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कौम का लॉंग मार्च
हार सिर्फ कोरोना की ही नहीं होगी। हारेगा या जीतेगा इंडिया भी। सबको मिलकर इंडिया के जीतने की दिशा में आगे बढ़ते हुए कह उठना चाहिए-साथी हाथ बढ़ाना, साथी। कोई अकेला मिल जाये तो मिलकर बोझ उठाना।
योगेश मिश्र
था ग़ुरूर तुझे बहुत लंबी होने का ऐ सड़क
मेरे मुल्क के ग़रीबों ने तुझे पैदल ही नाप दिया।
लॉकडाउन के बाद देश भर से प्रवासी मज़दूरों के पलायन के दृश्य ज़रूर आपकी आँखों के सामने से गुजर रहे होंगे। गुजरे होंगे। इन दृश्यों ने दुख भी पहुँचाया होगा। पीड़ा भी जनी होगी। ग़ुस्सा भी आया होगा। एक मजबूर मंजर से अपने मज़दूर भाइयों को गुजरते हुए देखने के बाद थोड़ा दाना पानी पहुँचाने के सिवाय हम कुछ कर पाने की स्थिति में खुद को नहीं पा रहे हैं।
कई बार लगता है कि हम इनसे ज़्यादा मजबूर हैं। इनमें हौसला है। शहरों को छोड़ अपने गाँव की ओर कूच करने का संकल्प है। मीलों पैदल चलने का कष्ट झेल लेने की शक्ति है। कभी बच्चों को, कभी बीवी को कंधे पर बिठा कर चलते रहने का जुनून है।
इन्हें देखिये अपनी बीवी को कंधे पर बिठा रखा है। मेरी नज़र में यह काम शाहजहाँ के ताजमहल तामीर कराने से बड़ा है। इन पद यात्रियों में ख़तरों से खेलने का माद्दा है। पुलिस के डर से सड़क की जगह रेलवे ट्रैक का रास्ता चुनना गँवारा है। भले थके हारे नींद में चूर १६ साथी रेलवे ट्रैक पर रात गुज़ारने के चलते जान गँवा चुके हों।
जिस रोटी की तलाश में वे घर से शहर आये थे वह बिखरी पड़ी हो। पटरी पर लाशों के बग़ल में बिखरी हुई रोटियाँ बेबस मज़दूरों की सफ़र की तैयारी का हृदय विदारक सुबूत हों।
शहरों से गरीबों का कारवां अब कूच कर गया
कहा जाता है पूँजी का श्रम से कोई रिश्ता नहीं। पर कोई ऐसा उत्पाद नहीं, कोई ऐसा निर्माण नहीं, कोई ऐसा काम नहीं जिसमें मज़दूर के पसीने की बूँदें न हो। पूँजी तो लाभ का हिस्सा हड़प लेती है। पर श्रम को अपना हिस्सा त्यागना पड़ता है। छोड़ना पड़ता है।
समूची इकोनॉमी मज़दूरों के श्रम पर टिकी है। ये राष्ट्र निर्माता हैं। राष्ट्र लगातार शक्तिमान हो रहा है। ये लगातार निर्बल हो रहे हैं। हर सांसद, विधायक, माननीय और नौकरशाह की संपत्ति में साल दर साल इज़ाफ़ा हो रहा है। पर इनकी संपत्ति सिमटती जा रही है।
पलायन के समय इनके कंधे पर लदा बोरा, पीठ पर टिका बैग या सड़क पर घिसटती ट्राली में ही उनका समूचा संसार समाया हुआ है। एक गठरी में इनकी समूची ज़िंदगी बसी है। समूची ज़िंदगी धरी है। ज़िंदगी को इन्होंने गठरी में बांध लिया है।
अगर बीवी बच्चे हैं तो उन्हें थाम लिया है। सड़क पर निकल पड़े है। जिन सड़कों पर वे बसों में किसी तरह ठुंस कर या रेलगाड़ियों की छतों पर अंट कर आते जाते थे, आज वह भी इन्हें नसीब नहीं है। शहर में रहने से बेहतर सड़क पर मरना लग रहा है।
बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा जैसे पिछड़े राज्यों से आकर शहर में बसा ग़रीबों का यह कारवाँ अब कूच कर चुका है, अपने अपने गाँव की ओर। ये गाँव अब उनके वतन हैं। उनके हाथ में जो आना पाई थी, वह भी चुक गई। शहर में स्ट्रीट फ़ूड के सब ठिकाने उखड़ गये है।
