामयाब हुए।
खाता भी नहीं खोल पायी थी बसपा
2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा 19.60 फीसदी वोट पाकर खाता नहीं खोल पाई जबकि 22 फीसदी वोट पाने के बाद भी केवल पांच सीटें सपा जीत पाई। भाजपा को 42.30 फीसदी वोट मिले और उसे 71 सीटें हाथ लगीं राजनीति में दो और दो चार नहीं होते उसे ठीक से लिखा जाए तो 22 भी हो सकते हैं।
बॉटम लाइन कमजोर है
एक चुनाव से दूसरे चुनाव के फार्मूले में कोई मेल नहीं होता। पर इतना जरूर है कि हर राजनीतिक दल का एक बाटम लाइन होता है। भाजपा को पराजित करने के लिए एकजुट हुई सपा और बसपा की बॉटम लाइन भाजपा को पराजित करने लायक नहीं है।
पीएम नहीं दे सकता यह गठबंधन
अगर वोटों के ध्रुवीकरण के लिहाज से देखें तो इस गठबंधन में कांग्रेस का होना अनिवार्य था यूपी में कांग्रेस को 2012 में 11.65, 2014 में 7.53 और 2017 में छह फीसदी वोट मिले थे। सपा और बसपा चाहे जितनी सीटें पा जाएं पर उनका नेता प्रधानमंत्री नहीं हो सकता इसीलिए मायावती को प्रधानमंत्री के पद पर समर्थन देने के बाबत पूछे गए सवाल पर अखिलेश यादव ने यह कहकर किनारा किया कि आप जानते हैं मै किसका समर्थन करूंगा।
मोदी और राहुल
उत्तर प्रदेश से हमने कई प्रधानमंत्री दिये हैं राजनीति जो शक्ल अख्तियार कर रही हैं उसमें नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी ही दो ऐसे नेता हैं जिनकी अखिल भारतीय स्तर पर छवि है। इन्हीं दोनो के पैन इंडिया कम या ज्यादा समर्थक हैं। ऐसे में कांग्रेस को बाहर रखना मायावती के इस बयान की हवा निकाल देता है जिसमें वह गुरु चेले की नींद उड़ाने वाला इस गठबंधन को बताती हैं। गुरु चेले से उनका संकेत अमित शाह और नरेंद्र मोदी से था।
सत्ता की चाभी के मायने
राजनीति में टोटकों का बड़ा महत्व है इसी पांच सितारा होटल में अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस की थी परिणाम अपेक्षित नहीं आए थे। 15 जनवरी मायावती और डिंपल दोनो का जन्म दिन है। अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार राममनोहर लोहिया का नाम लेकर मायावती ने काशीराम के सत्ता की चाभी अपनी जेब में रखने के राजनीतिक फार्मूले का जिक्र करते हुए यह बता दिया कि गठबंधन की मंशा क्या है। पर सत्ता की चाभी दोनो में से किसकी जेब होगी, यह अनुत्तरित सवाल दोनो दलों के कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं को चुनाव तक समझा पाने में मायावती और अखिलेश यादव किस तरह कामयाब होते हैं यह इस गठबंधन का परिणाम बताएगा। क्योंकि कांग्रेस को बाहर रखकर सत्ता विरोधी रुझान और अल्पसंख्यक मतदाताओं को एक बार फिर ध्रुवीकरण का अवसर देने से यह गठबंधन चूक गया है।
एक ऐसे समय जब राहुल गांधी का अभ्युदय हो रहा हो चार राज्यों में उन की अगुवाई में सरकार बन चुकी हो। नरेंद्र मोदी के ऩिशाने पर सिर्फ राहुल गांधी हों तो ऐसे में भाजपा के खिलाफ वोट देने का मन बनाए लोगों का विकल्प राहुल क्यों नहीं बनेंगे। गठबंधन कास्ट केमिस्ट्री का प्रतिफल है यही उसकी उम्मीद है। यही उसका आधार है।
तो गठबंधन का असर हो जाएगा बेअसर
अगर नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव को जातियों के खाचे से बाहर लाने में कामयाब हो गए तो वह इस गठबंधन के असर को बेअसर कर सकते हैं लेकिन उनकी उत्तर प्रदेश की भाजपा से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह छोटी-छोटी जातियों का सम्मेलन करके खुद को बहुसंख्यकों का राजनीतिक संरक्षक बताने की जगह जातिवादी हो गई है उसकी प्रदेश सरकार ने भी जनता को बेहद निराश किया है। बसपा गठबंधन भाजपा के संकल्प और सपनों को आकार नहीं लेने देगा और भाजपा, सपा-बसपा के दो और दो के समीकरण को चार से ऊपर निकलने से रोकने में कामयाब होगी।