शहरों से भूख दी, गांव से पेट भरने का भरोसा
शहर में जीने से बेहतर अब इन्हें गाँव में जीना लगने लगा है। ये गांव क्यों भाग रहे हैं, क्योंकि उन्हें भरोसा है कि गांव भूखा नहीं मरने देगा। वह भी तब जब कोई सरकारी सहायता नहीं आ रही हो। कोई एनजीओ राशन बांटने नहीं आ रहा हो। गांव अपने बलबूते पर जिन्दा है। लेकिन शहर ज्यादा दिन अपने बूते जिन्दा नहीं रह सकते।
क्योंकि न तो वो अनाज पैदा करते हैं, न पानी पैदा करते हैं। वो जो पैदा करते हैं उसे खा नहीं सकते। गांव में बेकारी है। लेकिन भुखमरी नहीं है। लाख विपन्नताओं के बाद भी गांव में भूख से शायद ही कोई मरता हो। शहर आवश्यकता नहीं सपने पूरा करता है। आवश्यकता के लिए अपनी मिट्टी में ही आना होता हैं। अपनी जड़ों की ओर आना होता है। जड़ें जड़ें होती हैं। आज उन्हें सपने नहीं, आवश्यकता पूरी करनी है।
तभी तो इंडिया सड़क पर उतरा है। ये लोग असली भारत के नुमाइंदे हैं। शहर से घर तक की यात्रा में कभी मयस्सर नहीं होता भर पेट भोजन। सड़क के किनारे खेतों में उगे कच्चे पक्के अन्न, फल, सब्ज़ी खाकर बस पेट बंद कर लेते हैं। बच्चों के दूध के दाँत टूटे नहीं पर दूध मिलने वाला नहीं।
इनका सफ़र आसान नहीं है। लाँग मार्च है। समूची यात्रा ज़लालत है। इनकी आँखों से दर्द बहने लगा है। हताशा और मजबूरी इनकी आँखें में पढ़ी जा सकती है। पैदल चलते चलते पैरों में छाले पड़ गये हैं। पैदल जाते आप देख सकते हैं भारत की माता को। गर्भवती है खुद को संभावना मुश्किल है। पैदल जा रहा है भारत का भविष्य। इनके यात्रा की गति रुकती नहीं। थकती नहीं।
भाग्य विधाता को खोजती प्रवासियों की आँखें
कई दिन से खाना नसीब नहीं है। पानी पर ज़िंदगी चल रही है। कईयों के तो हलक सूख गये हैं। बीवी बच्चों के आंसू जम गये हैं। बीवी बच्चों की भूख उन्हें सालती है, कोसती है। रास्ते में पुण्य कमाने वाले लोग कहीं कहीं, कभी कभी दो एक पैकेट थमा देते है। पैकेट खायें या सहेजें। यह यक्ष प्रश्न परेशान करने लगता है। पता नहीं कब रोटी नसीब होगी। यह सवाल खड़ा हो जाता है। पर भूख कमबख्त पैकेट तुरत फुरत ख़त्म कर भगवान भरोसे चल देने को मजबूर कर देती है। इनकी आँखें चारों ओर भारत के भाग्य विधाता को खोजती फिरती हैं।
दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय के बारे में सोचते समय इन्हीं का चित्र सामने रखा होगा। डॉ. राममनोहर लोहिया ने जब कहा होगा- ग़रीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है, तब ये ही सामने खड़े मिले होंगे। महात्मा गांधी के दरिद्र नारायण के ये ही चेहरे होंगे। ये ही भारत के असली प्रतीक हैं। ये ही किसी परिवर्तन कीं आँच में खपने वाली समिधा हैं। ये ही आहुति हैं। ये ही हवन हैं। ये ही यज्ञ की आग हैं। ये ही लकड़ी हैं। ये ही मंत्र हैं। ये ही यंत्र हैं। ये ही तंत्र हैं।
अब ये सब सड़क पर हैं। सड़क पर इंडिया है। देखना है अपनी मंज़िल तक पहुँचने में इनमें से कौन और कितने इस जीवट की यात्रा में कहाँ तक पहुँच पाते हैं। कहाँ छूट जाते हैं। कितने अपनी ख्वाहिशें पूरी कर पाते हैं। उनके एक एक वोट से चुनी सरकार मंज़िल तक की उनकी यात्रा में कहाँ खड़ी मिलती है। हाथ थाम कर कितनी दूर चलती या ले चलती है।
यही संकट के समय तंत्र और गण के रिश्तों का इतिहास लिखेगा क्योंकि उनके पाँव लड़खड़ा रहे हैं। साँसें उखड़ रहीं हैं। कोरोना का भय पसरा हुआ है। मुठ्ठियां ख़ाली और खुली हैं। अंदेशा है कि जो दूरी तय की है, वह बहुत कम है।
दर्द ही दर्द अब फांस बन कर चुभ रहा है
सियासत का दर्द है। भूख पर सियासत है। पलायन पर सियासत है। भले पैदल, साइकिल से या फिर ट्रकों में ठूँस कर यात्रा करनी पड़ रही हो पर सरकारों के ज़बानी जमा खर्च का दर्द है।
सरकार के बेमानी दावों का दर्द है। राजनेताओें के उस दावे का दर्द है जिसमें वह खुद को मज़दूर हितैषी बताते नहीं थकते। कोई कहता हैं मज़दूरों के घर लौटने का पैसा हम देंगे। रेलवे कहती हैं कि हम किराया नहीं ले रहे। पर हर मज़दूर को अंटी ढीली करनी पड़ रही है।
गुजरात से लखनऊ आये प्रदीप और विश्वास कहते हैं उनसे ६२०/- प्रति व्यक्ति लिये गये। बनारसी को आठ सदस्यों के लिए ४४४० रूपये तहसीलदार को देने पड़े। बड़ोदरा से लखनऊ आने वाली सुपरफास्ट गाड़ी के स्लीपर क्लास का टिकट ५६५ रूपये का है। जबकि मज़दूरों से ६२० रूपये लिये गये हैं। बिना पैसा दिये रेल में सवार होना मुश्किल।
साइकिल से लखनऊ से छत्तीसगढ़ जा रहे कृष्णा और उसकी पत्नी प्रमिला की दुर्घटना में मौत हो गयी। कृष्णा ने अपना सारा संसार साइकिल पर लाद रखा था। बेटा निखिल और बेटी चाँदनी घायल है। अंतिम संस्कार के लिए १५ हज़ार रूपये चंदा जुटाने पड़े।
हरियाणा से बिहार के लिए निकली युवकों की टोली बताती है कि घर से पैसा मंगाकर साइकिल ख़रीद चल दिये गाँव की ओर। इनके लिए सरकारों के दावे बेमानी है। कहते हैं जो सरकार हमारे गांव तक हमें नहीं पहुँचा सकती उस पर यक़ीन क्या करें। यह इनका, सबका सधा हुआ जवाब है।
प्रवासी मजदूरों से जुड़े सवाल
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 45.36 करोड़ लोगों ने एक से दूसरे राज्य में पलायन किया। महाराष्ट्र प्रवासियों के लिए सबसे आकर्षक राज्य है। महाराष्ट्र में 5.74 करोड़ प्रवासी हैं। यूपी के 27.55 और बिहार के 5.68 लाख लोग हैं।
आर्थिक गतिविधियों के सामान्य होने के बावजूद 6.7 करोड़ लोग रोज़गार से वंचित रह सकते हैं। जिन लोगों की नौकरियाँ जा रही हैं उन्हें जीवन गुज़ारने लायक़ सुविधा देने में देश के राज्यों पर हर तिमाही 1200 करोड़ डॉलर यानि तक़रीबन 84 हज़ार करोड़ रुपये का बोझ आयेगा।
मज़दूरों के घर लौटने से पहला सवाल यह खड़ा हो गया है कि कल कारख़ाने शहरों में कैसे चलेंगे। दूसरा गांव में इन्हें गुज़ारे के लिए कोई काम मिल पायेगा।
कसौटी पर इन्होंने अपने एक एक वोट से तैयार किये तंत्र (सिस्टम) को खड़ा किया है। उन नुमाइंदों को कसौटी पर ला छोड़ा है जो कभी जात, कभी धर्म, कभी तुष्टिकरण की चतुर चालों से बाँटने, छाँटने और काटने का काम करते रहे हैं।
हार सिर्फ कोरोना की ही नहीं होगी। हारेगा या जीतेगा इंडिया भी। सबको मिलकर इंडिया के जीतने की दिशा में आगे बढ़ते हुए कह उठना चाहिए-साथी हाथ बढ़ाना, साथी। कोई अकेला मिल जाये तो मिलकर बोझ उठाना।